जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव के आज नतीजे आएंगे। वैसे पांच अक्टूबर को हरियाणा का मतदान पूरा होने के बाद आए एक्जिट पोल के अनुमानों ने नतीजों की दिशा बता दी है। ध्यान रहे एक्जिट पोल के अनुमान चाहे जितने भी गलत साबित हों, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उनकी दिशा गलत हो। सीटों की संख्या में वे मात खाते हैं, लेकिन आमतौर पर यह बता देते हैं कि कौन आगे है और कौन पीछे छूट रहा है। सो, उन्होंने जम्मू कश्मीर और हरियाणा के बारे में भी यह बता दिया है। परंतु वह अभी बहस का विषय नहीं है क्योंकि जो होगा वह मंगलवार, आठ अक्टूबर की सुबह 10 बजे तक सामने आ जाएगा।
नतीजों से अलग इन दोनों राज्यों के चुनाव के भी कई संदेश हैं, जिन्हें व्यापक संदर्भों में देखने की जरुरत है। इस चुनाव में उठाए गए मुद्दे, पार्टियों के विरोधाभास और बारीक प्रबंधनों की राजनीति इन दोनों राज्यों की आगे की राजनीति को नई दिशा देने वाली साबित हो सकती है और उसका असर देश की राजनीति पर भी महसूस किया जा सकता है।
पहले हरियाणा की बात करें तो वहां महिला और दलित राजनीति की जड़ें मजबूत होने का संदेश इस बार के चुनाव से निकला है। ध्यान रहे हरियाणा महिलाओं के प्रति बहुत गहरे पूर्वाग्रह वाला राज्य है और यही सोच दलितों के प्रति भी दिखती है। लेकिन इस बार इन दोनों समूहों की जितनी चर्चा हुई है उससे इनका महत्व नए सिरे से प्रतिपादित हुआ है। इस बार के चुनाव में हरियाणा की सभी 90 सीटों को मिला कर 1,031 उम्मीदवार चुनाव लड़े हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 101 है। यानी आधी आबादी की तरफ से 10 फीसदी से भी कम उम्मीदवार हैं। कायदे से तो उन्हें 50 फीसदी होना चाहिए था लेकिन अगर भाजपा और कांग्रेस दोनों पिछले साल पास हुए नारी शक्ति वंदन कानून के लिए प्रतिबद्ध हैं तो कम से कम 33 फीसदी तो जरूर होनी चाहिए थी। लेकिन महिलाओं को टिकट देने के मामले में इन दोनों पार्टियों का रिकॉर्ड भी बहुत खराब है। इसके बावजूद सिल्वर लाइनिंग यह है कि ओलंपियन पहलवान विनेश फोगाट को लेकर पूरे चुनाव में चर्चा होती रही।
ध्यान रहे महावीर सिंह फोगाट के परिवार से ही हरियाणा में महिला कुश्ती की शुरुआत होती है। हरियाणा जैसे पितृसत्तात्मक समाज में उन्होंने अपनी बेटियों को कुश्ती लड़ाना शुरू किया था और अनेक स्तर पर सामाजिक व सरकारी विरोध और तंज बरदाश्त करके उन्होंने अपनी बेटियों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफल होने लायक बनाया। विनेश फोगाट उनकी बेटी नहीं है लेकिन उनके ही परिवार की सदस्य हैं।
ओलंपिक में तकनीकी कारणों से पदक से वंचित रह गईं विनेश फोगाट इस बार के चुनाव का मुख्य मुद्दा रहीं। पेरिस से लौटने के समय उनका जिस तरह से स्वागत हुआ और हरियाणा की महिलाओं के साथ साथ पुरुषों ने भी जैसे उनके राजनीति में आने का समर्थन किया वह एक नई शुरुआत का संकेत है। विनेश ने कुश्ती की तरह राजनीति में भी महिलाओं के लिए एक साफ सुथरी और चौड़ी सड़क का निर्माण किया है, जिस पर उम्मीद करनी चाहिए कि बड़ी संख्या में महिलाएं चलेंगी और कामयाब होंगी।
हरियाणा चुनाव का दूसरा संदेश दलित समाज के सत्ता में हिस्सेदारी के लिए अपनी महत्वाकांक्षा जाहिर करने का है। अब तक दलित समाज 21 फीसदी के करीब वोट बैंक के तौर पर ही लिया जाता है। पहली बार ऐसा हुआ है कि जब खुल कर इस बात पर चर्चा हुई दलित मुख्यमंत्री बन सकता है। कुमारी सैलजा ने पहले अपनी महत्वाकांक्षा खुल कर जाहिर की और उसके बाद एक बड़ी रणनीतिक भूल भाजपा ने की, जो इसे मुद्दा बना दिया। यह कांग्रेस का अपना अंदरूनी मामला था, लेकिन इसका फायदा लेने के लिए भाजपा ने हर जगह इसकी चर्चा शुरू कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर जगह मंच से सैलजा का मुद्दा उठाया तो पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने तो उनको भाजपा में शामिल होने का न्योता ही दे दिया। पूर्व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि कांग्रेस कुमारी सैलजा को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करे।
