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कांग्रेस के लिए मंडल राजनीति मुश्किल

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हरियाणा के चुनाव नतीजों ने एक बार फिर प्रमाणित किया है कि कांग्रेस पार्टी जातीय राजनीति में प्रवेश कर तो गई है लेकिन उसकी जटिलताओं को समझ नहीं पा रही है और अगर समझ रही है तो उससे निपटने के उपाय उसको नहीं सूझ रहे हैं। राहुल गांधी ने अप्रैल 2023 से जाति जनगणना और आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा जोर शोर से उठाया है और उसके बाद से हरियाणा चौथा राज्य था, जहां कांग्रेस तमाम आदर्श स्थितियों के बावजूद चुनाव हारी।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बाद हरियाणा में कांग्रेस की यह राजनीति विफल रही है। कह सकते हैं कि इस दौरान कांग्रेस कर्नाटक में चुनाव जीती और लोकसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या में बड़ा इजाफा हुआ। लेकिन अगर लोकसभा के नतीजों को भी बारीकी से देखेंगे तो पता चलेगा, उसमें भी राहुल गांधी की जाति गणना कराने और आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने के दांव का बहुत कम योगदान है। कांग्रेस को या तो दक्षिण भारत से सीटें मिली हैं या अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ चतुराईपूर्ण गठबंधन की वजह से सीटें मिली हैं।

सवाल है कि कांग्रेस का जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने का दांव क्यों नहीं कामयाब हो रहा है? इसका मुख्य कारण यह है कि अन्य पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी की राजनीति मंडल के दौर से बहुत आगे बढ़ चुकी है और कांग्रेस नेतृत्व न तो उसके इतिहास को समझ रहा है और न उसकी जटिलताओं को समझ रहा है। कांग्रेस नेतृत्व की तीन गलतियां बहुत स्पष्ट हैं। पहली, वह अभी तक ओबीसी को एक होमोजेनस समुदाय मान कर उसकी कॉमन अस्मिता की राजनीति कर रही है। दूसरी, मंडल के ऊपर कमंडल के असर का आकलन नहीं कर रही है और तीसरी राहुल गांधी चाहते हैं कि सिर्फ बातों से काम बन जाए। यानी वे भाषण दें और अच्छी अच्छी बातें कहें, उससे पिछड़ी जातियां कांग्रेस के साथ जुड़ जाएं। वे पिछड़ा नेतृत्व आगे किए बगैर कांग्रेस नेतृत्व के पारंपरिक ढांचे में यह राजनीति कर रहे हैं।

सबसे पहला मामला यह है कि पोस्ट मंडल यानी मंडल के बाद की राजनीति बहुत बदल गई है। कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को पढ़ने समझने वालों को पता है कि कोई भी वाद या विचार स्थायी नहीं होता है। विचार के साथ ही प्रतिविचार का जन्म होता है और दोनों के द्वंद्व से एक संविचार यानी पहले से परिष्कृत विचार का जन्म होता है। सो, मंडल की राजनीति के मजबूत होने पर इसके अंदर ही टकराव और बिखराव शुरू हुआ। इसको वर्गीकरण के रूप में समझ सकते हैं। हालांकि जैसे अभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण का मामला तूल पकड़े हुए है उस तरह पिछड़ी जातियों में नहीं हुआ लेकिन बिहार और कुछ अन्य जगहों पर पिछड़ा और अति पिछड़ा के तर्ज पर सरकारी नौकरियों और दाखिले में वर्गीकरण दिखाई दिया। साथ ही राजनीतिक स्तर पर इसका दायरा ज्यादा व्यापक हुआ। कई जगह मजबूत पिछड़ी जातियों के खिलाफ कमजोर पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हुई। एकसमान पिछड़ी अस्मिता की जगह कई अस्मिताओं का जन्म हुआ।

जिस तरह से एक जमाने में अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों के लिए वर्ग शत्रु थीं उसी तरह मजबूत पिछड़ी जातियां कमजोर पिछड़ी जातियों के लिए वर्ग शत्रु हो गईं। बिहार में इसी दायरे को बढ़ा कर नीतीश कुमार ने इतने बरसों तक सफल राजनीति की। उन्होंने अगड़ा पिछड़ा के नैरेटिव में चुनाव नहीं जीते, बल्कि पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा और दलित बनाम महादलित के नैरेटिव में चुनाव जीते। उत्तर प्रदेश के दो चुनावों में भाजपा की जीत इसी राजनीति का नतीजा थी। लेकिन 2024 में अखिलेश यादव ने सबक लिया और अगड़ा पिछड़ा के पुराने नैरेटिव को सफलतापूर्वक जीवित करने में कामयाब रहे। योगी आदित्यनाथ के राज की जातीय गौरव की कहानियों ने इसमें उनकी मदद की। बहरहाल, पोस्ट मंडल राजनीति में हुए इस सामाजिक वर्गीकरण को कांग्रेस नहीं समझ पा रही है या समझ रही है तो इसके बेहतर राजनीतिक इस्तेमाल के लिए तैयार नहीं है। अगर वह इस सामाजिक वर्गीकरण को समझ ले और तमाम पिछड़ी जातियों की सत्ता में हिस्सेदारी की चाहना को समझ ले तो वह ज्यादा बेहतर ढंग से इसकी राजनीति कर पाएगी। उसे समझना होगा कि अब सत्ता का समीकरण बदल गया है। धरातल पर मौजूद सामाजिक टकरावों की राजनीति में भूमिका बढ़ी है और सिर्फ पिछड़ी जातियां ही नहीं, बल्कि कोई भी जाति होमोजेनस नहीं रह गई है।

