भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दलों की दो श्रेणियां हैं। एक श्रेणी ऐसी पार्टियों की है, जो अब भी भाजपा के साथ हैं और दूसरी श्रेणी ऐसे दलों की है, जो कभी भाजपा के साथ रहे हैं लेकिन अब उसके साथ नहीं हैं। दूसरी श्रेणी में कई पार्टियां ऐसी हैं, जो शायद कभी भी भाजपा के साथ नहीं लौटें। जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का भाजपा के साथ जाना मुश्किल लगता है। ऐसे ही झारखंड में झारखंड मुक्त मोर्चा और तमिलनाडु में डीएमके के लिए कह सकते हैं।
ये पार्टियां पहले भाजपा के साथ रही हैं लेकिन अब अपने अपने राज्य में इन पार्टियों ने ऐसा वोट आधार बना लिया है कि ये किसी हाल में भाजपा के साथ नहीं जाएंगी। यह जानना दिलचस्प है कि बिहार में लालू प्रसाद पहली बार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बने थे और लालू व मुलायम सिंह जिस जनता दल का हिस्सा थे उसकी सरकार को 1989 में भाजपा ने ही समर्थन दिया था, जिससे वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने थे।
लेकिन लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव दोनों बहुत पहले समझ गए थे कि उनकी राजनीति भाजपा का विरोध करके ही चलने वाली है। वही बात अब ममता बनर्जी, एमके स्टालिन और हेमंत सोरेन भी समझ गए हैं। इसलिए इन पार्टियों ने अपनी एक समानांतर राजनीति विकसित कर ली है और एक दल के तौर पर अपना भविष्य भी सुरक्षित कर लिया है।
लेकिन सवाल उन पार्टियों का है, जो अब भी भाजपा के साथ हैं। यह सवाल इसलिए है क्योंकि अब गठबंधन की प्रकृति बदल गई है। अब केंद्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा को सहयोगियों की जरुरत नहीं है। दो बार से भाजपा को अकेले दम पर बहुमत मिल रहा है। सो, या तो प्रदेश सरकार की मजबूरियों में गठबंधन है या राष्ट्रीय स्तर पर एक संदेश बनवाने के लिए गठबंधन है। यही कारण है कि भाजपा गठबंधन की सहयोगी पार्टियों को खास महत्व नहीं दे रही है।
तभी यह सवाल है कि अभी जो पार्टियां गठबंधन में सहयोगी हैं उनका आगे क्या होगा? लगभग सभी पार्टियां इस चिंता में हैं। हालांकि हो सकता है कि वे इस उम्मीद में हों कि इस बार के चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिले तो उनकी जरुरत पड़े और उनका महत्व बढ़े। लेकिन अगर भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया तो क्या होगा? क्या उन पार्टियों का अस्तित्व बचेगा या वे बिल्कुल किनारे हो जाएंगी या उनका भाजपा में विलय हो जाएगा?
भाजपा की तीन सहयोगी पार्टियों का हस्र देख कर कई नेता आशंकित हैं। याद करें कैसे 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में जब नई बनी जननायक जनता पार्टी के 10 विधायक जीत गए और भाजपा सिर्फ 40 सीटों पर रूक गई तो सरकार बनाने के लिए भाजपा ने कितना समझौता किया? भाजपा ने दुष्यंत चौटाला को न सिर्फ उप मुख्यमंत्री बनाया, बल्कि कई अहम मंत्रालय दिए और उनको अपने हिसाब से काम करने दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने उनको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर कर दिया।
भाजपा ने निर्दलीय और छोटी पार्टियों के दम पर बहुमत हासिल कर लिया और दुष्यंत को बाहर कर दिया। अब उनको कोई नहीं पूछ रहा है। यहां तक कि वे अपने दादा ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल में लौटना चाह रहे थे लेकिन वहां भी जगह नहीं मिली। ओमप्रकाश चौटाला ने साफ कह दिया कि दुष्यंत अगर अपनी पार्टी का विलय करते हैं तब भी नेतृत्व उनको या उनके पिता को नहीं मिलेगा, बल्कि दूसरे बेटे को मिलेगा, जो उनके साथ रहा।
