क्या किसी भी सभ्य लोकतंत्र में इस तरह की बातों पर चुनाव लड़ा जा सकता है? दुनिया के दूसरे देशों में अर्थव्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा, सामरिक रणनीति, विदेश नीति, जलवायु परिवर्तन आदि मुद्दों पर चुनाव लड़े जा रहे हैं और भारत में झूठी गारंटियों और झूठे दावों पर!…अर्थव्यवस्था का मुद्दा महत्वपूर्ण रूप से चुनाव में होना चाहिए था। यह इसलिए अहम है क्योंकि 140 करोड़ लोगों का देश दुनिया के सर्वाधिक गरीब लोगों का भी देश है। यह कई तरह के आंकड़ों से प्रमाणित है कि भारत में अंग्रेजी राज से भी ज्यादा आर्थिक विषमता हो गई है।
इस बार के लोकसभा चुनाव की यह खासियत है कि इसका विश्लेषण मुद्दों के आधार पर नहीं हो रहा है। पार्टियों को खुद ही समझ में नहीं आ रहा है कि वे किस मुद्दे पर चुनाव लड़ रही हैं। दोनों तरफ से गारंटियों की बात हो रही है। एकदम खटाखटा! और साथ ही दोनों तरफ से एक दूसरे के बारे में झूठ बोला जा रहा है। सो, तमाम विशेषज्ञ गारंटी और झूठ को ही मुद्दा मान उनका विश्लेषण कर रहे हैं। कौन खटाखट कितने पैसे बांट देगा या खटाखट कितना कर्ज माफ कर देगा यह एक मुद्दा है और दूसरा मुद्दा है कि कौन सत्ता में आ गया तो लोकतंत्र, संविधान, आरक्षण आदि को खत्म कर देगा और किसको सत्ता मिल गई तो वह एससी, एसटी, ओबीसी का आरक्षण और हिंदुओं की संपत्ति छीन कर मुसलमानों को दे देगा।
सोचें, क्या किसी भी सभ्य लोकतंत्र में इस तरह की बातों पर चुनाव लड़ा जा सकता है? दुनिया के दूसरे देशों में अर्थव्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा, सामरिक रणनीति, विदेश नीति, जलवायु परिवर्तन आदि मुद्दों पर चुनाव लड़े जा रहे हैं और भारत में झूठी गारंटियों और झूठे दावों पर!
तभी यह देखना दिलचस्प है कि ऐसे कौन कौन से मुद्दे हैं, जो इस चुनाव में हो सकते थे लेकिन नहीं हैं। अगर ये मुद्दे होते तो एक जीवंत और सभ्य लोकतंत्र के नाते भारत का मान बढ़ता और भारत के राजनीतिक दलों व लोकतंत्र के प्रति देश के 140 करोड़ लोगों की आस्था कुछ और मजबूत होती। बहरहाल, ऐसे छह मुद्दों की सूची इस प्रकार है-
पहला, अर्थव्यवस्था का मुद्दा महत्वपूर्ण रूप से चुनाव में होना चाहिए था। यह इसलिए अहम है क्योंकि 140 करोड़ लोगों का देश दुनिया के सर्वाधिक गरीब लोगों का भी देश है। यह कई तरह के आंकड़ों से प्रमाणित है कि भारत में अंग्रेजी राज से भी ज्यादा आर्थिक विषमता हो गई है। कोरोना की महामारी के बाद वी शेप में अर्थव्यवस्था बढ़ने की चर्चा थी, लेकिन वह के शेप में बढ़ रही है। यानी अमीर और अमीर हो रहे हैं तो गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। देश की कुल संपत्ति का 40 फीसदी और कुल आय का 22 फीसदी देश की एक फीसदी आबादी के पास है।
दूसरी ओर कर का ऐसा बोझ है, जिसके नीचे पूरी आबादी दब गई है। भारत सरकार जीएसटी के रूप में जो अप्रत्यक्ष कर वसूलती है उसमें 50 फीसदी हिस्सा उन 50 फीसदी लोगों का है, जो अर्थव्यवस्था के पिरामिड में सबसे नीचे हैं और जो 10 फीसदी लोग पिरामिड के सबसे ऊपर हैं, जीएसटी में उनका हिस्सा सिर्फ तीन फीसदी है। इसकी भरपाई करने के लिए ही सरकार मुफ्त अनाज आदि बांट रही है। भारत के जीडीपी का आधार कोरोना के बाद से बहुत निम्न हो गया है फिर भी विकास दर छह से सात फीसदी के बीच है। अब तो पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात भी नहीं हो रही है।
