Lok Sabha elections: एक्जिट पोल के अनुमान आने के पहले से यह सवाल उठने लगा था कि आखिर लोकसभा चुनाव के बाद ऐसा क्या बदल गया, जिससे भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन को कड़ी टक्कर दे रही है और झारखंड में भी नजदीकी मुकाबला बना दिया है?
एक्जिट पोल के अनुमानों के बाद यह सवाल और प्रासंगिक हो गया है। यह अलग बात है कि एक्जिट पोल के अनुमान भरोसे के लायक नहीं होते हैं और निकट अतीत में ही दो बार उनके अनुमान बुरी तरह से गलत साबित हुए हैं।
परंतु इन अनुमानों से अलग भी यह रिपोर्ट है कि महाराष्ट्र और झारखंड दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में लगे झटके से उबर कर बहुत मजबूती से लड़ी है। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उसने पासा पलट दिया है लेकिन विपक्षी गठबंधन के पक्ष में एकतरफा हवा होने या माहौल होने की धारणा को बदल दिया।
भाजपा ने यह काम कैसे किया, यह सवाल अपनी जगह है। लेकिन यह सवाल भी अहम है कि विपक्ष ने कैसे लोकसभा चुनाव में मिली बढ़त गंवाई और आसान व एकतफा मुकाबले वाले राज्यों में भी मुश्किल लड़ाई में फंस गई।
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महाराष्ट्र और झारखंड में एकतरफा मुकाबला…
महाराष्ट्र और झारखंड में कैसे एकतरफा दिख रहा मुकाबला कठिन लड़ाई में बदल गया, इसे समझने के लिए हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनावों से शुरुआत करनी होगी। इन दोनों राज्यों में चुनाव लोकसभा के तुरंत बाद हुए।
4 जून को लोकसभा के नतीजे आए थे और चार महीने के बाद आठ अक्टूबर को इन दोनों राज्यों के नतीजे आए। चार महीने पहले लोकसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा को बड़ा झटका लगा था। वह 303 से घट कर 240 सीट पर आ गई थी।
मोदी सरकार की बजाय एनडीए सरकार का गठन हुआ। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के समर्थन के दम पर केंद्र में सरकार बनी। हरियाणा में सभी 10 सीटें जीतने वाली भाजपा आधी सीटें हार गई। (Lok Sabha elections)
कायदे से भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ होना चाहिए था और विपक्षी खेमे में ‘इंडिया’ ब्लॉक की एकजुटता के हवाले लबालब उत्साह भरा हुआ होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भाजपा इमरजेंसी मोड में पहुंच गई
लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद भाजपा तुरंत इमरजेंसी मोड में पहुंच गई। उसने कोर्स करेक्शन शुरू किया। जमीन पर मेहनत तेज कर दी। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के साथ बिगड़े हुए तालमेल को ठीक करना शुरू किया।
अपने नेताओं को एकजुट किया और सारे नेता दिन रात मेहनत में जुट गए। सामाजिक समीकरण ठीक किया जाने लगा। विपक्ष के वोट बांटने के लिए छोटे छोटे प्रबंधनों पर फोकस किया गया। इसके लिए छोटी छोटी पार्टियों का इस्तेमाल किया गया।
विपक्षी गठबंधन की फॉल्टलाइन को पहचान कर उसे बड़ा करने के उपाय किए गए। दूसरी ओर विपक्ष के नेता सफलता का स्वाद मिलते ही उसके नशे में डूब गए।
उनको लगने लगा कि अब भाजपा की गाड़ी ढलान पर आ गई है और उसका लुढ़कना शुरू हो गया है तो अब कुछ भी करने की जरुरत नहीं है। तभी राजनीतिक और चुनावी रणनीति में लापरवाही बरती गई।
जमीनी सचाइयों पर ध्यान नहीं दिया गया। विपक्ष के नेता एकजुटता के मंत्र को भूल गए और नतीजों से पहले ही जीत के जश्न में डूब गए।
हरियाणा में कांग्रेस नेताओं में मुख्यमंत्री पद की मारामारी शुरू हो गई और जम्मू कश्मीर के बारे में यह विचार होने लगा कि अब गुलाम नबी आजाद नहीं हैं तो अगर सत्ता में साझेदारी की नौबत आती है तो कौन मुख्यमंत्री बनेगा।
नतीजा यह हुआ है कि जम्मू कश्मीर में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार मिली और हरियाणा में भी वह जीती हुई बाजी हार गई।
हरियाणा की जीत ने भाजपा के लिए संजीवनी
हरियाणा की जीत ने भाजपा के लिए संजीवनी का काम किया। उसके नेताओं का खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया और कार्यकर्ताओं का मनोबल भी ऊंचा हो गया। दूसरी ओर कांग्रेस ने इस हार से भी कोई सबक नहीं सीखा।
जीत की स्पष्ट संभावना वाले राज्य में हारने के बाद भी कांग्रेस के नेता यह मानते रहे कि महाराष्ट्र जीत रहे हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव में वहां उसके गठबंधन यानी महाविकास अघाड़ी ने भाजपा को बुरी तरह से हराया है। (Lok Sabha elections)
महाराष्ट्र में कांग्रेस की सीट एक से बढ़ कर 13 हो गई, जबकि भाजपा 23 से घट कर नौ पर आ गई। कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार के गठबंधन ने 48 में से 30 सीटों पर जीत हासिल की।
भाजपा के सत्तारूढ़ गठबंधन को सिर्फ 17 सीटें मिलीं। इसी उत्साह में विपक्ष की तीनों पार्टियां आखिरी समय तक सीट बंटवारे के लिए लड़ती रहीं।
अब जाकर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने स्वीकार किया कि दो महीने तक सीट बंटवारे में उलझे रहना ठीक नहीं था। सवाल है कि यह बात पहले क्यों नहीं समझ में आई?
