लोकसभा चुनाव का विश्लेषण दर्जनों निष्कर्षों के आधार पर हो रहा है और दर्जनों पहलुओं से इसकी व्याख्या हो रही है। इसलिए शुरू में ही यह स्पष्ट कर देना जरूरी है ये जिन तीन अहम बातों का इस लेख में जिक्र किया जा रहा है वह तीन बातें अंतिम नहीं हैं और इस तरह की कई तीन-तीन बातें हो सकती हैं, जिनके आधार पर इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण हो सकता है। सो, इन तीन बातों को उन अनेक बातों में ही माना जाए और इनके नजरिए से पूरे देश के नतीजों को समझने का प्रयास किया जाए। तीन में सबसे पहली बात है अयोध्या यानी फैजाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा का हार जाना। दूसरी बात है दक्षिण भारत में भाजपा के वोट में बढ़ोतरी और तीसरी बात है पंजाब और जम्मू कश्मीर में कट्टरपंथी, अलगाववादियों का चुनाव जीतना। विस्तार से इनकी व्याख्या में पूरे देश की राजनीतिक प्रवृत्ति और मतदाता व्यवहार इनके दायरे में दिखाई देगा।
पहली बात, अयोध्या यानी फैजाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा का हार जाना। यह सिर्फ एक सीट का फैसला नहीं है। ऐसा नहीं है कि कई बार से चुनाव जीत रहे भाजपा के लल्लू सिंह को समाजवादी पार्टी ने एक प्रयोग के जरिए हरा दिया। प्रयोग यह था कि अखिलेश यादव ने सामान्य सीट से एक दलित उम्मीदवार उतार दिया, जिसने लल्लू सिंह को हरा दिया। इस बात की व्याख्या इस नजरिए से भी संपूर्ण नहीं होगी कि लल्लू सिंह ने संविधान बदलने की बात कही थी और इसलिए वे हार गए। एक सीट के हिसाब से देखेंगे तो यह दोनों बातें सही हैं। लेकिन इसे एक परिघटना के तौर पर देखने की जरुरत है। परिघटना यह है कि इस साल 22 जनवरी को अयोध्या में भव्य राममंदिर के भव्यतम उद्घाटन समारोह की सारी चमक दमक चुनाव आते आते समाप्त हो गई। लोकसभा चुनाव में देश के किसी भी हिस्से में राममंदिर का मुद्दा सुनाई नहीं दिया। लोगों के दिल में राम बसे हैं लेकिन इस बात को उन्होंने दिमाग पर हावी नहीं होने दिया।
फैजाबाद की सीट प्रतीक है कि देश में किस तरह से लोगों ने रोजमर्रा के जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को आगे रखा, संविधान और आरक्षण पर खतरे की बात को ज्यादा तरजीह दी और राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को भाजपा के चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया। यह इस तरह के मुद्दों प्रति आम मतदाता के थकान को प्रतीकित करता है और साथ ही उनकी राजनीतिक परिपक्वता को भी दिखाता है। आम मतदाताओं के मुकाबले भाजपा के समर्थकों या प्रधानमंत्री के भक्तों या सरकारी दल के आईटी सेल ने कम परिपक्वता दिखाई है और अयोध्या सहित देश के तमाम हिंदुओं को गद्दार ठहराने की मुहिम छेड़ दी। ऐसा इस हकीकत के बावजूद हुआ कि भाजपा को साढ़े 23 करोड़ से ज्यादा हिंदुओं ने ही वोट दिया है। सो, फैजाबाद का चुनाव नतीजा इस बात का संकेत है कि देश के लोगों को धार्मिक मुद्दे बहुत आकर्षित नहीं कर रहे हैं और वे पूरे हो चुके एजेंडे को भूल कर आगे बढ़ने को तैयार हैं। इससे यह भी पता चलता है कि हिंदू या रामभक्त होने और किसी व्यक्ति, पार्टी या सरकार का भक्त होने में फर्क होता है।
दूसरी बात, दक्षिण भारत में भाजपा का विस्तार एक बड़ी परिघटना है। वह भाजपा के लिए बिल्कुल अनजाना क्षेत्र है। कर्नाटक को छोड़ कर किसी दूसरे राज्य में भाजपा अपना आधार बहुत मजबूत नहीं कर पाई है। लेकिन इस बार उसने कई राज्यों में मजबूत दस्तक दी है। तमिलनाडु में भाजपा को इस बार 11.24 फीसदी वोट मिले हैं। पिछली बार वह अन्ना डीएमके गठबंधन में सिर्फ पांच सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 3.52 फीसदी वोट मिले थे। इस बार वह 20 से ज्यादा सीटों पर लड़ी और उसने अपना गठबंधन बनाया। अकेले भाजपा को सवा 11 फीसदी वोट आया। उसकी पुरानी सहयोगी अन्ना डीएमके का वोट साढ़े 25 फीसदी से घट कर साढ़े 20 फीसदी रह गया। यानी उसमें पांच फीसदी की कमी आई। भाजपा की अन्य सहयोगी पार्टियों को मिला कर उसके कुल वोट की संख्या 18.28 फीसदी है।
