लोकसभा चुनाव 2024 के प्रचार को लोकतंत्र को गहरा नुकसान पहुंचाने वाली कई प्रवृत्तियों के उभरने के लिए याद किया जाएगा। पहले पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगा कर या एक दूसरे को भ्रष्ट और निकम्मा बता कर चुनाव लड़ती थीं लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि पार्टियां विशुद्ध रूप से झूठे दावे करके चुनाव लड़ रही हैं।
रेवड़ी राजनीति को भी शिखर पर ले जाने के लिए यह चुनाव याद किया जाएगा। लेकिन सबसे खतरनाक प्रवृत्ति जो इस चुनाव में उभरती दिखी है वह क्षेत्रीयता की भावना है। सिर्फ प्रादेशिक पार्टियां ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पार्टियों ने भी क्षेत्रीय भावना को उभार कर वोट हासिल करने की राजनीति की है। चंद सीटों के फायदे के लिए पार्टियां ऐसे मुद्दे उठा रही हैं, जिनसे देश की एकता और अखंडता को स्थायी तौर पर नुकसान हो सकता है। अलग अलग राज्यों के लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति दूरी और कुछ हद तक नफरत का भाव बन सकता है, जिसे मिटाना मुश्किल हो जाएगा।
इससे पहले कि पार्टियों की ओर से फैलाई जाने वाली क्षेत्रीयता की भावना पर विचार करें, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कैसे इसको हवा दी है उसे समझने की जरुरत है। वे इन दिनों बिहार में पदयात्रा कर रहे हैं और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में उनको नई पार्टी बना कर चुनाव लड़ना है। सो, उन्होंने बिहारी उप राष्ट्रीयता को बढ़ावा देने वाली बातें करनी शुरू कर दी है। ध्यान रहे बिहार, उत्तर प्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में भाषायी या सांस्कृतिक पहचान का भाव नहीं होता है। लेकिन प्रशांत किशोर ने बिहार में यह भाव पैदा किया है। वे अपनी सभाओं में कह रहे हैं कि गुजरात से सिर्फ 26 सांसद चुन कर आते हैं लेकिन वहां का नेता प्रधानमंत्री बनेगा।
बुलेट ट्रेन वहीं चलेगी और टेस्ला की फैक्टरी भी वहीं लगेगी, जबकि बिहार से 40 सांसद चुन कर जाते हैं तो यहां का नौजवान वहां जाकर मजदूरी करेगा। उनकी इस बात की चर्चा बिहार के नौजवानों में होने लगी है। आने वाले दिनों में इस बात की चर्चा उन सभी राज्यों में शुरू हो सकती है, जहां से ज्यादा सांसद जीत कर आते हैं। प्रशांत किशोर का मुद्दा राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक है। वे असमान विकास का मुद्दा उठा रहे हैं। बिहार जैसे राज्य के पिछड़ेपन और अनदेखी की बात कर रहे हैं। लेकिन अंततः यह एक बड़े राजनीतिक विमर्श में तब्दील होगा, जो देश की संघीय व्यवस्था और एकता व अखंडता के लिए चुनौती बनेगा।
इसी तरह ओडिशा में चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के करीबी सहयोगी और पूर्व आईएएस अधिकारी वीके पांडियन के खिलाफ जैसा अभियान शुरू किया है वह एक बड़े खतरे का संकेत है। यह बड़ा खतरा इसलिए है क्योंकि यह अभियान प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री खुद चला रहे हैं। ध्यान रहे पांडियन तमिलनाडु के रहने वाले हैं। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुरी के भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी नहीं मिलने का मुद्दा उठाया तो कह दिया कि चाबी दक्षिण भारत के राज्य में चली गई है।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तत्काल इस पर प्रतिक्रिया दी और पूछा कि क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि तमिलनाडु के लोग चोर हैं? सोचें कुछ दिन पहले जब तमिलनाडु में चुनाव नहीं हुए थे तो प्रधानमंत्री मोदी तमिल अस्मिता और उसके गौरव का गुणगान करते थे और अब एक व्यक्ति, जो विपक्षी पार्टी से जुड़ा है उसे लेकर समूचे दक्षिण भारत या तमिलनाडु को कठघरे में खड़ा कर दिया।
यह सिर्फ एक मामला नहीं है। कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के जौनपुर में चुनाव प्रचार करते हुए कहा कि उत्तर भारत के लोग मजदूरी करने दक्षिण भारत जाते हैं तो वहां उनको अपमान झेलना पड़ता है। उत्तर भारत में वोट के लिए प्रधानमंत्री जो बातें कह रहे हैं इसी तरह की बातें विपक्षी पार्टियां दक्षिण भारत के वोट के लिए कह रही थीं।
