लोकसभा चुनाव, 2024 में मतदाताओं ने जिस तरह का जनादेश दिया है उससे कई चीजें बदलने या कई चीजों में सुधार के संकेत मिल रहे हैं, जिनमें एक शासन की संघीय ढांचा भी है। पिछले 10 साल में संघवाद के सिद्धांत को बड़ी चुनौती मिली थी। यह सही है कि भारत के संविधान की संघवाद की पद्धति अपनाई गई है लेकिन संविधान के तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि मजबूत केंद्र के साथ संघवाद का सिद्धांत अपनाया गया है। यानी केंद्र की प्रधानता संविधान से ही मानी गई है। ऐसे में अगर केंद्र में कोई बहुत मजबूत या ज्यादा बड़े बहुमत वाली सरकार आ जाती है तो शासन के संघीय ढांचे के लिए चुनौती पैदा हो जाती है।
पहले भी कई बार ऐसा हुआ है। कई बार तो ऐसा हुआ है कि केंद्र में कम बहुमत वाली सरकार के साथ भी राज्यों को अपने हक के लिए लड़ना पड़ा है। मनमोहन सिंह की दोनों सरकारों के समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और वे खुद ही कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को साथ लेकर केंद्र की ओर से प्रस्तावित कई नीतियों का विरोध किया करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वे उसी नीति पर चलेंगे, जिस नीति पर मुख्यमंत्री रहते वे चाहते थे कि केंद्र सरकार चले। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका।
2019 में केंद्र में लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की या सहयोगी पार्टियों की या परोक्ष सहयोगियों की सरकार होने का एक अनिवार्य नतीजा यह हुआ कि शासन का संघीय ढांचा प्रभावित हुआ। गिने चुने राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकार थी और संसद में उनकी संख्या बहुत कम थी इसलिए वे राज्य के उचित हक के लिए भी लड़ते रहे। लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही देश ने देखा कि कैसे आपदा राहत के फंड के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री को अपनी पूरी सरकार को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देना पड़ा और केरल व तमिलनाडु की सरकारों को भी इसी तरह के प्रदर्शन करने पड़े।
यह भी पूरे देश ने देखा कि आपदा राहत का पैसा केंद्र से सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राज्यों को मिला। विपक्षी शासन वाले राज्यों में राज्यपालों के दखल से स्थितियां और बदतर हुईं। राज्यों की विधानसभा से पास होने के बाद विधेयक महीनों नहीं बल्कि सालों लंबित रहे और अदालत के आदेश से विधेयकों को मंजूरी मिली। कुल मिला कर राज्यों की वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता बुरी तरह से प्रभावित हुई।
लेकिन अब जो जनादेश मिला है उससे उम्मीद की जा सकती है कि शासन का संघीय ढांचा फिर से संवैधानिक तरीके से स्थापित होगा। अब राज्यपालों के जरिए राज्यों के कामकाज में दखल कम होगा। राज्यपालों का विधेयकों को लंबित रखने का सिलसिला थमेगा। राज्य सरकारों को अपने हिस्से के कर के पैसे या आपदा राहत के पैसे के लिए धरना प्रदर्शन नहीं करना होगा या अदालतों के चक्कर नहीं काटने होंगे। विपक्षी मुख्यमंत्रियों और उनके मंत्रियों के ऊपर लटकी केंद्रीय एजेंसियों की तलवार की धार कुंद पड़ेगी। संवैधानिक, वैधानिक और प्रशासनिक नियुक्तियों में भी सरकार की मनमानी रूकेगी और लोकसभा में एक मजबूत विपक्षी पार्टी के नेता की बात ध्यान से सुनी जाएगी। हालांकि इन उम्मीदों का पूरा होना विपक्षी पार्टियों और सरकार की उन सहयोगी पार्टियों के बीच समझदारी विकसित होने पर निर्भर है, जिनकी पृष्ठभूमि समाजवादी विचारों की रही है।
चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी की बुनियाद भी समाजवादी विचारों वाली है लेकिन उनका शासन पूंजीवादी सिद्धांतों से चलता रहता है। इसके बावजूद देश के संघीय ढांचे को वापस पुराने रूप में बहाल करने में उनकी बड़ी भूमिका हो सकती है। वह भूमिका राजनीतिक वैचारिकी के कारण नहीं, बल्कि क्षेत्रीय एकजुटता की वजह से संभव होगी। ध्यान रहे दक्षिण भारत के पांचों बड़े राज्य कई मुद्दों पर एक राय रखते हैं और हमेशा मजबूत केंद्र सरकार का विरोध करते हैं। इसका कारण यह है कि इन पांचों राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का मजबूत असर है। दूसरा कारण यह है कि उनको लगता है कि उन्होंने बेहतर आर्थिक विकास किया है, कर से ज्यादा राजस्व जुटाते हैं, जनसंख्या को नियंत्रण में रखा है लेकिन उस अनुपात में उनको हिस्सा नहीं मिलता है।
उनको यह भी लगता है कि उनके राजस्व का बड़ा हिस्सा केंद्र की सरकारें उन राज्यों में खर्च करती हैं, जहां से उनको राजनीतिक ताकत मिलती है। वित्त आयोग की सिफारिशों को लेकर पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण भारत के राज्यों के वित्त मंत्रियों की कई बैठकें हुई हैं। तभी यह संभव है कि चंद्रबाबू नायडू की पार्टी केंद्र में भाजपा की सरकार का समर्थन करते हुए आर्थिक मामले में दक्षिण के बाकी राज्यों के साथ मिल कर काम करे। ध्यान रहे दक्षिण में आंध्र प्रदेश को छोड़ कर बाकी चार राज्यों- तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा विरोधी पार्टियों की सरकारें हैं। सो, दक्षिण की अस्मिता या वित्तीय हिस्सेदारी को लेकर ही सही लेकिन ये पांच राज्य केंद्रीय राजनीति में एक मजबूत दबाव समूह का काम कर सकते हैं।
उत्तर भारत के अनेक राज्यों में भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टी की ही सरकार है। लेकिन अंतर यह आया है कि कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों के सांसदों की संख्या में अच्छा खासा इजाफा हुआ है। उत्तर प्रदेश में पिछली बार सपा के पांच और कांग्रेस के एक सांसद का विपक्ष था। बसपा के 10 सांसद जीते जरूर थे लेकिन पार्टी भाजपा के निष्क्रिय सहयोगी के तौर पर काम करती थी। इस बार 43 सांसदों का विपक्ष है। बिहार से पिछली बार सिर्फ एक सांसद का विपक्ष था, जो अब 10 सांसदों का है। ऐसे ही राजस्थान से 11 सांसदों का विपक्ष है और झारखंड से पांच सांसदों का विपक्ष है। पश्चिम बंगाल में भी इस बार ममता बनर्जी के सांसदों की संख्या 22 से बढ़ कर 29 हो गई है।
उत्तर प्रदेश में सपा, बिहार में राजद व लेफ्ट, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस मजबूत हुए हैं। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिव सेना और शरद पवार की एनसीपी की ताकत बढ़ी है। सो, ये पार्टियां राज्य के हितों को आगे रख कर संसद में राजनीति करेंगी। केंद्र सरकार को भी राज्यों के हितों का ध्यान रखना होगा। कांग्रेस को लगातार दो लोकसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिल पाया था। लेकिन इस बार एक सौ सांसदों वाली पार्टी है। इसलिए कांग्रेस शासित राज्यों के साथ साथ विपक्ष के शासन वाले राज्यों के साथ किसी किस्म के भेदभाव से निपटने के लिए इस बार विपक्ष पहले से ज्यादा सक्षम है। बिहार में नीतीश कुमार भले सरकार के साथ हैं लेकिन बिहार के हित के लिए उनकी पार्टी संसद में विपक्ष की तरह काम कर सकती है। उन्हें विपक्षी पार्टियों के साथ समन्वय करके सरकार पर दबाव डालने में भी दिक्कत नहीं आएगी। तभी ऐसा लग रहा है कि इस जनादेश से शासन का संघीय ढांचा पहले की तरह बहाल हो सकता है।