भारतीय जनता पार्टी के नेता बात बात पर विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को बरखास्त कराने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति को ज्ञापन देने पहुंच रहे हैं। उनके हिसाब से पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को तत्काल बरखास्त कर देना चाहिए क्योंकि वहां एक अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के साथ बलात्कार और जघन्य हत्या की घटना की जांच में पुलिस ने कुछ गड़बड़ी की है और उसके खिलाफ डॉक्टर एक महीने से हड़ताल पर हैं। हालांकि अब मामले की जांच सीबीआई कर रही है और मुख्य आरोपी गिरफ्तार कर लिया गया है। इसी तरह भाजपा के नेता चाहते हैं कि दिल्ली की सरकार बरखास्त हो क्योंकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जेल में बंद हैं और उनकी गैरहाजिरी से कामकाज प्रभावित हो रहा है। भाजपा नेता कर्नाटक से लेकर तेलंगाना और पंजाब से लेकर झारखंड तक राज्य सरकारों को बरखास्त कराने की मुहिम चला चुके हैं। लेकिन देश के 29 राज्यों में राष्ट्रपति शासन के लिए जो सबसे फिट केस है वह मणिपुर का है, जिसके बारे में किसी को कोई चिंता नहीं है।
मणिपुर में 16 महीने से जातीय हिंसा चल रही है। हाई कोर्ट के एक फैसले के बाद तीन मई 2023 को विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ था, जो हिंसक आंदोलन में तब्दील हो गया। तब से अभी तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं और हजारों लोग विस्थापित हुए हैं। हजारों लोग शरणार्थी शिविरों में रह रह हैं तो हजारों लोग पड़ोसी राज्य मिजोरम में शरण लिए हुए हैं। राज्य में चल रही जातीय हिंसा का सहारा लेकर तमाम उग्रवादी संगठन, जो पिछले कुछ बरसों से निष्क्रिय हो गए थे या समाप्त हो गए थे उनको संजीवनी मिल गई है। सीमा पार म्यांमार से घुसपैठ चल रही है और वहां भी उग्रवादी संगठनों को शह मिल रही है। किसी न किसी बहाने चीन का दखल भी दिख ही रहा है। सो, मणिपुर का मानवीय संकट एक बड़े राजनीतिक और सामरिक संकट में बदल गया है। इस समय प्रधानमंत्री से लेकर देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक सब रूस और यूक्रेन का झगड़ा सुलझाने में लगे हैं, जबकि इस समय पहली जरुरत कुकी और मैती का झगड़ा सुलझाने की है।
ऐसा लग रहा है कि मणिपुर संकट में समय बीतने के साथ नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। पहले इसकी शुरुआत विरोध प्रदर्शन से हुई थी, जिसमें कुछ हिंसा हुई। फिर छिप कर गुरिल्ला युद्ध शुरू हुआ। पहाड़ी पर कुकी समूहों ने डेरा डाला और घाटी में मैती समुदाय डटे। इनके बीच छिटपुट हिंसा चलती रही। लेकिन अब पूरी समस्या का आयाम ही बदल गया है। अब ड्रोन से हमले हो रहे हैं और रॉकेट बम दागे जा रहे हैं। पूरे संकट में पहली बार ऐसा हुआ कि एक और तीन सितंबर को ड्रोन से हमला हुआ। राजधानी इम्फाल में और आसपास के इलाकों में ड्रोन से हमले किए गए, जिसमें कई लोग मरे। फिर एक दिन रॉकेट बम से हमला हुआ। राज्य के पहले मुख्यमंत्री के घर पर हमला किया गया। इसके बाद एक दिन दोनों समूह आमने सामने आ गए और एक दूसरे पर जम कर गोलीबारी की, जिसमें छह लोग मारे गए। यह सब एक से आठ सितंबर के बीच हुआ।
अचानक हिंसा में हुई बढ़ोतरी के विरोध में आठ सितंबर को मैती समुदाय के छात्र सड़क पर उतरे और उन्होंने प्रदर्शन शुरू किया। नौ और 10 सितंबर को उनका प्रदर्शन हिंसक हो गया। उन्होंने राजभवन पर पथराव किया और केंद्रीय सुरक्षा बलों के ऊपर हमला किया। जवाबी कार्रवाई में सुरक्षा बलों ने उन पर नकली गोलियां दागी और आंसू गैस के गोले छोड़े। प्रदर्शनकारी छात्रों ने राज्यपाल को छह सूत्री मांग सौंपी और जवाब के लिए धरने पर बैठ गए। राज्य के पुलिस प्रमुख और सुरक्षा सलाहकार को हटाने जैसी उनकी राजनीतिक मांगों के साथ साथ एक बड़ी मांग यह है कि सीआरपीएफ के पूर्व अधिकारी के नेतृत्व में बनी सुरक्षा बलों की एकीकृत कमान को मुख्यमंत्री को सौंप दिया जाए। प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि पुलिस और सीआरपीएफ की एकीकृत कमान मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह संभालें। खुद एन बीरेन सिंह ने राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य से मुलाकात करके एक आठ सूत्री मांगपत्र उनको दिया था, जिसमें उनकी एक मांग यही थी कि एकीकृत कमान उनको दी जाए।
