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बबूल का पेड़ बो केसीआर अब रो रहे है!

तेलंगाना के मुख्यमंत्री रहे भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव बेचैन हैं। वे डूब रहे हैं और डूबते हुए तिनके का सहारा खोजने के लिए इधर उधर हाथ पैर मार रहे हैं। विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद उनकी पार्टी में भगदड़ मची है। उनके विधायक, विधान पार्षद और राज्यसभा सांसद पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं। तभी उन्होंने घबराहट में राष्ट्रपति से अपील की है कि वे उनकी पार्टी को बचाएं। वे चाहते हैं कि उनकी पार्टी के विधायकों, सांसदों की भगदड़ को राष्ट्रपति रोकें। उनको समझना चाहिए कि इसमें कोई भी उनकी मदद नहीं कर सकता है। इसे कर्म फल भी कह सकते हैं। उन्होंने बबूल का पेड़ बोया था तो आम का फल नहीं खा सकते हैं। 

के चंद्रशेखर राव जब 2018 मे दोबारा चुनाव जीत कर आए थे तब उन्होंने कांग्रेस पार्टी तोड़ दी थी। उसके एक बड़े समूह को अपनी पार्टी में, जिसका नाम उन दिनों तेलंगाना राष्ट्र समिति हुआ करता था, उसमें शामिल करा लिया था। अब उनकी पार्टी के नेता सफाई दे रहे हैं कि कांग्रेस के नेताओं का एक समूह टूट गया था, जिसका बाद में टीआरएस में विलय हुआ। उनके हिसाब से कांग्रेस जो अभी कर रही है वह गलत है लेकिन उन्होंने जो किया था वह सही था। 

कांग्रेस पिछले साल दिसंबर में राज्य की सत्ता में आई और उसने अभी तक बीआरएस के 10 विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया है। इसके अलावा विधान परिषद के छह सदस्य भी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और राज्यसभा के एक सांसद ने भी पिछले दिनों कांग्रेस का दामन थाम लिया। ये वही नेता हैं, जो 10 साल पहले कांग्रेस छोड़ कर तब की टीआरएस में गए थे। अब जब टीआरएस यानी बीआरएस सत्ता से बाहर हो गई है तो वे वापस सत्तारूढ़ कांग्रेस में लौट गए हैं। 

तेलंगाना में जो कुछ भी चल रहा है उसके दो बहुत स्पष्ट संदेश हैं। पहला तो यह कि राजनीति कर रहे व्यक्तियों के लिए सत्ता सर्वोपरि है। वे उसके बगैर नहीं रह सकते हैं। नैतिकता, वैचारिक प्रतिबद्धता, दलगत निष्ठा आदि बातों का कोई मतलब नहीं है। सत्ता के लिए खुले आम इन सबको दांव पर लगाया जा सकता है। दूसरा संदेश यह है कि सत्ता के लिए होने वाला दलबदल किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। देर सबेर हर पार्टी को इस दौर से गुजरना होगा। आज जो सबसे ताकतवर है वह जब कमजोर होगा तो उसके साथ भी वही बरताव होगा, जो ताकतवर रहते उसने कमजोर के साथ किया होगा। और कमजोर तो एक न एक दिन सबको होना ही है! परिवर्तन संसार का कभी नहीं बदलने वाला नियम है।

अफसोस की बात है कि सत्ता की ताकत और अहंकार में सारी पार्टियां इस बात को भूल जाती हैं। कांग्रेस भी भूल चुकी है कैसे 2014 में जब उसने आंध्र प्रदेश का बंटवारा किया और चुनाव में दोनों राज्यों में बुरी तरह हारी तो उसके नेता पार्टी छोड़ कर भागे थे। अगर उसको याद रहता तो आज वह उन नेताओं का अपनी पार्टी में स्वागत नहीं कर रही होती। लेकिन कांग्रेस ने अपने साथ हुई घटना को भुला दिया। उसे सिर्फ यह याद है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को धूल चटा देनी है। उसको मिट्टी में मिला देना है। उसको समाप्त कर देना है। क्या इस तरह से लोकतंत्र काम करता है? एक तरफ दिल्ली में कांग्रेस के नेता यह झूठा दावा कर रहे हैं कि जो नेता पार्टी छोड़ कर गए हैं उनको वापस नहीं लिया जाएगा। और उधर तेलंगाना में, जहां सरकार बनी है वहां तमाम नेताओं की घर वापसी कराई जा रही है ताकि भारत राष्ट्र समिति को सबक सिखाया जा सके। इसका तो यही मतलब है कि दूसरे राज्यों में भी जो नेता कांग्रेस छोड़ कर गए हैं, जब कांग्रेस मजबूत होगी और वे नेता वापसी करना चाहेंगे तो उनको वापस ले लिया जाएगा क्योंकि इससे विपक्षी पार्टी कमजोर होगी? फिर तो क्या इससे एक ऐसा चक्र नहीं बन जाएगा, जिसमें नेताओं का एक समूह हमेशा सत्ता में बना रहे