इस पूरे प्रकरण का चुनावी लाभ तो कांग्रेस को मिला लेकिन एक बड़ा लाभ यह हुआ कि दलित समाज सिर्फ वोट बैंक नहीं रह गया, बल्कि सत्ता का दावेदार भी माना जाने लगा। सैलजा प्रकरण के अलावा जिस तरह से इंडियन नेशनल लोकदल ने बहुजन समाज पार्टी से और जननायक जनता पार्टी ने आजाद समाज पार्टी से तालमेल किया और मतदान से ठीक पहले जैसे कांग्रेस ने अशोक तंवर की वापसी कराई इन सबसे भी दलित समाज का राजनीतिक महत्व प्रमाणित हुआ। इस चुनाव ने यह प्रमाणित किया है कि दलित समाज को सत्ता में हिस्सेदारी देनी होगी साथ ही दलितों पर अत्याचार की घटनाएं इतिहास बन जाएंगी।
जहां तक जम्मू कश्मीर की बात है तो वहां लोकसभा चुनाव से एक प्रवृत्ति उभरती दिखी है। वह प्रवृत्ति कट्टरपंथी ताकतों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने की है। इससे पहले कट्टरपंथी और अलगाववादी ताकतें चुनाव के बहिष्कार का ऐलान करती थीं और उस वजह से ग्रामीण इलाकों में मतदान बहुत कम होता था। लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ और वहीं प्रवृत्ति विधानसभा चुनाव में भी दिखी है। लोकतंत्र को लेकर कश्मीर में जो धारणा थी वह बदली है। इसी का नतीजा था बारामूला लोकसभा चुनाव में संदिग्ध आतंकी इंजीनियर राशिद का लोकसभा चुनाव जीतना।
इस बार राशिद की आवामी इत्तेहाद पार्टी ने कई जगह चुनाव लड़ा है। प्रतिबंधित जमात ए इस्लामी ने अनेक निर्दलीय उम्मीदवारों को समर्थन दिया है। तभी एक्जिट पोल के नतीजों में भी अन्य को एक दर्जन या उससे ज्यादा सीटें मिलने की संभावना जताई गई है। अगर ऐसा होता है तो इस परिघटना को बहुत बारीकी से देखने, समझने और इसके असर का आकलन करने की जरुरत होगी। क्योंकि इसमें कट्टरपंथी और अलगाववादी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसा की बजाय लोकतंत्र का रास्ता अपनाने की प्रवृत्ति उभरती दिख रही है।
जम्मू कश्मीर का चुनाव आमतौर पर आमने सामने का नहीं होता है। तभी इस बार कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के तालमेल करके लड़ने के बावजूद चुनाव बहुकोणीय ही रहा। कांग्रेस गठबंधन के अलावा भाजपा, पीडीपी और अन्य का मुकाबला है। यानी चुनाव चारकोणीय है। कई जगह भाजपा ने एक प्रयोग के तौर पर चुनाव को चारकोणीय बनाया है। इस क्रम में वह कई भस्मासुर पैदा करती दिख रही है। आगे वह उनको कैसे संभालेगी यह देखने वाली बात होगी। दूसरी ओर इस बार हरियाणा का चुनाव बहुकोणीय की बजाय आमने सामने का होता दिख रहा है। वहां अक्सर तीसरी ताकत भी मजबूत रहती है और चौथी ताकत के तौर पर अन्य को भी अच्छा खासा वोट मिलता है।
पिछले चुनाव में यानी 2019 में अन्य को 18 फीसदी वोट मिले थे। उससे पहले 2014 में अन्य को 21 फीसदी वोट मिला था। सोचें, भाजपा, कांग्रेस और इनेलो के अलावा अन्य को इतना वोट मिलने की परिघटना पर! इस बार सब बदला हुआ है। इस बार कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला है। तीसरी ताकत यानी इनेलो और जजपा की स्थिति बहुत खराब है तो चौथी ताकत यानी अन्य के वोट में भी बड़ी गिरावट होगी। इन दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने प्रति निष्ठा की कसौटी के आधार पर गद्दी पर बैठाए गए क्षत्रपों की हैसियत की भी परीक्षा होनी है। उन सबका विफल होना भाजपा की राजनीति में नए युग की शुरुआत कर सकता है।