इसलिए नहीं आई क्योंकि कांग्रेस हो या उद्धव ठाकरे हों या शरद पवार हों, सबको ज्यादा सीटें चाहिए थीं ताकि वे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी किए रहें।
दूसरी ओर भाजपा के गठबंधन ने इस सोच में चुनाव लड़ा कि जीतना है, उसके बाद मुख्यमंत्री का फैसला कर लेंगे।
विधानसभा की जीत तो हमारी…
लगभग यही स्थिति झारखंड में रही, जहां लोकसभा चुनाव में जेएमएम और कांग्रेस गठबंधन ने पांच सीटें जीतने के बाद यह मान लिया कि विधानसभा की जीत तो हमारी है।
ऐसा मानने का कारण यह था कि 2019 के चुनाव में जेएमएम और कांग्रेस गठबंधन को सिर्फ दो सीटें मिली थीं और छह महीने के बाद विधानसभा चुनाव में उसने 46 सीटें जीत ली थी। (Lok Sabha elections)
सो, यह माना गया कि 2024 के लोकसभा में जब पांच सीट जीत गए यानी सीधे नरेंद्र मोदी को हरा दिया तो भाजपा के प्रदेश नेतृत्व को हराना कोई बड़ी बात नहीं होगी।
इस सोच में गठबंधन की पार्टियां अंत समय तक ज्यादा सीट के लिए लड़ती रहीं। कांग्रेस ने लड़ कर 30 सीटें लीं और पिछली बार सिर्फ एक सीट जीतने वाली राजद ने भी छह सीटें लीं।
सबसे बेहतर संभावना वाली वामपंथी पार्टियों को सिर्फ चार सीटें दी गईं। इसके बावजूद एलायंस ठीक नहीं हो पाया। कहीं जेएमएम और सीपीआई माले के उम्मीदवार एक ही सीट पर लड़ रहे हैं तो कहीं कांग्रेस और राजद के उम्मीदवार एक ही सीट पर लड़ रहे हैं।
प्रियंका गांधी वाड्रा प्रचार के लिए नहीं गया
कम से कम चार सीटों पर कथित दोस्ताना लड़ाई हो रही है। उसके बाद कांग्रेस ने सभी ऐसे नेताओं को टिकट दिए, जो पिछले काफी समय से हेमंत सोरेन की सरकार गिराने के प्रयास में थे।
तीन तो ऐसे थे, जो 50 लाख रुपए के साथ पकड़े गए थे और जेल में रहे थे लेकिन उन तीनों को भी टिकट मिली। फिर जब प्रचार की बारी आई तो औपचारिकता के लिए राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की सभाएं हुईं।
प्रियंका गांधी वाड्रा या कोई दूसरा बड़ा नेता प्रचार के लिए नहीं गया। दूसरी ओर भाजपा ने चार पार्टियों के साथ समय रहते सीट बंटवारा कर लिया और प्रचार में कारपेट बॉम्बिंग कर दी।
आधा दर्जन मुख्यमंत्री और एक दर्जन केंद्रीय मंत्री झारखंड में डेरा डाले रहे। उसने अपने हिसाब का नैरेटिव महाराष्ट्र में भी बना दिया और झारखंड में भी बना दिया।
हालांकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि भाजपा जैसे हरियाणा में जीती या जम्मू कश्मीर में अपनी सीटें बढ़ा ली उसी तरह वह महाराष्ट्र या झारखंड में निश्चित जीत हासिल करने जा रही है।
यह संभव है कि तमाम गड़बड़ियों के बावजूद कांग्रेस का गठबंधन चुनाव जीत जाए क्योंकि दोनों राज्यों में प्रादेशिक पार्टियों ने कांग्रेस के मुकाबले बहुत ज्यादा मेहनत की है और करो या मरो के अंदाज में चुनाव लड़ा है।
परंतु भाजपा ने जिस तरह से लोकसभा के खराब प्रदर्शन को पीछे छोड़ कर राज्यों के चुनाव लड़े हैं वह विपक्ष के लिए सबक की तरह है।