Jharkhand Maharashtra election: एक देश के तौर पर तो यह बात ठीक है कि भारत विरोधाभासों वाला देश है, जिसके बारे में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि ‘विरूद्धों में सामंजस्य’ बैठाने वाला और ‘संस्कृतियों का समुच्चय’ है।
परंतु जब कई संस्कृतियों वाली और विरोधी विचारों वाली पार्टियां सिर्फ राजनीतिक मजबूरी में एक साथ आ जाती है या गठबंधन बना लेती हैं तो उनके लिए राजनीति आसान नहीं होती है। विपक्षी पार्टियों का गठबंधन ‘इंडिया’ इसी तरह परस्पर विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों का समुच्चय है, जिसकी वजह से हर चुनाव में मुश्किलें आती हैं।
वैचारिक मुश्किल के साथ साथ राजनीतिक मुश्किल भी आती है। पार्टियों को प्रचार में परेशानी होती है और मुद्दे उठाने में समस्याएं आती हैं।
हालांकि इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में गठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन राज्यों के चुनाव में यह समस्या ज्यादा मुखर होकर सामने आती है।
also read: राजस्थान में 17 नवंबर से बढ़ेगा सर्दी का कहर, माउंट आबू में रात का तापमान गिरा
भाजपा के नेताओं ने चुनाव प्रचार में कहा है…
मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र के चुनाव में विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी अपने विरोधाभासों की वजह से इसी तरह की वैचारिक और राजनीतिक मुश्किलों का सामना कर रहा है।
भाजपा को गठबंधन की पार्टियों के बीच की फॉल्टलाइन के बारे में पता है इसलिए वह उसी से जुड़े मुद्दे उठा रही है और पार्टियों को कठघरे में खड़ा कर रही है।
भाजपा के नेताओं ने चुनाव प्रचार में कहा है कि उद्धव ठाकरे कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ रहे हैं तो क्या वे कांग्रेस के नेताओं से अपने स्वर्गीय पिता बाल ठाकरे की तारीफ करवा सकते हैं? यह बड़ा सवाल है।
कांग्रेस का कोई नेता बाल ठाकरे के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलता है, जबकि भाजपा और एकनाथ शिंदे की शिव सेना के नेता हर सभा में बाल ठाकरे की तारीफ कर रहे हैं।
बाल ठाकरे के ऊपर कांग्रेस और उद्धव की पार्टी के विरोधाभास का हो सकता है कि उद्धव ठाकरे को नुकसान न हो लेकिन कांग्रेस को नुकसान हो सकता है। शिव सैनिकों के वोट हो सकता है कि कांग्रेस उम्मीदवारों को नहीं मिलें।
मुंबई की 36 में से कांग्रेस सिर्फ 10 ही सीट लड़ रही है, वहां उसको मुश्किल आ सकती है। इसी तरह भाजपा ने एक दूसरी फॉल्टलाइन विनायक दामोदर सावरकर के रूप में तलाशी है।
कांग्रेस के नेता सावरकर पर भी कुछ नहीं बोल सकते हैं। तभी भाजपा ने उद्धव ठाकरे को चुनौती दी है कि राहुल गांधी से मराठा आईकॉन सावरकर की तारीफ करवा कर दिखाएं।
कोई भी नेता सावरकर की तारीफ नहीं करता
राहुल या कांग्रेस का कोई भी नेता सावरकर की तारीफ नहीं कर सकता है। परंतु विडम्बना यह है कि कांग्रेस सावरकर पर हमला भी नहीं कर सकती है, जो कि वह अक्सर करती रहती है।
अब न तो चुनाव प्रचार में सुनाई दे रहा है और न सोशल मीडिया में दिख रहा है कि सावरकर माफी वीर थे। कांग्रेस नेताओं ने चुप्पी साध ली है।
सवाल है कि अगर कांग्रेस को बाल ठाकरे की राजनीति पसंद नहीं थी या सावरकर उसके लिए माफी वीर हैं तो इसमें कोई वैचारिक द्वंद्व तो नहीं होना चाहिए?
यह तो वैचारिक ईमानदारी की बात नहीं हुई कि महाराष्ट्र के बाहर जाएंगे या चुनाव नहीं होगा तो सावरकर की आलोचना करेंगे और जब महाराष्ट्र में चुनाव है तो सावरकर पर चुप हो गए या बाल ठाकरे की आलोचना करते थे और जब उद्धव से तालमेल हो गया तो बाल ठाकरे पर चुप हो गए?