इसी तरह केरल में भी भाजपा के वोट में इजाफा हुआ है। उसे पिछली बार 13 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन इस बार उसका वोट बढ़ कर 16.68 फीसदी हो गया है। यानी करीब चार फीसदी का इजाफा हुआ है। पहली बार केरल में भाजपा का खाता खुला है। त्रिशुर लोकसभा सीट पर भाजपा के सुरेश गोपी ने सीपीआई को हराया और कांग्रेस तीसरे स्थान पर चली गई। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। केरल में करीब 45 फीसदी आबादी हिंदू है और जल्दी ही भाजपा वहां कांग्रेस और लेफ्ट दोनों मोर्चे के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। भाजपा के वोट में सबसे बड़ा इजाफा तेलंगाना में हुआ, जहां उसने लोकसभा की आठ सीटें जीती हैं। तेलंगाना में भाजपा को 35.08 फीसदी वोट मिला है, जो कांग्रेस के 40 फीसदी वोट से सिर्फ पांच फीसदी कम है। पिछली बार यानी 2019 में भाजपा को 19.38 फीसदी और उससे पहले 2014 में 10.46 फीसदी वोट मिला था। यानी पिछले तीन चुनाव में हर बार भाजपा का वोट लगभग दोगुना होता गया है। के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति के कमजोर होने का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को मिला है। आंध्र प्रदेश में भाजपा ने तेलुगू देशम पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था इसलिए वहां उसकी ताकत का आकलन नहीं किया जा सकता है लेकिन कर्नाटक में उसने कांग्रेस की तमाम मजबूती और सामाजिक समीकरण के बावजूद अपना वोट आधार बचा लिया और सीटें भी उतनी नहीं गवांई, जितने की उम्मीद की जा रही थी। सो, दक्षिण में भाजपा का विस्तार इस चुनाव की एक खास बात है, जिस पर ध्यान देने की जरुरत है।
तीसरी बात, अलगाववादियों की जीत है। जम्मू कश्मीर की बारामूला सीट पर शेख अब्दुल राशिद उर्फ इंजीनियर राशिद चुनाव जीते हैं, जो अलगाववाद के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं। उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हराया है। पंजाब की खडूर साहिब सीट पर कट्टरपंथी सिख अलगाववादी अमृतपाल सिंह जीते हैं, जो असम की जेल में बंद हैं। इसी तरह फरीदकोट सीट पर इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह के पोते सरबजीत सिंह खालसा ने निर्दलीय जीत दर्ज की है। यह भी याद रखने की जरुरत है कि पिछली लोकसभा में पंजाब में संगरूर सीट पर हुए उपचुनाव में अलगाववादी नेता सिमरनजीत सिंह मान चुनाव जीत गए थे। सोचें, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, अकाली दल और भाजपा जैसी चार बड़ी पार्टियों के होते हुए पंजाब में अलगाववादी नेता निर्दलीय जीत रहे हैं? यह पंजाब और जम्मू कश्मीर दोनों राज्यों में जमीन की सतह के अंदर खदबदाहट का संकेत है। इसको समझने की जरुरत है। बड़ी मुश्किल से दोनों राज्यों में अलगाववादी भावनाओं पर काबू पाया गया है और शांति बहाल हुई है। कुछ नेताओं के राजनीतिक हितों के लिए उसकी बलि नहीं दी जा सकती है।
अगर इन दो राज्यों में अलगाववादी और कट्टरपंथी मानसिकता के पैर पसारने को अस्मिता की राजनीति की एक प्रवृत्ति या प्रकार मानें तो इसके बीज पूरे देश में पनपते दिखाई देते हैं। इस बार सही है कि हिंदुत्व के आधार पर देश के बड़े हिस्से में मतदान नहीं हुआ। मतदाताओं ने अपनी उस अस्मिता को अपने मतदान व्यवहार पर नहीं हावी होने दिया। लेकिन जाति की अस्मिता ज्यादा कट्टर तरीके से हावी रही और मतदान व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से दिखी। इसी तरह क्षेत्रीय अस्मिता का भाव भी बहुत मजबूती से मतदाताओं के व्यवहार में परिलक्षित हुआ। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड से लेकर राजस्थान और हरियाणा तक जाति का व्यहार हावी रहा तो ओडिशा से लेकर पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र तक क्षेत्रीय अस्मिता के असर में लोग मतदान करते दिखे। यह भारत की एकता व अखंडता और सामाजिक एकजुटता के लिए एक बड़ी चुनौती पैदा होने का संकेत है।