विपक्ष की पार्टियों ने बड़ी होशियारी से उत्तर और दक्षिण का विभाजन खड़ा किया था। इस बात का मुद्दा बनाया गया था कि केंद्र सरकार मदद और अनुदान देने में भेदभाव करती है। दक्षिण के राज्यों का कर में ज्यादा हिस्सा है लेकिन उन्हें कम पैसे मिलते हैं। विपक्ष की इन बातों का प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी विरोध करते थे और कहते थे कि विपक्षी पार्टियां देश में विभाजन करना चाहती हैं। लेकिन दक्षिण भारत का चुनाव खत्म होने के बाद से भाजपा के नेता भी यही काम कर रहे हैं।
क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति का कार्ड पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में बड़ी सफलतापूर्वक खेला था। उन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों को बाहरी बता कर अपने को ‘मा, माटी, मानुष’ का प्रतिनिधि बना कर पेश किया था। इसके लिए उन्होंने भाषा, धार्मिक मान्यता और खान पान सबको मुद्दा बनाया था। इस बार लोकसभा चुनाव में भी वे यह दांव चल रही हैं। तभी उन्होंने यह बयान दिया कि वे तो नरेंद्र मोदी के लिए खाना बनाने को तैयार हैं लेकिन वे उनका बनाया खाना नहीं खाएंगे। यह सिर्फ खाना बनाने का मामला नहीं था, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी को पश्चिम बंगाल की खान पान की संस्कृति का विरोधी दिखाने की रणनीति थी। ध्यान रहे मांस और मछली पश्चिम बंगाल के खान पान की संस्कृति का अहम हिस्सा है, जबकि शाकाहार गुजरात की संस्कृति का हिस्सा है, जिसका प्रधानमंत्री मोदी प्रतिनिधित्व करते हैं। ममता ने इसको निशाना बनाया।
महाराष्ट्र में पिछले कुछ समय से गुजरात विरोध की भावना तीव्र होती जा रही है। वैसे बॉम्बे प्रेसीडेंसी के विभाजन और भाषा के आधार पर गुजरात व महाराष्ट्र दो राज्य बनने के बाद से ही दोनों राज्यों में विवाद रहता है। गुजरात के लोग मुंबई पर अपना दावा करते रहे हैं और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से महाराष्ट्र में मराठी लोगों के बीच यह बात फैलाई जाती है कि अगर मुंबई को वे गुजरात में नहीं शामिल करा पाए तो उसे केंद्र शासित प्रदेश बना देंगे। पिछले कुछ समय से जिस तरह से महाराष्ट्र में लगने वाले कल कारखाने गुजरात ले जाए गए हैं उससे महाराष्ट्र में खास कर मुंबई में मराठी और गुजरात का विभाजन बढ़ा है। इस बार के लोकसभा चुनाव में लोगों के मतदान व्यवहार में भी यह बात दिखी है। बातचीत में लोग अपनी भाषिक और सांस्कृति पहचान को लेकर ज्यादा सजग दिखे।
दक्षिण भारत के राज्यों में जनसंख्या और अपनी आर्थिक संपन्नता को लेकर श्रेष्ठता का भाव रहा है और वे इस बात को लेकर अपना विरोध दर्ज कराते रहते हैं कि आबादी की वजह से उत्तर की राजनीतिक ताकत बढ़ती जा रही है और आर्थिक संसाधन ज्यादा उत्तर भारत के ऊपर खर्च हो रहा है। अब दक्षिणी राज्यों की यह परिघटना किसी न किसी तरह से पूरब, पश्चिम और उत्तर भारत तक पहुंच गई है। ऊपर बताए गए कई कारणों के अलावा इसका एक कारण यह भी है कि सारे देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ते हुए हैं।
पहले भी अलग अलग राज्यों के नेता प्रधानमंत्री होते थे लेकिन उनकी वजह से राज्यों में विभाजन इसलिए नहीं होता था क्योंकि प्रधानमंत्री ही हर राज्य में चुनाव लड़ते हुए नहीं दिखता था। राज्यों के अपने नेता होते थे, जिनके चेहरे पर चुनाव होता था। अब भाजपा सारे चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ रही है। दूसरे सारे चेहरे हाशिए में चले गए हैं। तभी बिहार में प्रशांत किशोर को मौका मिल रहा है कि बिहार के लोगों को गुजरात के खिलाफ खड़ा करें और ममता को भी मौका मिल रहा है कि वे बंगाली बनाम गुजराती अस्मिता का मुद्दा बनाएं। इसी वजह से मराठी बनाम गुजरात अस्मिता का भी मुद्दा बन रहा है। मोदी का चेहरा आगे कर राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर चुनाव लड़ने का निश्चित रूप से भाजपा को फायदा मिल रहा है लेकिन भारत जैसे विविधता वाले देश में इसका बड़ा नुकसान भी हो सकता है।