दूसरा, महंगाई का मुद्दा है, जो आमतौर पर चुनावों में सबसे प्रमुखता से उठाया जाता है। लेकिन इस बार महंगाई की चर्चा नदारद है। 2014 सहित उससे पहले के लगभग हर चुनाव में सबसे आकर्षक नारा महंगाई को लेकर ही होता था। यह हैरान करने वाली बात है कि 2014 के बाद से महंगाई बढ़ती गई और यह मुद्दा राजनीतिक विमर्श से बाहर होता गया। यह विपक्ष की जिम्मेदारी थी कि वह महंगाई का मुद्दा उठाए। सरकार से सवाल पूछे कि जब पूरी दुनिया में कच्चे तेल के दाम कम हुए तो भारत में पेट्रोलियम उत्पाद सस्ते क्यों नहीं हुए?
क्यों खाने पीने की चीजों की महंगाई लगातार ऊंची बनी रही, जबकि सरकार ने अनेक खाद्यान्नों के निर्यात पर पाबंदी भी लगाई? रोजमर्रा के इस्तेमाल की हर चीज मंहगी हुई है। कंपनियों ने उत्पादों की महंगाई बढ़ाई है और डिब्बा बंद वस्तुओं की मात्रा भी कम कर दी, जिसे अर्थशास्त्री स्रिंकफ्लेशन कह रहे हैं। इसे हर आदमी महसूस कर रहा है। हैरानी है कि सरकार भी बताने की कोशिश नहीं कर रही है कि उसने महंगाई कम कर दी है।
बेरोजगारी, तीसरी मुद्दा है, जिस पर विपक्ष को सरकार से सवाल पूछना चाहिए। कुछ समय पहले यह आंकड़ा सामने आया था कि देश में बेरोजगारी की दर 45 साल के सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। कोरोना और जल्दबाजी में लागू किए गए जीएसटी की वजह से छोटे उद्यम बंद हुए हैं, जिनसे करोड़ों लोगों ने नौकरी और रोजगार गंवाया है। केंद्र सरकार की नौकरियों में 10 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं।
राहुल गांधी का कहना है कि 30 लाख पद खाली हैं और केंद्र में सरकार बनी तो तत्काल 30 लाख नौकरी दी जाएगी। लेकिन नौकरी का मामला कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों के चुनावी नैरेटिव का एक छोटा सा हिस्सा है। विपक्ष ने न तो रोजगार के मामले में युवाओं को आंदोलित करने का प्रयास किया और न सरकार की ओर से बताया गया कि उसने 10 साल में कितने रोजगार दिए। वादा हर साल दो करोड़ रोजगार देने का था लेकिन वास्तविक स्थिति क्या रही यह कोई नहीं बता रहा है।
चौथा, पर्यावरण या जलवायु परिवर्तन का मुद्दा भी इस बार चुनाव में कहीं सुनाई नहीं दे रहा है। अभी ज्यादा समय नहीं बीता, जब राजधानी दिल्ली सहित हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब का बड़ा इलाका प्रदूषण की वजह से सांस नहीं ले पा रहा था। हर साल सर्दियों में उत्तर भारत के बड़े इलाके में हवा इतनी प्रदूषित हो जाती है कि लोगों का सांस लेना दूभर हो जाता है। देश के दूसरे हिस्सों में भी स्थिति इससे बेहतर नहीं होती है। दुनिया के सबसे प्रदूषित 10 शहरों में आठ भारत के होते हैं। बिहार जैसे बिना उद्योग वाले राज्य के शहर भी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में हैं। सर्दियां खत्म होते ही पूरे देश में भीषण गर्मी का प्रकोप शुरू हो जाता है, जो विशुद्ध रूप से जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है।
