इसरो के पूर्व अध्यक्ष के राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली सात सदस्यों की कमेटी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी एनटीए में सुधारों पर विचार कर रही है। सात सदस्यों की यह उच्चस्तरीय समिति दो महीने में अपनी रिपोर्ट सरकार को देगी। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान हर जगह इसका हवाला दे रहे हैं कि सरकार परीक्षा सुधारों के लिए काम कर रही है। लेकिन सवाल है कि क्या काम हो रहा है? क्या एक कमेटी बना देने और उसकी सिफारिशों से परीक्षा की व्यवस्था में सुधार हो जाएगा? यह इतना आसान काम नहीं है।
शिक्षा और परीक्षा दोनों का मामला बहुत जटिल है और व्यापक विचार विमर्श के जरिए ही इसमें सुधार किया जा सकता है। केंद्र सरकार की बनाई कमेटी पिछले करीब दो हफ्ते से एनटीए में सुधार के लिए काम कर रही है लेकिन कहीं भी यह देखने को नहीं मिला है कि उसने संबंधित पक्षों से विचार विमर्श किया है। इस मामले में जितने स्टेकहोल्डर्स हैं उनके साथ सलाह मशविरा करने की जरुरत है। छात्रों और अभिभावकों की राय लेने की भी जरुरत है और राज्य सरकारों के साथ भी विचार विमर्श किया जाना चाहिए। उसके बगैर किसी भी सुधार की सिफारिश का कोई मतलब नहीं रहेगा।
आखिर इसी तरह की किसी कमेटी की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने छह साल पहले एनटीए का गठन किया था लेकिन उससे क्या हुआ? परीक्षा की एक केंद्रीकृत व्यवस्था बन गई, परंतु छात्रों का भला नहीं हुआ। उलटे उनकी मुसीबतें बढ़ गईं। पूरे देश के लिए होने वाली एक केंद्रीकृत परीक्षा में अगर किसी एक राज्य में कोई गड़बड़ी हुई तो पूरे देश के परीक्षार्थियों के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है। पहले राज्यवार परीक्षाएं होती थीं तो उनकी समस्या भी स्थानीय स्तर की होती थी और दूसरे राज्यों पर उसका असर नहीं होता था। लेकिन एक देश, एक परीक्षा की सोच में केंद्रीकृत परीक्षाएं हो रही हैं। इसके लिए एक बड़ी एजेंसी बना दी गई लेकिन न तो सरकार और न एनटीए जैसी एजेंसियां फुलप्रूफ परीक्षा की गारंटी दे पा रही हैं।
इसका कारण यह है कि सरकार ने एनटीए का गठन तो कर दिया लेकिन किसी की जवाबदेही तय नहीं की। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एनटीए को एक स्वतंत्र रजिस्टर्ड सोसायटी बनाया गया है और सारे अधिकारी डेपुटेशन पर लाए गए। सोचें, यह एक रजिस्टर्ड सोसायटी है, जिसमें सिर्फ 14 लोग काम करते हैं। ये सभी 14 अधिकारी हैं, जो अलग अलग विभागों से डेपुटेशन पर लाकर रखे गए हैं। इसके अलावा सब कुछ ठेके पर चलता है। इसका ऑफिस किराए की इमारत में है। पेपर सेट करने से लेकर, पेपर छापने और परीक्षा कराने तक सब कुछ ठेक पर दिया जाता है।
यहां तक कि ओएमआर सीट स्कैन करने का काम भी किराए की इमारत में होता है। और ऐसी संस्था को मेडिकल, इंजीनियरिंग, नेट, सीयूईटी सहित करीब 15 परीक्षाएं आयोजित करने की जिम्मेदारी दी गई है! हैरानी की बात है कि इस साल की पहली छमाही में एनटीए ने छह परीक्षाओं का आयोजन किया है, जिससे 915 करोड़ रुपए फीस वसूली गई है। कुल 53 लाख छात्रों ने इस साल परीक्षा दी है। पिछले साल 1.33 करोड़ छात्रों ने परीक्षा दी थी। पिछले छह साल में इस संस्था ने चार करोड़ छात्रों की परीक्षा ली है। सोचें, एक रजिस्टर्ड सोसायटी का इतना बड़ा दायरा करने की क्या जरुरत है?