अगड़े पूरी तरह के अगड़ों की तरह या पिछड़े पूरी तरह से पिछड़ों की तरह वोट नहीं कर रहे हैं। जातियों की समरूपता टूटने से जटिलता बढ़ी है, जिसको भाजपा ने बेहतर ढंग से समझा है। इतना ही नहीं उसने जाति राजनीति को अलग अलग राज्यों में अलग अलग तरह से लागू किया है, जबकि राहुल गांधी एक साइज का जूता हर पैर में पहनाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा को पता है कि बिहार और यूपी में यादव उसका साथ नहीं देंगे तो उसने गैर यादव पिछड़ी जातियों को साथ जोड़ा लेकिन दूसरी तरफ मध्य प्रदेश और हरियाणा में ऐसा सामाजिक टकराव नहीं है तो वहां यादव के साथ साथ दूसरी पिछड़ी जातियों को भी अपने साथ मिला लिया। यह एक उदाहरण है। बाकी हर राज्य में भाजपा ने सामाजिक टकरावों को समझ कर जातियों का गणित बैठाया है।

दूसरा मामला मंडल की राजनीति पर कमंडल के असर का है। पिछले 10 साल के नरेंद्र मोदी के राज ने मंडल और कमंडल का फर्क मिटा दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी की भाजपा यह काम नहीं कर पाई थी। चूंकि उस समय भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अगड़ी जातियों का था इसलिए वे मंडल और कमंडल की दूरी को पाट नहीं सकते थे। अलबत्ता गोविंदाचार्य ने यह काम कल्याण सिंह के जरिए उत्तर प्रदेश में किया था और बाद में उमा भारती के जरिए इसे मध्य प्रदेश में दोहराया गया। लेकिन केंद्र में नरेंद्र मोदी के आने के बाद ज्यादा प्रयोग करने की जरुरत नहीं रह गई। मोदी ने अकेले वह काम कर दिया, जो 1990 से 2010 तक भाजपा नहीं कर पाई थी। उन्होंने भाजपा के ब्राह्मण, बनियों की पार्टी होने की धारणा पूरी तरह से बदल दिया। अब कांग्रेस या लेफ्ट या किसी भी समाजवादी पार्टी के मुकाबले भाजपा पिछड़ों की ज्यादा स्वाभाविक पार्टी है। इसका मुख्य कारण मोदी का नेतृत्व है।

लेकिन उसके साथ साथ मोदी सरकार के अनेक फैसले हैं। जैसे राष्ट्रीय पिछड़ी जाति आयोग को संवैधानिक दर्जा देना। मेडिकल के दाखिले में केंद्रीय कोटे में ओबीसी आरक्षण लागू करना। नवोदय से लेकर सैनिक स्कूलों तक में ओबीसी आरक्षण लागू करना। केंद्र सरकार में ओबीसी मंत्रियों की संख्या बढ़ाना और खुल कर उनका जिक्र करना, आदि। कांग्रेस देर से जाति की राजनीति में आई है तो अब भी नब्बे के दशक में अटकी है। उसको लग रहा है कि भाजपा अगड़ी जातियों यानी ब्राह्मण, बनियों की पार्टी है और पिछड़ी जातियां उसको अपना वर्गशत्रु समझती हैं। जबकि मोदी ने यह स्थापित कर दिया है कि रोजी रोटी और मंदिर की राजनीति अलग अलग नहीं हैं। उन्होंने लगातार 10 साल के प्रचार से हिंदुत्व की राजनीति को हर वर्ग और जाति में स्वीकार्य बनवाया। इसके लिए कई ऐसे उपाय किए, जिनकी आलोचना की जा सकती है लेकिन राजनीति में जब चुनाव जीतना ही सबसे बड़ा लक्ष्य हो तो किसी चीज की वर्जना नहीं रह जाती है।

तीसरा मामला राहुल गांधी की अनुभवहीनता का है, जिसमें वे समझते हैं कि सिर्फ पिछड़ों के हित की बात करने से पिछड़े साथ आ जाएंगे। अब पहले का जमाना नहीं है, जब सिर्फ बातों से वोट मिल जाते थे। अब कुछ करके दिखाना होता है। कांग्रेस इक्का दुक्का अपवादों के अलावा कहीं भी मजबूत पिछड़ा नेतृत्व नहीं उभार रही है। राहुल की पूरी टीम सवर्ण नेताओं से भरी है। इक्का दुक्का पिछड़े नेता हैं भी तो वे पिछड़ी जातियों में भरोसा नहीं पैदा कर पाते हैं। इसके उलट भाजपा हिंदुत्व और जाति दोनों की राजनीति को साध कर ज्यादा समावेशी हो गई है। सो, जाति राजनीति की जटिलताओं को समझे बगैर सिर्फ जाति की राजनीति करके राहुल गांधी कामयाब नहीं हो सकते हैं।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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