केंद्रीय जल आयोग यानी सीडब्लुसी का कहना है कि मानसून आने से एक महीने पहले देश के सबसे अहम डेढ़ सौ जलाशय सूख गए। राजधानी दिल्ली से लेकर देश की आईटी राजधानी बेंगलुरू तक लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। इसके बाद जब बरसात आएगी तो पूरा देश बाढ़ में डूब जाएगा। धरती गर्म हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, मौसम का चक्र बदल रहा है लेकिन लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी का कोई भी नेता जनता के बीच अपनी सैकड़ों, हजारों रैलियों में इस बारे में एक शब्द नहीं बोल रहा है। न नेता बोल रहे हैं और न जनता पूछ रही है। देश के 140 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सबसे अहम मुद्दा चुनाव से पूरी तरह से नदारद है।
पांचवां, कोराना प्रबंधन का मुद्दा है, जिसे व्यापक रूप से स्वास्थ्य का मुद्दा कह सकते हैं। यह बहुत पुरानी बात नहीं है सिर्फ तीन साल पहले पूरा देश ऑक्सीजन के लिए, अस्पताल में बेड के लिए, रेमिडिसिवीर इंजेक्शन के लिए और यहां तक कि कोरोना का टेस्ट कराने के लिए बदहवासी में भटक रहा था। लोग अस्पतालों के बाहर और ऑटो में दम तोड़ रहे थे। लाशें गंगा में बहाई जा रही थीं या गंगा के किनारे दफनाई जा रही थीं। पूरा देश मणिकर्णिका घाट बना था। देश भर के श्मशानों में 24 घंटे चिताएं जल रही थीं और फिर भी कई कई दिन की वेटिंग थी। इस महामारी ने देश के छोटे कस्बों व शहरों से ज्यादा महानगरों की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोली थी।
यह पता चला था कि अस्पतालों के पास ऑक्सीजन यूनिट नहीं हैं। गिने चुने अस्पतालों में वेंटिलेटर हैं और जीवन रक्षक प्रणाली है। डॉक्टर और नर्स आदि की उपलब्धता आबादी के अनुपात में कुछ भी नहीं है। लेकिन आज इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है। न विपक्ष यह सवाल पूछा रहा है कि कोरोना में इतना कुप्रबंधन क्यों हुआ और उसके बाद स्वास्थ्य सेवाओं को ठीक करने के लिए क्या किया गया और न सरकार बता रही है कि उसने इस दिशा में क्या किया है।
छठा, शिक्षा का मामला है, जिस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति बनाई है। लेकिन पूरे तीन महीने के चुनाव प्रचार में कहीं सुनने को नहीं मिला कि प्रधानमंत्री मोदी ने नई शिक्षा नीति का जिक्र किया हो और लोगों को बताया हो कि उनकी सरकार ने कितना महान काम किया है। देश के दूसरे हिस्सों की बात छोड़ें राजधानी दिल्ली में भी 50 साल पहले बने केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ दें तो एक नया विश्वविद्यालय नहीं बना है। ले
किन पिछले कुछ समय में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुकुरमुत्ते की तरह दर्जनों निजी विश्वविद्यालय बन गए हैं, जिनकी फीस लाखों रुपए की है। नए शिक्षण संस्थान खोलने की बात हो या शिक्षकों की नियुक्ति का मामला हो या शोध संस्थान बनाने का मामला हो, भारत फिसड्डी था और अब भी फिसड्डी ही है। लेकिन इस बारे में भी चुनाव में पक्ष और विपक्ष दोनों की तरफ से कोई बात नहीं हो रही है।