सरकार अगर सचमुच चाहती है कि परीक्षाओं में पेपर लीक और कदाचार की घटनाएं रूकें तो उसे सबसे पहले इन्हें विकेंद्रित करना होगा, जैसा पहले होता था। लेकिन सरकार ऐसा करेगी, इसकी संभावना कम है। अगर वह नहीं किया जा सकता है तो तत्काल जवाबदेही तय की जानी चाहिए। पेपर लीक या परीक्षा में गड़बड़ी होने पर परीक्षा कराने वाली संस्था के अधिकारी का तबादला कर देना या परीक्षा केंद्र पर छोटे मोटे दो चार लोगों को गिरफ्तार कर लेना इस समस्या का समाधान नहीं है। जब तक शीर्ष स्तर पर जिम्मेदारी तय नहीं होगी, इस तरह की घटनाओं को नहीं रोका जा सकेगा।
सरकार को यह समझना होगा कि परीक्षा सिर्फ किसी संस्थान में दाखिला प्राप्त करने या कोई नौकरी हासिल कर लेने का माध्यम नहीं है। यह देश की शीर्ष शिक्षण संस्थानों और परीक्षा आयोजित करने वाले संस्थानों के प्रति आम नागरिक के भरोसे की परीक्षा है। देश का आम नागरिक अपने बच्चों को प्रतियोगिता और प्रवेश परीक्षाओं में इस भरोसे के साथ शामिल करता है कि वहां उसकी योग्यता और क्षमता का ईमानदारी से आकलन होगा। लगातार हो रही गड़बड़ियों से नागरिकों का यह भरोसा टूट रहा है। सोचें, मेडिकल में दाखिले के लिए हुई नीट यूजी की परीक्षा में 24 लाख छात्र शामिल हुए थे यानी करीब 24 लाख परिवार इससे जुड़े थे।
यानी कम से कम एक करोड़ 20 लाख लोग किसी न किसी रूप में इसमें शामिल थे। सरकार को समझना चाहिए कि किस तरह से परिवार अपने जरूरी खर्चों में कटौती करके बच्चों को परीक्षा की तैयारी कराते हैं। किस तरह से किशोर उम्र के छात्र अपने शौक और अपनी भावनाओं को दबा कर रात दिन एक करके परीक्षा की तैयारी करते हैं। कितनी मुश्किलों से परीक्षा केंद्र तक जाकर लाखों बच्चे परीक्षा में शामिल होते हैं। यह सिर्फ बच्चों की नहीं, उनके पूरे परिवार की परीक्षा होती है। और उसमें इस तरह की घटनाएं हों तो वह सिर्फ कानून के प्रति नहीं, बल्कि मानवता के प्रति अपराध होता है, जिसमें सरकार भी शामिल होती है।
सरकार को शिक्षा और परीक्षा की बुनियादी चुनौतियों को समझना चाहिए। इसकी बुनियादी समस्या यह है कि आबादी के अनुपात में न तो शिक्षण संस्थान हैं और न नौकरियां हैं। अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी से पढ़ाई महंगी होती जा रही है और अच्छी नौकरी हासिल करने की चुनौती भी बड़ी होती जा रही है। नौजवानों की आकांक्षा और उपलब्ध अवसर के बीच इतनी बड़ी खाई है, जिसे पाटना असंभव दिख रहा है। इसलिए जब सरकार परीक्षा में सुधार पर चर्चा कर रही है तो उसे इस बुनियादी समस्या को भी समझना होगा कि कैसे अच्छे शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ाई जाए और कैसे पढ़ाई को सस्ता बना कर आम लोगों के लिए उसे सुलभ बनाया जाए। ऐसा होगा तभी परीक्षा में पेपर लीक और कदाचार रोकने में आसानी होगी।
जब परीक्षा को विकेंद्रित करने की बात होती है तो उसी में शिक्षा को भी विकेंद्रित करने की बात समाहित होती है। आजादी के बाद शिक्षा को राज्यों का विषय माना गया था और शक्ति के पृथक्करण सिद्धांत के तहत शिक्षा को राज्य सूची में शामिल किया गया था। लेकिन जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी ने लगाई तो उन्होंने शिक्षा में सुधार पर स्वर्ण सिंह कमेटी का गठन किया और उसकी सिफारिशों पर इसे समवर्ती सूची में डाल दिया गया। बाद में जनता पार्टी की सरकार ने बहुत से संशोधनों को बदला लेकिन शिक्षा को राज्य सूची में शामिल करने का उसका बिल राज्यसभा से पास नहीं हो सका।
सो, यह समवर्ती सूची में ही रह गया। अब समय आ गया है कि इसे समवर्ती सूची से निकाल कर राज्य सूची में डाला जाए। अभी शिक्षा पर देश में हर साल औसतन छह लाख करोड़ रुपया खर्च होता है, जिसका 85 फीसदी राज्य सरकारें ही करती हैं। ऐसे में केंद्र को इसमें एकाधिकार बनाने से बचना चाहिए। तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल तक कई सरकारें परीक्षा के विकेंद्रीकरण की मांग कर रही हैं। केंद्र सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।