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‘मेक इन इंडिया’ क्या सफल?

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अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के 10 साल पूरे होने के मौके पर रविवार, 29 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को लेकर बड़ा दावा किया। असल में मोदी सरकार के इस महात्वाकांक्षी कार्यक्रम के भी दस साल पूरे हुए हैं। सो, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम बहुत सफल रहा है और इससे भारत में निवेश में बढ़ोतरी हुई है।

प्रधानमंत्री के शब्द थे- ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के भी 10 साल पूरे हुए हैं। इस अभियान की सफलता में बड़े उद्योगों से लेकर छोटे दुकानदार तक शामिल हैं। इस अभियान से गरीब, मध्यम वर्ग और एमएसएमई को बहुत फायदा मिल रहा है। आज भारत मैन्युफैक्चरिंग का पावर हाउस बना है। हर क्षेत्र में देश का निर्यात लगातार बढ़ रहा है। क्वालिटी और वोकल फॉर लोकल पर अब अधिक फोकस करने की जरूरत है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने इस त्योहारी सीजन में भारत में बनी चीजें खरीदने की अपील की।

भारत में इस कार्यक्रम की सफलता बताने के लिए बार बार यह भी कहा जाता है कि भारत अब मोबाइल बनाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। हालांकि हकीकत यह है कि भारत में मोबाइल का निर्माण नहीं होता है। इसके सारे कम्पोनेंट चीन या ताइवान या दूसरे देश में बनते हैं, भारत में उनको सिर्फ असेम्बल किया जाता है। यही बात कपड़ा उद्योग के बारे में भी है। एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में तेजी से फल फूल रहे वस्त्र उद्योग की हकीकत यह है कि लुधियाना की होजरी इंडस्ट्री में 80 फीसदी चाइनीज कपड़े का इस्तेमाल हो रहा है। यानी भारत के कारोबारी चीन से कपड़ा लाकर उनकी सिलाई कर रहे हैं और बेच रहे हैं।

जाहिर है कि भारत के महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की हकीकत वैसी नहीं है, जैसी बताई जाती है। इसकी शुरुआत जिन लक्ष्यों के साथ हुई थी उन्हें हासिल करने में यह अभियान सफल नहीं हुआ है। सरकारी आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत का विनिर्माण सेक्टर जहां का तहां खड़ा है। आगे नहीं बढ़ पाया है।

‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की शुरुआत दो घोषित लक्ष्यों के साथ हुई थी। पहला लक्ष्य तो यह था कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण यानी मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का हिस्सा बढ़ा कर 25 फीसदी करना है। 10 साल पहले यह 15 फीसदी के करीब था। यानी इसमें 10 फीसदी बढ़ोतरी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया गया था। दूसरा लक्ष्य था विनिर्माण सेक्टर में 10 करोड़ अतिरिक्त नौकरियां पैदा करने का। उस समय भारत में विनिर्माण सेक्टर में छह करोड़ लोगों को नौकरी मिली थी। कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें से ज्यादातर नौकरियां असंगठित क्षेत्र में थीं।

इस कार्यक्रम के 10 साल पूरे करने के मौके पर अगर इन दो लक्ष्यों का आकलन किया जाए तो पता चलेगा कि यह महत्वाकांक्षी अभियान अपने दोनों घोषित लक्ष्यों को हासिल करने में कामयाब नहीं रहा है। 10 साल के बाद भी भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में विनिर्माण सेक्टर का हिस्सा 15 से 16 फीसदी के बीच अटका हुआ है। यह 25 फीसदी के घोषित लक्ष्य से उतना ही पीछे है, जितना पीछे 2014 में था। इसी तरह अगर रोजगार की बात करें तो एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक विनिर्माण सेक्टर में रोजगार पहले के मुकाबले घट गया है। 2011-12 में विनिर्माण सेक्टर में 12.6 फीसदी रोजगार मिला हुआ था, जो 2022-23 में घट कर 11.4 फीसदी हो गया है।

