Devendra Fadnavis: देवेंद्र फड़नवीस लौट कर आ गए हैं। उन्होंने पांच साल पहले कहा था- पानी उतरता देख कर किनारे पर घर मत बना लेना, मैं समुंदर हूं लौट कर आऊंगा। वे लौट कर आ गए हैं।
पहले से बहुत ज्यादा अनुभव और बहुत बड़ा जनादेश लेकर लौटे हैं। इस बार वे मुख्यमंत्री बने हैं तो इसका जनादेश भी उनका है और राजनीतिक ताकत भी उनकी है।
वे 2014 में जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे तब वह जनादेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा व शिव सेना के गठबंधन को मिला था। तब प्रधानमंत्री और संघ की वजह से फड़नवीस मुख्यमंत्री बने थे।
लेकिन 10 साल के बाद वे अपने जनादेश और अपनी ताकत से मुख्यमंत्री बने हैं। यह अंतर अगले पांच साल के उनके कार्यकाल में स्पष्ट रूप से दिखेगा।
इस बार भी उनको गठबंधन के साथ काम करना है लेकिन वे अब गठबंधन के संचालन में पहले से ज्यादा परिपक्व हैं और भाजपा अपने दम पर बहुमत के ज्यादा नजदीक है।
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आदित्य ठाकरे सक्रिय राजनीति में
इसके बावजूद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती गठबंधन की ही है। पहले कार्यकाल में एकीकृत शिव सेना साथ थी। तब दोनों पार्टियों को जोड़ने वाली गोंद सिर्फ सत्ता की नहीं थी, बल्कि वैचारिक भी थी।
हिंदुत्व की राजनीति करने वाली दोनों पार्टियों का साथ मिल कर सरकार चलाना अपेक्षाकृत ज्यादा आसान था। दूसरे, उद्धव ठाकरे ने तब तक खुद मुख्यमंत्री बन कर सत्ता का स्वाद नहीं चखा था।
उनके बेटे आदित्य ठाकरे सक्रिय राजनीति में नहीं उतरे थे। तब उद्धव ठाकरे रिमोट कंट्रोल से सरकार का संचालन करते थे। परंतु अब स्थितियां भिन्न हैं।
एकनाथ शिंदे खुद मुख्यमंत्री रह कर सत्ता का स्वाद चख चुके हैं और अजित पवार की विचारधारा कैसी है और मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा कितनी अदम्य है, इसके बारे में सब जानते हैं।
उन्होंने जब अपने चाचा शरद पवार की पार्टी तोड़ कर उस पर कब्जा कर लिया तो वे आगे क्या कर सकते हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
बहुमत सिर्फ अंकगणित नहीं
तभी देवेंद्र फड़नवीस को यह ध्यान रखना होगा कि बहुमत सिर्फ अंकगणित नहीं है। वे जिस गठबंधन के मुख्यमंत्री बने हैं उसे तीन चौथाई से ज्यादा बहुमत मिला है लेकिन नाराज या आहत भावना वाले सहयोगी इस बहुमत के लिए हमेशा खतरा बने रहेंगे।
इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में फड़नवीस की पहली चुनौती एकनाथ शिंदे और अजित पवार को अपनी सरकार के कामकाज और गठबंधन की राजनीति के लिए प्रतिबद्ध बनाए रखने की होगी।
यह काम आसान नहीं होगा। उनके लिए संतोष की बात यह है कि बुरी तरह से हारने के बाद विपक्ष में दमखम या मनोबल नहीं बचा है कि वह सरकार को अस्थिर करने के बारे में सोच सके।
विपक्ष राजनीतिक रूप से और आंकड़ों में भी बहुत कमजोर है। फिर भी फड़नवीस लापरवाह नहीं हो सकते हैं।
उनको प्रशासनिक कामकाज के साथ राजनीति को भी साधे रखना होगा। इसके लिए उनको चाणक्य वाली बुद्धि से काम करना होगा।
फड़नवीस 2014 में मुख्यमंत्री बने
मुख्यमंत्री के रूप में फड़नवीस की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती पार्टी की अंदरूनी राजनीति को साधने और उस पर नियंत्रण की है। ध्यान रहे फड़नवीस 2014 में जब मुख्यमंत्री बने थे तब वे आम सहमति के उम्मीदवार थे।
उनके नाम पर किसी ने आपत्ति नहीं की थी और उस समय वे किसी के लिए चुनौती या खतरा नहीं थे। वे बहुत लो प्रोफाइल और बिना वोट आधार वाले नेता थे।(Devendra Fadnavis)
वे गैर मराठा चेहरा तो थे लेकिन ब्राह्मण होने की वजह से उनका अपना वोट आधार बहुत छोटा था। तभी उनको उसी रूप में देखा गया था, जिस रूप में आज भजनलाल शर्मा, मोहन यादव, विष्णुदेव साय या मोहन चरण मांझी को देखा जा रहा था।
परंतु पांच साल मुख्यमंत्री, ढाई साल नेता प्रतिपक्ष और ढाई साल उप मुख्यमंत्री रहने के बाद वे पार्टी के अनेक बड़े नेताओं के लिए चुनौती बने हैं।
इस बार वे अपने दम पर एक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे हैं। उन्होंने विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रचार की कमान संभाली थी और सबसे ज्यादा सभाएं की थीं।