कमोबेश यही स्थिति भाजपा की दूसरी सहयोगी अकाली दल की है। किसान आंदोलन के समय हरसिमरत कौर बादल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था और पार्टी ने तालमेल तोड़ा था। अब वह बिल्कुल हाशिए की पार्टी हो गई है। पंजाब की 117 सदस्यों की विधानसभा में उसके सिर्फ तीन विधायक है। अकाली दल को किनारे करके भाजपा ने अपने मजबूत किया है। अगर इस लोकसभा चुनाव में अकाली दल का खाता नहीं खुलता है तो उसके अस्तित्व पर बड़ा संकट खड़ा होगा। तीसरी पार्टी पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी है। उसे भी कोई नहीं पूछ रहा है। दुष्यंत चौटाला और सुखबीर बादल की पार्टी कम से कम चुनाव लड़ रही है लेकिन पशुपति पारस की पार्टी तो चुनाव भी नहीं लड़ पाई। लोक जनशक्ति पार्टी से टूट कर पांच सांसद उनके साथ हो गए थे और प्रधानमंत्री ने उनको मंत्री भी बनाया था। स्पीकर ने उनके गुट को लोकसभा में मान्यता भी दे दी थी। लेकिन जब भाजपा को अंदाजा हो गया कि वोट चिराग पासवान के साथ है तो उसने पशुपति पारस को उनके हाल पर छोड़ दिया।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की कई सहयोगी पार्टियों का हस्र ऐसा ही होने का अंदेशा लग रहा है। महाराष्ट्र में शिव सेना से टूट कर अलग हुए एकनाथ शिंदे गुट को चुनाव आयोग और स्पीकर ने भले असली शिव सेना की मान्यता दे दी हो लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में पार्टी का अस्तित्व दांव पर है। अगर महाराष्ट्र के लोगों ने और शिव सैनिकों ने असली शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट को माना तो एकनाथ शिंदे की राजनीति पर परदा गिर जाएगा। उनकी असली शिव सेना धरी रह जाएगी। या तो उनको अपनी पार्टी का विलय भाजपा में करना होगा या उद्धव ठाकरे की शरण में जाना होगा।
यही कहानी एनसीपी से अलग हुए अजित पवार गुट की भी हो सकती है। भाजपा ने सीट बंटवारे में उनको चार सीटें दी हैं लेकिन अगर वे कोई सीट नहीं जीत पाते हैं तो उनके साथ गए विधायक वापस शरद पवार के साथ लौटेंगे। तब अजित पवार के सामने भी अपनी असली एनसीपी का विलय भाजपा में करने या चाचा शरद पवार की शरण में लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। जयंत चौधरी लोकसभा की दो सीट लेकर भाजपा गठबंधन का हिस्सा बने हैं। उनको भी आगे का रास्ता बहुत सोच समझ कर चुनना होगा।
भाजपा के साथ गठबंधन की जो पुरानी और बड़ी पार्टियां हैं उनमें भी दो पार्टियों का भविष्य इस बार के चुनाव नतीजों से जुड़ा है। ओडिशा में बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक और बिहार में जनता दल यू नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी आखिरी दौर में पहुंच गई है। चुनाव जीत कर अगर नवीन पटनायक अपने सामने अपने उत्तराधिकारी को गद्दी पर बैठा देते हैं तब तो उनकी पार्टी सर्वाइव कर जाएगी अन्यथा भाजपा उसको भी हड़प सकती है। बिहार में नीतीश की पार्टी पहले ही बहुत कमजोर हो गई है। साथ ही नीतीश ने अभी तक किसी को राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं चुना है।
ओडिशा में तो लगभग स्पष्ट है कि पूर्व आईएएस अधिकारी वीके पांडियन उत्तराधिकारी हैं। पार्टी पर उनका एकछत्र नियंत्रण है। वैसा नीतीश की पार्टी के साथ नहीं है। इसलिए इस चुनाव के बाद या विधानसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी का क्या होगा, यह बड़ा सवाल है। उधर आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू भी आखिरी पारी खेल रहे हैं लेकिन उन्होंने अपने बेटे नारा लोकेश को उत्तराधिकारी बना कर पार्टी को सुरक्षित कर लिया है। लेकिन कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस जरूर अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। भाजपा से तालमेल करके देवगौड़ा ने अस्तित्व बचाने का प्रयास किया लेकिन बेटे एचडी रेवन्ना और पोते प्रज्ज्वल रेवन्ना के सेक्स स्कैंडल ने स्थिति और खराब कर दी है।