बहरहाल, यह प्रकृति का नियम है। छिपकलियां कीड़े मकोड़ों को खाती हैं लेकिन जब वही छिपकली मर जाती है तो कीड़े मकोड़े उसको खा जाते हैं। भारतीय राजनीति में यही दोहराया जा रहा है। आज ममता बनर्जी मजबूत हैं तो भाजपा, कांग्रेस और लेफ्ट के नेता पार्टी छोड़ छोड़ कर उनके साथ जुड़ रहे हैं। लेकिन उनको ध्यान रखना चाहिए कि जब उनकी पार्टी कमजोर होगी तो तमाम परजीवी नेता उनको गिरा करके, उनके कमजोर शरीर को रौंद कर आगे चले जाएंगे। जो पार्टी मजबूत होगी वे उसके नेता का खून चूसने पहुंच जाएंगे। इस तरह दलबदल करने वाले नेता हमेशा सत्ता में बने रहेंगे। उनको इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वे किसके शरीर से जोंक की तरह चिपक कर सत्ता सूख ले रहे हैं। 

यह एक राज्य की कहानी नहीं है। महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी छोड़ कर गए अनेक नेता लोकसभा चुनाव के बाद घर वापसी कर रहे हैं और खुद पवार वापसी करा रहे हैं। थोड़े दिन में महाराष्ट्र में लोग यह फर्क भूल जाएंगे कि कौन नेता पहले किस पार्टी में था और अब किस पार्टी में है। भाजपा और कांग्रेस के अलावा दो शिव सेना और दो एनसीपी के बीच नेताओं की दोतरफा आवाजाही जारी रहेगी। यही हाल उत्तर प्रदेश में है, जहां लोग सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस के नेताओं का फर्क भूल चुके हैं। लगभग सभी राज्यों में मशीनी अंदाज में यह प्रक्रिया दोहराई जा रही है। 

यह भारतीय राजनीति की कैसी नियति हो गई है, जिसे कोई भी नेता या पार्टी समझने को राजी नहीं है। सब सत्ता मिलते ही उसके मद में ऐसे चूर हो जा रहे हैं कि उन्हें अपना भोगा हुआ यथार्थ भी ध्यान में नहीं रह रहा है। अगर भाजपा और कांग्रेस सहित देश की गिनी चुनी बड़ी पार्टियों में शीर्ष पर वास्तविक नैतिकता और ईमानदारी वाले नेता आ जाएं, जो यह सुनिश्चित करें कि वे किसी भी पार्टी को नहीं तोड़ेंगे तभी यह दुष्चक्र टूटेगा। सत्ता के लिए इधर उधर भागने वाले नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे किसी एक पार्टी या किसी एक नेता के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे। इसकी पहल पार्टियों के शीर्ष पर बैठे नेताओं को करनी होगी। उन्हें तय करना होगा कि सत्ता मिलने के बाद वे कमजोर प्रतिद्वंद्वी को और कमजोर करने या उसे मटियामेट करने की भावना से काम नहीं करेंगे। उन्हें संकल्प करना होगा कि वे लोकतंत्र की भावना का सम्मान करेंगे। तभी दलबदल का यह चक्र थमेगा। लेकिन शीर्ष पर बैठे नेता सत्ता मिलने पर विपक्षी को कमजोर या खत्म करने की राजनीति करेंगे, उसकी पार्टी तोड़ेंगे, उसके सांसदों या विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल कराएंगे तो उन्हें इस बात के लिए तैयार रहना होगा, जब वे कमजोर होंगे तो उनकी भी पार्टी टूटेगी, उनके भी सांसद और विधायक साथ छोड़ कर जाएंगे और तब उन्हें भारतीय राजनीति की इस सचाई को स्वीकार करना होगा। रोना पीटना नहीं होगा और यहां वहां भागदौड़ नहीं करनी होगी।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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