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राज्यों में भी ‘इंडिया’ ब्लॉक की जरुरत

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यह कहने वाले नेता अब दिखाई नहीं दे रहे हैं कि ‘इंडिया’ ब्लॉक का गठन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए हुआ था और राज्यों के चुनाव में इसकी जरुरत नहीं है। दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद ऐसा कहने वाले सारे नेता अपनी खोल में दुबक गए हैं। अकेले संजय राउत हैं, जो अब भी बयान दे रहे हैं लेकिन उनके बयानों का कोई मतलब नहीं रह गया है। वे दिल्ली में भाजपा की जीत को महाराष्ट्र मॉडल का दोहराव बता रहे हैं। लेकिन उनका ऐसा कहना बेहद फूहड़ और दयनीय इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि हारने वाले अरविंद केजरीवाल भी नहीं कह रहे हैं कि वे ईवीएम या चुनाव आयोग की वजह से हारे हैं। उनके अलावा सपा, राजद, तृणमूल, एनसीपी आदि के नेताओं ने चुप्पी धारण कर ली है। तो क्या यह माना जाए कि अब इन पार्टियों के नेताओं को समझ में आ रहा है कि राज्यों में भी ‘इंडिया’ ब्लॉक के प्रयोग की जरुरत है? क्या दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद विपक्षी पार्टियां अपने अपने स्वार्थों का त्याग करके अपने साझा प्रतिद्वंद्वी भाजपा को हराने के लिए एकजुट होंगी?

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में साफ दिख रहा है कि अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ मिल कर लड़े होते तो भाजपा का 27 साल का वनवास पांच साल और बढ़ जाता। आम आदमी पार्टी को 43.56 फीसदी वोट मिले हैं और कांग्रेस को 6.39 फीसदी। यानी दोनों को मिला कर करीब 50 फीसदी वोट मिले हैं। विधानसभा की 14 सीटें ऐसी हैं, जिन पर कांग्रेस उम्मीदवारों को मिले वोट आप उम्मीदवारों की हार के अंतर से ज्यादा थे। यानी कांग्रेस ने प्रत्यक्ष रूप से दिल्ली की 14 सीटों पर आप को हराया और धारणा के स्तर पर सभी 70 सीटों पर नुकसान पहुंचाया। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल अपने अहंकार और अकेले चुनाव जीत जाने के मुगालते में बड़ी रणनीतिक गलती कर बैठे। पता नहीं उनकी नजर इस बात की तरफ क्यों नहीं गई कि कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक रूप से सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ा और पिछले तीन चुनावों में सबसे ज्यादा सीटों पर जीती! केजरीवाल के लिए यह समय था थोड़ा पीछे हटने और कांग्रेस व ‘इंडिया’ ब्लॉक की दूसरी पार्टियों को भी दिल्ली में साथ लेकर लड़ने का। भाजपा ने ठीक यही काम किया। उसने जदयू और लोजपा को एक एक सीट दी। हालांकि दोनों पार्टियां चुनाव हार गईं लेकिन पूर्वांचल के असर वाली 17 में से 14 सीटों पर भाजपा जीती। अगर केजरीवाल ने कांग्रेस, राजद, सपा और लेफ्ट को कुछ सीटें देकर एडजस्ट किया होता तो वे एडवांटेज की पोजिशन में होते।

सवाल है कि क्या लोकसभा चुनाव के बाद से हवा में उड़ रही विपक्षी पार्टियों में कोई एक नेता इतना समझदार नहीं था, जो देख सके कि इस बार आम आदमी पार्टी के खिलाफ 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी है और भाजपा पहले से ज्यादा मजबूती से लड़ रही है इसलिए सबको साथ मिल कर लड़ना चाहिए? केजरीवाल की आंखों पर तो पट्टी बंधी थी। लेकिन लालू प्रसाद, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन, प्रकाश करात, डी राजा या ममता बनर्जी में से किसी को यह बात समझ में नहीं आई? ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि ये सभी नेता राजनीति की बारीकियों को बहुत बेहतर तरीके से समझते हैं। इनमें से किसी ने कांग्रेस के साथ तालमेल कराने की पहल इसलिए नहीं की क्योंकि इन सभी पार्टियों के लिए अगर कांग्रेस चुनौती है या खतरा है तो केजरीवाल भी चुनौती हैं। सबने यही सोचा कि अगर केजरीवाल जीत जाते हैं तो कांग्रेस निपटेगी। दूसरे राज्यों में उसकी मोलभाव की क्षमता कम होगी और उसको विपक्षी गठबंधन की राजनीति की स्टीयरिंग व्हील से हटाना आसान हो जाएगा। और अगर कांग्रेस की वजह से आप हार जाती है तो दोनों पार्टियां दबाव में रहेंगी।

