लोकसभा चुनाव के बीच चुनाव आयोग के कामकाज को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। चुनाव के बेहद लंबे कार्यक्रम से शुरू करके मतदान का अंतिम आंकड़ा सार्वजनिक करने में देरी और आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में चुनिंदा कार्रवाई करने को लेकर आयोग कठघरे में है। लेकिन हैरानी की बात है कि अपनी साख पर खड़े हुए गंभीर संकट को दूर करने के लिए आयोग की ओर से कुछ नहीं किया जा रहा है। उसे लग रहा है कि चुनाव खत्म होगा और लोग सब भूल जाएंगे, इसलिए जो जैसे चल रहा है वैसे चलने दिया जाए।
लेकिन इस तरह की सोच भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए जिम्मेदार संवैधानिक संस्था को और कमजोर करेगी। उसे लेकर लोगों के मन में संशय का भाव बढ़ेगा और अंततः इससे लोकतंत्र के प्रति लोगों का अविश्वास बढ़ेगा। इसलिए आयोग को अपनी साख सुनिश्चित करने के लिए तत्काल कुछ कदम उठाने होंगे।
शुरुआत आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई से हो सकती है। चुनाव आयोग ने जो चुनिंदा या छिटपुट कार्रवाई की है उसकी बजाय आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से चुनाव आयोग की ऐसी कोई मंशा नहीं दिख रही है। दूसरी और राजनीतिक दलों और नेताओं में भी आयोग के प्रति सम्मान का कोई भाव नहीं दिख रहा है और न उन्हें आयोग की चिंता सता रही है। चुनाव आयोग के निर्देशों के बावजूद नेताओं ने ठीक वही बातें कही हैं, जो कहने के लिए आयोग ने उनको मना किया था। इसके बावजूद आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की।
चुनाव आयोग ने शिकायत मिलने के करीब एक महीने के बाद एक नोटिस भेज कर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को निर्देश दिया कि वे अपने स्टार प्रचारकों को कहें कि वे धर्म के आधार पर विभाजन कराने वाली बातें न कहें और संविधान, लोकतंत्र आदि को खतरे में बताने वाली बातें भी नहीं कहें। चुनाव आयोग ने 22 मई को यह निर्देश दिया और उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश की एक सभा में कहा कि ‘कांग्रेस वाले आपकी कमाई छीनकर अपने जिहाद वाले वोट बैंक को बांटना चाहता हैं। वे एससी, एसटी और ओबीसी का कोटा मुस्लिम वोट बैंक में बांट देंगे। पहले कर्नाटक में भी ऐसा कर चुके हैं’। ठीक यही बात कहने के लिए चुनाव आयोग ने मना किया था क्योंकि यही बात उन्होंने 21 अप्रैल को राजस्थान के बांसवाड़ा में कही थी और इसी की शिकायत कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों ने की थी। शिकायत के बाद भी प्रधानमंत्री हर सभा में यह बात कहते रहे और चुनाव आयोग की ओर से पार्टी अध्यक्ष को नोटिस भेजे जाने के बाद भी यह बात कही।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ प्रधानमंत्री ने चुनाव आयोग की बात पर ध्यान देने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी आयोग की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। आयोग ने खड़गे को भेजे गए नोटिस में कहा कि वे अपने स्टार प्रचारकों को समझाएं कि वे संविधान पर संकट होने या संविधान और लोकतंत्र खत्म हो जाने की बातें न कहें। लेकिन जिस दिन यह नोटिस दिया गया उसी दिन शाम में राहुल गांधी ने हरियाणा में संविधान की कॉपी हाथ में लेकर दावा किया कि भाजपा की सरकार आ गई तो वह संविधान को समाप्त कर देगी। वे संविधान की कॉपी दिखा कर बार बार दावा कर रहे हैं कि भाजपा की सरकार आई तो वह इस पवित्र किताब को फाड़ कर कचरे के डब्बे में फेंक देगी। प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी दोनों अपनी बात इसलिए कहते रहे क्योंकि उनको लग रहा है कि एक संवैधानिक संस्था की आचार संहिता का पालन करने से ज्यादा जरूरी चुनाव जीतना है और चूंकि उनकी इन बातों से नैरेटिव बन रहा है इसलिए वे यह बात कहते रहेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी या राहुल गांधी ने आयोग की बात पर ध्यान नहीं दिया इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि उनको भरोसा है कि आयोग उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। वैसे पहले भी आयोग के हाथ में आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई का कोई बड़ा अधिकार नहीं है। वह 24 घंटे या 48 घंटे के लिए किसी के प्रचार पर रोक लगा सकती है, जैसा उसने कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला और भाजपा के दिलीप घोष के मामले में किया। लेकिन स्टार प्रचारकों के मामले में तो आयोग ने खुद ही अपने हाथ बांथ लिए हैं।
चुनाव आयोग को जब प्रधानमंत्री के खिलाफ शिकायत मिली तो उसने प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई से बचने का रास्ता निकालने के लिए एक नया नियम ही बना दिया। उसने तय किया कि स्टार प्रचारकों के खिलाफ शिकायत मिलेगी तो नोटिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को जाएगा। लेकिन उसने यह नहीं बताया कि कार्रवाई किसके खिलाफ होगी? प्रचारक की गलती के लिए नोटिस अध्यक्ष को जाएगा तो कार्रवाई अध्यक्ष के खिलाफ होगी या प्रचारक के खिलाफ? यह स्पष्ट नहीं होने का फायदा सभी पार्टियों के स्टार प्रचारक उठा रहे हैं। इस नए नियम से आयोग ने अपनी साख पर खुद ही बट्टा लगा लिया।
इसी तरह चुनाव आयोग ने पहले चरण के मतदान का अंतिम आंकड़ा जारी करने में 11 दिन का समय लगा कर एक नए विवाद को जन्म दिया। पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को हुआ था और दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को हुआ। इसके चार दिन के बाद आयोग ने एक साथ दोनों चरणों के मतदान का अंतिम आंकड़ा प्रकाशित किया। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है और मांग की गई है कि सर्वोच्च अदालत चुनाव आयोग को निर्देश दे कि वह 48 घंटे के अंदर अंतिम आंकड़ा सार्वजनिक करे। यह विवाद इसलिए बढ़ा क्योंकि दूसरे चरण के मतदान के अंतरिम आंकड़े और अंतिम आंकड़े में पौने छह फीसदी का अंतर आ गया। हालांकि हर मतदान केंद्र पर पार्टियों के पोलिंग एजेंट्स के पास फॉर्म 17सी होगा, जिसमें अंतिम मतदान का आंकड़ा दर्ज होगा।
इसे वे चुनाव आयोग के आंकड़े से मिला सकते हैं। फिर भी इस मामले में चुनाव आयोग ने जिस अंदाज में काम किया उससे सवाल खड़े हुए हैं। इतना ही नहीं चुनाव प्रचार में जिस तरह के वीडियो बनाए जा रहे हैं और एनिमेटेड वीडियो के जरिए भाजपा विरोधी पार्टियों के नेताओं को अपमानित किया जा रहा है उन पर चुनाव आयोग का समय रहते संज्ञान नहीं लेना बहुत चिंताजनक है। तभी कलकत्ता हाई कोर्ट को भाजपा का एक विज्ञापन आदेश देकर निरस्त करना पड़ा। अदालत ने भी इस मामले में आयोग के आचरण पर सवाल उठाया।
चुनाव के बीच केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग से अपील की थी और लेवल प्लेइंग फील्ड रखने की मांग की थी। लेकिन चुनाव आयोग ने उस पर भी चुप्पी साध ली और केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई जारी रही। सो, एक के बाद एक कई मामले ऐसे हुए, जिनसे इस चुनाव के दौरान आयोग की साख पर सवाल उठे हैं। लेकिन ऐसा लग नहीं रहा है कि आयोग की ओर से इसे ठीक करने का कोई प्रयास किया जा रहा है।