जाहिर है प्रदर्शनकारी वही चाहते हैं, जो मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह चाहते हैं। जिस तरह से प्रदर्शनकारी छात्र मुख्यमंत्री के प्रति सद्भाव दिखा रहे हैं और उनकी बजाय राजभवन को निशाना बना रहे हैं उससे कहीं न कहीं यह भी लग रहा है कि प्रदर्शन के बीच मुख्यमंत्री की शह है। वे राज्य और केंद्र का विभाजन भी करा रहे हैं। ध्यान रहे एक बार बीरेन सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश की थी तो तुरंत ही महिलाओं की एक बड़ी प्रायोजित भीड़ उनके आवास पर इकट्ठा हो गई थी और महिलाओं ने उनका इस्तीफा फाड़ कर फेंक दिया था। उसके बाद फिर बीरेन सिंह इस्तीफा नहीं लिख पाए। उस प्रहसन में कोई हिंसा नहीं हुई थी लेकिन अभी जो प्रायोजित विरोध प्रदर्शन चल रहा है उसमें हिंसा हो रही है और उसकी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री के ऊपर है। लेकिन पता नहीं क्यों केंद्र सरकार और भाजपा आलाकमान की हिम्मत नहीं हो रही है कि वे मुख्यमंत्री बीरेन सिंह से सख्ती के साथ बात करें। वे अपनी मैती पहचान के साथ सिर्फ अपने वोट आधार की चिंता में हैं और बाकी समूहों को उनके हालात पर छोड़ा हुआ है। उनको पता है कि मैती आबादी और उसके बहुसंख्यक विधायक उनके साथ खड़े हैं तो कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
इस बीच राज्य में जातीय विभाजन हद से ज्यादा बढ़ गया है। कुकी और मैती दोनों अपनी पहचान उजागर करके एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं। प्रदर्शनकारी छात्र खुल कर कह रहे हैं कि राज्य के 60 विधायकों में से जो 50 विधायक मैती समुदाय के हैं वे सड़क पर उतरें और इस्तीफा दें। दूसरी ओर 10 कुकी विधायक पहाड़ के ऊपर डेरा डाले कुकी समूहों के साथ खड़े हैं। दोनों एक दूसरे पर हमला करने का कोई भी मौका नहीं चूक रहे हैं। यह अलग बात है कि कम आबादी वाले कुकी समूह को राजधानी दिल्ली से लेकर देश के हर मीडिया में उग्रवादी लिखा जा रहा है और बहुसंख्यक मैती प्रदर्शनकारी कहे जा रहे हैं। हकीकत यह है कि दोनों जातीय समूह उग्रवादी बन गए हैं। इसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है।
राज्य में दो समुदायों के अलावा भी लोग रहते हैं। नगा और नेपाली आबादी भी रहती है। लेकिन सबका जीवन दूभर हो गया है। इन दोनों समुदायों के भी हजारों लोग शरणार्थी शिविरों में हैं, जिनका जीवन कठिन परिस्थितियों में गुजर रहा है। हजारों बच्चों की पढ़ाई लिखाई बंद हो गई है। समय के साथ हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते जा रहे हैं। राज्य के कई जिलों में कर्फ्यू लगी हुई है और कई जिलों में इंटरनेट बंद है। स्कूलों, कॉलेजों में परीक्षाएं होनी हैं, जिन्हें स्थगित कर दिया गया है। इस समय कुकी और मैती का झगड़ा खत्म कराने का तरीका यह है कि नेतृत्व तटस्थ हाथों में दिया जाए। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा कर राज्यपाल के हाथ में एकीकृत कमान सौंपी जाए। तभी तटस्थ और निरपेक्ष होकर विवाद सुलझाने की पहल हो सकेगी। ध्यान रहे अब मणिपुर का संकट देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा बन रहा है। तभी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पहल करके हिंसा समाप्त कराने का प्रयास करना चाहिए।