पार्टियां समझती हैं कि आम मतदाता इन बारीकियों को नहीं समझता है या उसकी आंख में धूल झोंक लेंगे तो यह उसकी गलतफहमी है। मतदाताओं को पता होता है कि पार्टियां कहां उनको ठग रही हैं।
वैचारिक फॉल्टलाइन अनुच्छेद 370 को लेकर
महाराष्ट्र और झारखंड दोनों चुनावों में ‘इंडिया’ ब्लॉक की एक वैचारिक फॉल्टलाइन अनुच्छेद 370 को लेकर है। भाजपा के नेता दोनों राज्यों में खुल कर बोल रहे हैं कि उसकी केंद्र सरकार ने इसे खत्म किया और यह कभी वापस नहीं आ सकता है।
अमित शाह ने तो यहां तक कहा कि राहुल गांधी की चौथी पीढ़ी भी इसे वापस नहीं ला पाएगी। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस के अलावा महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे हों या शरद पवार और झारखंड में हेमंत सोरेन हों या लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव हों, कोई भी नेता अनुच्छेद 370 के मसले पर कुछ नहीं बोल रहा है।
क्या इन पार्टियों में इतनी वैचारिक स्पष्टता है कि वे सामने आकर कहें कि अनुच्छेद 370 हटाना ठीक फैसला था वे भी इसके साथ हैं या यह कहें कि इसे हटाना एक गलत फैसला था और हमारी सरकार बनेगी तो हम इसे वापस लाएंगे?
इनमें से कोई भी बात ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियां नहीं कह रही हैं। उनको लग रहा है कि चुप रहेंगे तो अनुच्छेद 370 के समर्थक और विरोधी दोनों को साध लेंगे तो यह गलतफहमी है।
गौरतलब है कि उद्धव ठाकरे की पार्टी खुल कर केंद्र सरकार के फैसले के साथ थी लेकिन अब उसके नेता भी चुप हैं क्योंकि उनको लग रहा है कि कांग्रेस और शरद पवारर की वजह से उनको मुस्लिम वोट मिलेंगे। सोचें, ऐसी वैचारिक बेईमानी से क्या राजनीति होगी?
विपक्षी गठबंधन की पार्टियों के बीच तालमेल को लेकर भी विरोधाभास है, जिसका नुकसान उनको चुनावी राजनीति में होता है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि ‘इंडिया’ ब्लॉक में शामिल ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियां प्रदेश के चुनाव में अपना इंटरेस्ट छोड़ने को राजी नहीं होती हैं। जैसे सीपीएम को केरल में कांग्रेस से तालमेल नहीं करना है, बल्कि कांग्रेस के खिलाफ ही मुख्य मुकाबला है।
नतीजा 2021 के चुनाव में दिख चुका
सोचें, ऐसे में 2026 में जब केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होंगे तो दोनों पार्टियां क्या करेंगी? केरल में दोनों एक दूसरे के खिलाफ लड़ेंगे और बंगाल में तालमेल करेंगे? इसका नतीजा 2021 के चुनाव में दिख चुका है।
पश्चिम बंगाल में दोनों पार्टियां पूरी तरह से साफ हो गईं, जबकि केरल में भी इनकी जमीन पर भाजपा ने पैर जमाया। इसी तरह दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों के पास कोई लोकसभा सांसद नहीं था तो दोनों ने तालमेल कर लिया लेकिन पंजाब में दोनों एक दूसरे के खिलाफ लड़े।
अभी पिछले महीने हुए हरियाणा विधानसभा के चुनाव में भी आम आदमी पार्टी ने अलग चुनाव लड़ा और उसे करीब दो फीसदी वोट आए। कांग्रेस की हार में एक कारण यह भी था।
सो, कम्युनिस्ट पार्टियां, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस के संबंध अजीब से हैं। कहीं तालमेल होता है और कहीं सब एक दूसरे पर हमला करते हैं।
जनता इसे समझती है। वैचारिक और राजनीतिक गठबंधन में स्पष्टता नहीं होने से ‘इंडिया’ ब्लॉक को चुनावों में नुकसान उठाना पड़ता है और आगे भी उठाना पड़ सकता है।
विपक्षी गठबंधन के मुकाबले भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में इस तरह की अस्पष्टता आमतौर पर कम दिखती है। उसकी गठबंधन की पार्टियां आमतौर पर उसके एजेंडे से सहमत होती हैं।
एकाध मुद्दों पर अगर विरोध…
एकाध मुद्दों पर अगर विरोध होता भी है तो वह इतना बड़ा नहीं होता है कि उससे नुकसान हो जाए। दूसरे, प्रादेशिक पार्टियों के मजबूत असर वाले राज्यों में भी तालमेल हो जाता है।
ऐसा नहीं होता है कि जहां प्रादेशिक पार्टियां मजबूत हैं वहां तो लड़ाई हो रही है और जहां दोनों का असर कम है वहां तालमेल है। टीडीपी के साथ आंध्र प्रदेश में और जदयू के साथ बिहार में उसका तालमेल है तो इन दोनों राज्यों में सब मिल कर लड़े।
इन राज्यों में अगर ये पार्टियां अलग अलग लड़तीं तब नुकसान होता। लेकिन टीडीपी अगर तेलंगाना में लड़े या जदयू उत्तर प्रदेश में लड़े तो उससे भाजपा को कोई खास नुकसान नहीं होता है।
इसके उलट कांग्रेस को केरल में लेफ्ट से, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से और पंजाब में आम आदमी पार्टी से लड़ना होता है।
अगर ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों को सचमुच एनडीए को टक्कर देनी है तो वैचारिक और राजनीतिक दोनों एकता बनानी होगी और तमाम विरोधाभासों को दूर करना होगा। सब एक दूसरे के कोर एजेंडे पर सहमत होंगे तभी वे मतदाताओं में कोई मैसेज बनवा पाएंगे।