यानी विनिर्माण सेक्टर में नौकरी करने वालों की संख्या में एक फीसदी से ज्यादा की कमी आ गई है। सो, इस योजना से न तो जीडीपी में विनिर्माण सेक्टर का हिस्सा बढ़ा है और न इस सेक्टर में रोजगार में बढ़ोतरी हुई है। यह तब हुआ है, जब इसी अवधि में देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर मोटे तौर पर सात फीसदी के आसपास रही है। यानी जीडीपी की विकास दर ठीक ठाक रहने के बावजूद विनिर्माण सेक्टर की विकास दर में तेजी नहीं आई। इसका मतलब है कि इस कार्यक्रम में कहीं न कहीं कुछ बुनियादी कमी है, जिसकी वजह से यह लक्ष्य से दूर रह गया है।

इस बीच एक और हैरान करने वाला आंकड़ा आया है। एक तरफ जहां विनिर्माण या उद्योग सेक्टर में नौकरियां कम हुई हैं वहीं कृषि सेक्टर में नौकरियां बढ़ी हैं। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में कृषि सेक्टर में 2018-19 में 42.5 फीसदी लोगों को रोजगार मिला हुआ था, जो पांच साल बाद 2022-23 में बढ़ कर 46 फीसदी के करीब पहुंच गया है। यह समय का चक्र उलटा घूमने का संकेत है। संभव है कि कोरोना की महामारी के बाद जो रिवर्स माइग्रेशन हुआ और बड़ी संख्या में मजदूर अपने गांव लौटे तो उन्होंने वहां कृषि कार्य अपना लिया। यह भी कहा जा सकता है कि मनरेगा में कृषि से जुड़े कई कामों को शामिल करने से भी इस सेक्टर में रोजगार में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन यह बहुत बड़ा और चिंताजनक सवाल है कि औद्योगिक विकास की दर क्यों नहीं बढ़ रही है और उद्योग से निकल कर लोग कृषि सेक्टर में क्यों जा रहे हैं?

अब तो यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या भारत में औद्योगिकीकरण की गाड़ी उलटी चलने लगी है? लेकिन सवाल है कि ऐसा कैसे हो सकता है? औद्योगिक विकास की ऊंचाई पर पहुंचे बगैर ढलान कैसे शुरू हो सकता है? एक सवाल यह भी है कि भारत में अगर यह दावा किया जा रहा है कि नीतियों में बड़ा बदलाव हुआ और कारोबार सुगमता बेहतर करने की वजह से भारत दुनिया भर के निवेशकों के लिए सबसे आकर्षक जगह बन गया है तो फिर क्यों नहीं विदेशी निवेशक विनिर्माण सेक्टर में निवेश कर रहे हैं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि भारत के घरेलू निवेशक क्यों नहीं विनिर्माण सेक्टर में निवेश कर रहे हैं?

इसके कई आर्थिक और नीतिगत कारणों हो सकते हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारत के कारोबारी जोखिम नहीं लेना चाहते हैं और मुनाफा कमाने के अलावा किसी और चीज के बारे में नहीं सोच सकते हैं। तभी विनिर्माण सेक्टर में निवेश करने, नए उद्योग धंधे खड़े करने या लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने की बजाय वे ट्रेडिंग के ज्यादा आसान विकल्प को चुनते हैं। चीन में बनी हुई चीजें लाकर उनको भारत में बेचना या उन चीजों को असेम्बल करके निर्यात करना उनको ज्यादा फायदे का काम लगता है।

वे उद्योग लगाने में आने वाली तमाम पेचीदगियों से बच जाते हैं और कम पूंजी निवेश में ज्यादा कमाई कर लेते हैं। सरकार अगर चाहती है कि विनिर्माण सेक्टर में सचमुच तेजी आए, जीडीपी में इसका हिस्सा बढ़े और रोजगार के नए अवसर पैदा हों तो उद्योग नीति को बदलने, उद्योग लगाने के लिए आसान शर्तों पर दीर्घावधि कर्ज की व्यवस्था करने और लालफीताशाही को कम करने की जरुरत है। सरकार को प्रोत्साहन देना चाहिए और साथ ही आयात शुल्क के पूरे ढांचे को तर्कसंगत बनाना चाहिए ताकि भारत के उद्योगपतियों को संरक्षण मिले और वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सक्षम हो सकें।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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