भारत में या दुनिया के दूसरे देशों में भी राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कारकों में समाज व्यवस्था के लगभग बराबर या उससे ज्यादा ही भूमिका अर्थव्यवस्था की होती है। आर्थिक नीतियां और स्थितियां किसी न किसी रूप से मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित करती हैं। तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमोबेश सभी पार्टियां या सरकारें आर्थिक नीति का इस्तेमाल वोट बैंक की राजनीति साधने के लिए करती हैं। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का अचानक ई कॉमर्स की कंपनी अमेजन पर हमला करना ऐसा ही एक दांव है। उन्होंने एक करोड़ खुदरा कारोबारियों की चिंता में दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा ई कॉमर्स की कंपनी को कठघरे में खड़ा किया है।
देश के वाणिज्य मंत्री ने अमेजन के ऊपर बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा है कि कंपनी नियमों का उल्लंघन करके सीधे ग्राहकों को सामान बेचती है। उनके मुताबिक अमेजन बी2बी यानी बिजनेस टू बिजनेस प्लेटफॉर्म है लेकिन बी2सी यानी बिजनेस टू कंज्यूमर प्लेटफॉर्म की तरह काम कर रही है। उन्होंने यह आरोप लगाया है कि कंपनी अपनी बैलेंस शीट का घाटा भरने के लिए एक अरब डॉलर का निवेश कर रही है। केंद्रीय मंत्री ने यह आरोप भी लगाया है कि कंपनी ने पेशेवरों को एक हजार करोड़ रुपए का भुगतान किया। इसमें से बड़ी रकम वकीलों को गई है। उनके हिसाब से कंपनी ने वकीलों की फौज खड़ी की है ताकि कोई उसके खिलाफ मुकदमा नहीं लड़ सके।
वाणिज्य मंत्री की ओर से लगाए गए इतने गंभीर आरोपों को पढ़ कर हैरानी हो रही है कि जब सरकार को पता है कि यह कंपनी इतनी तरह की गड़बड़ियां कर रही है तो उसे ऐसा क्यों करने दिया जा रहा है? सरकार ने अब तक उसको रोका क्यों नहीं? क्या अब सरकार उसे ऐसा करने से रोक देगी? और अगर उसे रोकेगी तो वैसे ही ई कॉमर्स के काम करने वाली टाटा और अंबानी समूह की कंपनियों के साथ क्या किया जाएगा? पीयूष गोयल को एक करोड़ खुदरा कारोबारियों की चिंता है तो क्या अकेले अमेजन इन खुदरा कारोबारियों के लिए खतरा है या दूसरी तमाम ई कॉमर्स कंपनियां भी ऐसा ही खतरा पैदा कर रहे हैं? क्या ये सभी कंपनियां सस्ता सामान बेच कर बाजार पर कब्जा करने के एक ही मॉडल पर काम नहीं कर रही हैं तो फिर निशाना सिर्फ एक कंपनी क्यों है? क्या एक कंपनी को निशाना बना कर वाणिज्य मंत्री सभी खुदरा ई कॉमर्स कंपनियों को कोई मैसेज दे रहे हैं? या इसका मकसद सिर्फ राजनीति साधना है और एक करोड़ खुदरा कारोबारियों को यह संदेश देना है कि सरकार उनके हितों का ध्यान रख रही है? इसके अलावा एक बड़ा सवाल यह है कि खुदरा कारोबार के अलावा दूसरे क्षेत्रों में जो एकाधिकार बना है उसके बारे में सरकार क्या सोचती है?
इन तमाम सवालों के जवाब बहुत मुश्किल नहीं हैं। इनका एक ही जवाब है कि सरकार को ई कॉमर्स के पूरे मॉडल से कोई समस्या नहीं है। समस्या होती तो पहले ही इसे काबू में किया जाता। समस्या यह है कि एक करोड़ खुदरा कारोबारियों में बड़ा समूह भाजपा का समर्थक है, जिनके कारोबार को ई कॉमर्स की व्यवस्था के चलते नुकसान हुआ है। कीमत बढ़ाने और पैकेज्ड उत्पादों की मात्रा घटाने यानी इन्फ्लेशन और स्रिंकफ्लेशन के बावजूद कारोबारियों को नुकसान हो रहा है। गेहूं से लेकर चीनी तक के निर्यात पर रोक लगाने के बाद भी सरकार कीमतों का बढ़ना नहीं रोक पा रही है और न खुदरा कारोबारियों का कारोबार बढ़ा पा रही है। सोचें, वाणिज्य मंत्री के बयान के बारे में, जिन्होंने खुल कर एक करोड़ खुदरा कारोबारियों के हितों की बात उठाई लेकिन 140 करोड़ उपभोक्ताओं का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। जिस तरह से वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी के नाम पर सरकार सीरिंज लगा कर आम जनता का खून चूस रही है उसी तरह उसने कारोबारियों को खून चूसने की छूट दे रखी है। अब उसे इस बात से दिक्कत हो रही है कि ई कॉमर्स की कंपनियों के कारण खुदरा कारोबारी आम उपभोक्ताओं का खून ठीक से नहीं चूस पा रहे हैं। ई कॉमर्स की अमेजन जैसी कंपनियां बाहर से लाखों डॉलर लाकर बाजार को बिगाड़ रही हैं। उनको घाटा हो रहा है लेकिन वे घाटे की भरपाई बाहर से पैसा लाकर कर रही हैं। सरकार को निश्चित रूप से इसे विनियमित करना चाहिए क्योंकि इससे प्रतिस्पर्धा प्रभावित हो रही है लेकिन उसे उपभोक्ताओं के हितों का भी तो ध्यान रखना चाहिए। देश में बढ़ती महंगाई से आम लोगों को कैसे राहत मिले, इसके बारे में सोचना क्या सरकार का काम नहीं है?