तभी ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों ने तालमेल कराने की बजाय चुनाव से ठीक पहले आग में घी डालना शुरू किया। ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन का नेता बनने की दावेदारी की तो समाजवादी पार्टी, राजद, शरद पवार की एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिव सेना के नेताओं की बांछें खिल गईं। सब ममता को नेता बनाने लगे। जब दिल्ली के चुनाव में तालमेल की बात आई तो इन सभी पार्टियों ने एक स्वर में कहा कि ‘इंडिया’ ब्लॉक लोकसभा चुनाव के लिए ही बना था और राज्यों में ऐसे किसी गठबंधन का अस्तित्व नहीं है। परंतु अब दिल्ली के नतीजों के बाद तस्वीर बदल गई है। अब राज्यों में भी ‘इंडिया’ ब्लॉक की जरुरत महसूस हो रही है। महाराष्ट्र में भले ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों का गठबंधन महा विकास अघाड़ी चुनाव हार गया लेकिन झारखंड में उनका गठबंधन चुनाव जीता और अगर हरियाणा व दिल्ली में गठबंधन लड़ा होता तो दोनों जगह गैर भाजपा सरकार होती। यह सिर्फ सैद्धांतिक बात नहीं है, बल्कि आंकड़ों के आधार पर प्रमाणित है।

सो, अब आगे क्या? इस साल के अंत में बिहार विधानसभा का चुनाव है। वहां विपक्ष महागठबंधन के नाम से एकजुट है। राजद और कांग्रेस के साथ तीन कम्युनिस्ट पार्टियों और मुकेश सहनी की विकासशाली इंसान पार्टी एक साथ हैं। दिल्ली के नतीजों से पहले राजद और दूसरी प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस को दबाव में लाने और उसकी सीटें कम करने की राजनीति कर रही थीं। परंतु बदली हुई स्थितियों में अलग तरह की राजनीति होगी। दूसरी ओर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एनडीए अगर एकजुट रहता है तो महागठबंधन के लिए अच्छी संभावना नहीं है। दिल्ली की जीत के बाद भाजपा कुछ गलती करती है तभी अवसर बनेंगे।

अगर विपक्षी पार्टियां राज्यों में ‘इंडिया’ ब्लॉक की जरुरत महसूस करती हैं तो उसकी शुरुआत अगले साल मई में होने वाले पश्चिम बंगाल और असम विधानसभा चुनाव से हो सकती है। अगले साल मई में पांच राज्यों के चुनाव हैं। इनमें तमिलनाडु में पहले से डीएमके ने बड़ा विपक्षी गठबंधन बनाया है, जिसका नाम सेकुलर प्रोग्रेसिव अलायंस यानी एसपीए है। इसमें डीएमके, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम और वीसीके शामिल हैं। यही गठबंधन पुड्डुचेरी में भी चुनाव लड़ता है, जबकि केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ और सीपीएम के नेतृत्व वाले एलडीएफ में मुकाबला होता है। तभी पश्चिम बंगाल और असम दो राज्य हैं, जहां ‘इंडिया’ ब्लॉक का प्रयोग हो सकता है। ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में भी अपने को विपक्षी गठबंधन से अलग कर लिया था। वे अब भी कांग्रेस और लेफ्ट को खारिज करने वाली बातें कर रही हैं। उन्होंने कहा है कि वे अगले साल दो तिहाई वोट से जीतेंगी और भाजपा को हराने के लिए उनको किसी की जरुरत नहीं है। हालांकि वे भी यह जरूर कह रही हैं कि दिल्ली में कांग्रेस और आप मिल कर लड़े होते तो नतीजे अलग होते। जाहिर है कि चुनाव से पहले जैसे केजरीवाल कह रहे थे कि उनको किसी की जरुरत नहीं है वैसे ही ममता भी कह रही हैं कि वे अकेले चुनाव जीत लेंगी।

गौरतलब है कि वे पश्चिम बंगाल में तो अकेले लड़ती ही हैं असम व पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में उन्होंने कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को अपने साथ मिला लिया है और वहां भी चुनाव लड़ कर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाती हैं। अगर वे दिल्ली की राजनीति के सबक को समझती हैं और कांग्रेस व लेफ्ट दोनों से बातचीत करती हैं तो एक नई राजनीति की शुरुआत हो सकती है। अगर वे ऐसा नहीं सोचती हैं तो गठबंधन की बाकी पार्टियों के बड़े नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें इस बारे में हकीकत का अहसास कराएं। दूसरी ओर शून्य पर पहुंच गई कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा दोनों वैचारिक आधार पर भाजपा को रोकने और राजनीतिक आधार पर अपना वजूद बचाने के लिए कम से कम सीटों पर तालमेल के लिए राजी हो सकते हैं। यह ममता बनर्जी पर निर्भर करेगा कि वे अरविंद केजरीवाल की तरह गज भर कपड़ा बचाने के लिए पूरी थान हारती हैं या हेमंत सोरेन की तरह गज भर कपड़ा गंवा कर पूरी थान बचाने की राजनीति करती हैं।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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