एकनाथ शिंदे नहीं मान रहे(Devendra Fadnavis)
नतीजे आने से पहले ही उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया था, जिसमें माना जाने लगा था कि भाजपा की सरकार बनी तो वे मुख्यमंत्री बनेंगे।
इसके बावजूद उनका नाम तय होने में 12 दिन लग गए। कहा जा रहा है कि एकनाथ शिंदे नहीं मान रहे थे। लेकिन यह सिर्फ शिंदे का मामला नहीं था।
पार्टी में भी उनके नाम पर आपत्ति थी, तभी मराठा या पिछड़ा सीएम बनाने की चर्चा हुई। इसके बावजूद फड़नवीस की मेहनत, पोजिशनिंग और विधायकों में पकड़ के साथ साथ राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का समर्थन उनके पक्ष में गया।(Devendra Fadnavis)
सो, उनके कामकाज, राजनीति और गठबंधन प्रबंधन के कौशल पर केंद्रीय नेतृत्व की पैनी नजर रहेगी।
फड़नवीस अब कोई नौसिखुआ या बिना आधार वाले नेता नहीं हैं, बल्कि अब वे बिग लीग के खिलाड़ी हैं। वे चाहे अनचाहे अब सर्वोच्च पद की प्रतिद्वंद्विता में हैं।
अब बंटी हुई शिव सेना
फड़नवीस की तीसरी बड़ी चुनौती अपनी राजनीति ताकत बढ़ाने की है। इसके लिए वे 2029 का इंतजार नहीं कर सकते हैं।
उससे पहले राजनीतिक ताकत बढ़ेगी स्थानीय निकायों के चुनाव करा कर और उसमें भाजपा को बढ़त दिला कर।
ध्यान रहे महाराष्ट्र विधानसभा की ही तरह बृहन्नमुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी का चुनाव महत्वपूर्ण होता है, जो कई साल से नहीं हुआ है।
मुंबई, पुणे, ठाणे, नागपुर जैसे बड़े शहरों और पावर सेंटर में स्थानीय निकाय भंग हैं। राज्य में सरकार बनने के बाद अब स्थानीय निकायों के चुनाव कराने होंगे।(Devendra Fadnavis)
इसमें भी बीएमसी का चुनाव बहुत अहम होगा क्योंकि बीएमसी भंग होने से पहले 25 साल तक उस पर शिव सेना का कब्जा था।
अब बंटी हुई शिव सेना है लेकिन उद्धव ठाकरे उस चुनाव में अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने का प्रयास करेंगे तो एकनाथ शिंदे उसमें ताकत दिखा कर फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना दावा बनाने का प्रयास करेंगे।
ऐसे में फड़नवीस के लिए भाजपा की जगह बनानी है। उनकी बड़ी चुनौती यह है कि कैसे वे विधानसभा की तरह बीएमसी में भी भाजपा को सबसे बड़ी ताकत बनाएं।
भाजपा पहले जैसे बाला साहेब ठाकरे या उद्धव ठाकरे की शिव सेना के पीछे चलती थी वैसे एकनाथ शिंदे की शिव सेना के पीछे न चले, यह फड़नवीस को सुनिश्चित करना है।
यह आसान नहीं होगा। शिंदे बीएमसी और ठाणे में तो अजित पवार पुणे में ताकत दिखाने की कोशिश करेंगे।
फड़नवीस के सामने शासन की चुनौतियां(Devendra Fadnavis)
इन तीन राजनीतिक चुनौतियों के बाद फड़नवीस के सामने शासन की चुनौतियां हैं। शासन की चुनौतियों में सबसे पहले यह धारणा बदलने की चुनौती है कि महाराष्ट्र अब कारोबारियों या उद्योगपतियों की पहली पसंद नहीं है और निवेश के लिए सबसे आकर्षक जगह नहीं है।
इसी तरह यह धारणा भी बदलनी होगी कि देश की वित्तीय राजधानी मुंबई अब दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरू या अहमदाबाद के मुकाबले कमजोर पड़ रही है।
यह धारणा भी बदलनी होगी कि सारे बड़े प्रोजेक्ट महाराष्ट्र से गुजरात जा रहे हैं। मराठी मानुष के लिए ये सारी बातें बहुत भावनात्मक हैं।
चुनाव में विपक्ष ने इन मुद्दों को भुनाने का प्रयास किया लेकिन मतदाताओं ने उनका साथ नहीं दिया। तभी फड़नवीस और उनकी सरकार पर बड़ी जिम्मेदारी होगी कि वे मतदाताओं की उम्मीदों को पूरा करें। इसके बाद विकास की चुनौतियां अपनी जगह हैं।
बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं कैसे पूरी होंगी, बेहतर रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए क्या करना होगा और सबसे ऊपर चुनाव में जो लोक लुभावन घोषणाएं हुई हैं उनको कैसे पूरा करेंगे
उनकी सरकार को तत्काल ‘माझी लाड़की बहिन योजना’ की राशि डेढ़ हजार से बढ़ा कर 21 सौ रुपए महीना करनी है।
वित्तीय अनुशासन बनाए रखते हुए ‘मुफ्त की रेवड़ी’वाली योजनाओं को जारी रखना बड़ी चुनौती होगी। सो, फड़नवीस को राजनीति, प्रबंधन और शासन तीनों मोर्चों पर अपने को साबित करना है।