यह भी तो सवाल है कि दूसरी सेवाओं में जो एकाधिकार बना या अब भी बन रहा है उसको लेकर सरकार क्यों नहीं कोई कदम उठा रही है? रिलायंस समूह ने जियो सर्विस लॉन्च की तो उसने मुफ्त हैंडसेट के साथ साथ लगभग मुफ्त में सेवा देनी शुरू की। तब क्या उसने बाजार को नहीं बिगाड़ा था? तब भी यही सरकार केंद्र में थी तो उसने क्यों नहीं इसे रोका? क्या इसलिए सरकार चुप रही क्योंकि इससे भाजपा के वोट बैंक पर असर नहीं हो रहा था? जिस तरह से कीमत और बाजार खराब करके जियो ने एकाधिकार बनाया वह केस स्टडी है। आज एकाधिकार कायम होने के बाद वह जिस तरह से उपभोक्ताओं पर बोझ डाल रही है वह देश के वाणिज्य मंत्री को नहीं दिख रहा है।
चूंकि जियो के एकाधिकार से गिनी चुनी कंपनियों पर ही असर हुआ तो सरकार चुप रही है। लेकिन यह देश और उपभोक्ताओं के लिए कितना नुकसानदेह था कि उस समय सेवा दे रही सारी सेलुलर कंपनियां बंद हो गईं! टाटा डोकोमो से लेकर यूनिनॉर, एमटीएस, एयरसेल जैसी तमाम सेवाएं बंद हो गईं। तब न सरकार ने कुछ कहा और न सरकार के बनाए कंपीटिशन कमीशन ऑफ इंडिया ने कुछ किया। अब भी अडानी समूह देश के हवाईअड्डे के संचालन और बंदरगाह के मामले में एकाधिकार बना रहा है लेकिन सरकार को उसकी कोई चिंता नहीं है। रिलायंस और डिज्नी वर्ल्ड के विलय को लेकर प्रतिस्पर्धा खत्म होने की चिंता जताई गई है, जिसका देश के ज्यादा बड़े समूह पर असर नहीं होना है लेकिन हवाईअड्डे और बंदरगाह पर एकाधिकार को लेकर कोई चिंता नहीं है।
सरकार का यह चुनिंदा रवैया न तो देश के कारोबारी माहौल को बेहतर कर सकता है और न इससे उपभोक्ताओं का भला हो सकता है। सरकार को एकाधिकारी अर्थव्यवस्था को समग्रता में देखने की जरुरत है। ई कॉमर्स कंपनियों के कारोबार को विनियमित करने की जरुरत तो है लेकिन साथ ही हवाई सेवाओं में एक या दो कंपनियों के एकाधिकार पर भी विचार करने की जरुरत है। हवाईअड्डों और बंदरगाहों के कारोबार में एक कंपनी के एकाधिकार को रोकने के उपायों भी करने की जरुरत है। खेलों के प्रसारण से लेकर समूचे मनोरंजन उद्योग पर एक कंपनी की मोनोपोली को भी रोकने की जरुरत है। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता सुनिश्चित करने के लिए न्यूज मीडिया में चुनिंदा कंपनियों के एकाधिकार को रोकने के बारे में भी गंभीरता से सोचने की जरुरत है। हकीकत यह है कि भारत लगभग पूरी तरह से क्रोनी पूंजीवाद की चपेट में आ गया है, जिसमें चुनिंदा कंपनियां हर सेक्टर में एकाधिकार बना रही हैं। भारत सरकार अगर किसी एक सेक्टर को चुन कर उसमें भी सिर्फ एक कंपनी को निशाना बनाती है तो इससे उसका पूर्वाग्रह या निहित एजेंडे का ही आभास होता है।