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सड़ा-गला सिस्टम और इतने असहाय नागरिक

Government system

Government system: दुनिया के किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक देश में नागरिक इतने असहाय, बेबस और अरक्षित नहीं होंगे, जितने भारत में हैं। नागरिकों की यह असहायता उनकी अपनी कमजोरियों का भी नतीजा है लेकिन बुनियादी रूप से भारत में शासन की प्रणाली यानी जिसे सिस्टम कहा जाता है उसके सड़-गल जाने की वजह से है। ऐसा होना भारत की शासन व्यवस्था से जवाबदेही का तत्व स्थायी रूप से खत्म हो जाने की वजह से है। अब कोई किसी घटना के लिए जिम्मेदार नहीं होता है। किसी भी घटना के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई जाती है। सिस्टम चलाने वाले यानी नेता और अधिकारी नागरिकों को कीड़ा मकोड़ा मान कर उनकी परवाह नहीं करते हैं, नागरिक अपनी नियति मान कर इसे स्वीकार करते हैं और मीडिया सरकार के समर्थन को अपनी जिम्मेदारी मान कर उसे निभाता है।

तभी देश की राजधानी दिल्ली से लेकर बिहार की राजधानी पटना में एक दिन की बारिश से सारा शहर जलमग्न हो जाता है और किसी की जवाबदेही तय नहीं होती है। केरल जैसे सबसे बेहतर प्रबंधन वाले राज्य में भूस्खलन से ऐसी तबाही मचती है, जैसी इतिहास में कभी नहीं मची। सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है और केंद्र व राज्य सरकार के बीच इस बात का विवाद चलता है कि ऐसी तबाही की संभावना का अलर्ट जारी किया गया था या नहीं। दिल्ली में एक नामी कोचिंग संस्थान की बेसमेंट में बनी लाइब्रेरी में बारिश और नाले का पानी घुस जाता है और भविष्य के सुनहरे सपने लिए तीन जिंदगियां समाप्त हो जाती हैं। कलेक्टर बनने की आस लेकर दिल्ली आए छात्र की मौत राह चलते करंट लगने से हो जाती है। अपनी छोटी छोटी समस्याओं से मुक्ति के लिए बाबा के दरबार में पहुंचे सैकड़ों लोगों को भगदड़ की वजह से जीवन से मुक्ति मिल जाती है। राह चलते लोगों के सिर पर होर्डिंग गिर जाते है और उसके नीचे दब कर लोग मर जाते हैं। किसी अरबपति बाप का नाबालिग बेटा अपनी करोड़ों की गाड़ी से सड़क पर लोगों को कुचल देता है।

ट्रेनें आपस में टकरा जा रही हैं या पटरी से उतर जा रही हैं, जिसमें लोग मर जा रहे हैं और रेल मंत्री रील बनवाते रहते हैं। सालों साल दिन रात मेहनत करके लाखों छात्र प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करते हैं और पेपर लीक हो जाता है, परीक्षा रद्द हो जाती है। देश की सीमा पर शांति है, कहीं युद्ध नहीं हो रहा है लेकिन सीमा पर जवान मारे जा रहे हैं। अपने हक के लिए सड़क पर आंदोलन कर रहे किसान मारे जा रहे हैं और राह चलते नागरिकों की मौत हो रही है। लेकिन जिम्मेदार किसी को नहीं ठहराया जा रहा है। इन सबसे प्रतिरोध में कहीं से आवाज नहीं उठती है। मीडिया में थोड़े दिन का तमाशा बनता है लेकिन उसमें भी प्रयास सिस्टम को बचाने का ही होता और थोड़े दिन के बाद वह भी मीडिया की नजरों से गायब हो जाता है।

सोचें, दिल्ली के राजेंद्र नगर में राउज कोचिंग इंस्टीच्यूट की लाइब्रेरी में जान गंवाने वाले तीन छात्रों- तान्या, श्रेया और नवीन के बारे में! तीनों बेसमेंट में बनी लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहे थे और अचानक इतना पानी भर गया कि वे उसमें से निकल नहीं पाए। राहत और बचाव की जो पहली टीम मौके पर पहुंची उसमें डाइवर्स नहीं थे। यह राजधानी का सिस्टम है, जहां के मुख्यमंत्री का दावा है कि उनके शासन के मॉडल को दुनिया देख रही है। मुख्यमंत्री ने दावा किया था कि वे दिल्ली को झीलों का शहर बना देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि मामूली बरसात में सड़कें और लोगों के घर झील में तब्दील हो जाते हैं। दिल्ली की मेयर ने कहा था कि इस बार नालों की ऐसी सफाई हुई है कि लोग मानसून एन्जवॉय करेंगे। लेकिन हकीकत यह है कि सड़क चलते गेट को हाथ लगाने से करंट लग जाता है और युवक की मौत हो जाती है तो बेसमेंट की लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्र अचानक पानी भर जाने से मर जाते हैं। यह दुर्घटना या प्राकृतिक हादसा नहीं है। यह हत्या है, जिसकी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और सजा दी जानी चाहिए। नालों की सफाई हो, बारिश की पानी निकलने की व्यवस्था हो ताकि घरों में पानी नहीं घुसे और बिजली के तार खुले न रहें इससे मामूली बुनियादी सुविधा क्या हो सकती है? लेकिन राजधानी में भी यह बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। कहीं फायर क्लीयरेंस नहीं होने की वजह से तो कहीं अवैध निर्माण की वजह से कोचिंग्स सील किए जाने की खबरें आती हैं लेकिन फिर कैसे कुकुरमुत्ते की तरह जहां तहां कोचिंग खुले हैं, जिनमें आग लगने, करंट लगने या डूबने से बच्चों की मौत हो रही है? यह तय मानें कि इतने बड़े हादसे के बाद भी सुधार नहीं होगा, उलटे यह आपदा सिस्टम के लिए अवसर बन जाएगा। अब कोचिंग संस्थानों से ज्यादा वसूली होगी। यही भारत की सचाई है।

याद करें पुणे की पोर्शे कार से हुए हादसे को। कैसे उस एक हादसे ने भारत में स्वास्थ्य की, न्यायपालिका की और पुलिस व प्रशासन की समूची व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी थी। एक अरबपति बाप के बेटे को बचाने के लिए सारा सिस्टम काम कर रहा था। रातों रात गवाह बदल रहे थे तो दिन दहाड़े आरोपी के खून का नमूना बदल जा रहा था! डॉक्टर से लेकर पुलिस तक सब आरोपी को बचाने में लग गए थे। न्यायिक अधिकारी ने तो लेख लिखने की सजा देकर आरोपी को छोड़ ही दिया था। ऐसे हादसे के बाद भारत में असल में क्या होता है वह उस घटना से पता चला। जबरदस्ती ड्राइवर को जिम्मेदारी लेने के लिए कहना, आरोपी के खून का नमूना बदलना और गवाहों का मुकरना ये तीनों काम उस घटना में हुए। यह अलग बात है कि उस मामले में आरोपी और उसके परिजन पकड़े गए लेकिन ऐसी हजारों, लाखों घटनाओं में सिस्टम का इसी तरह से इस्तेमाल करके लोग बच जाते हैं। हादसे का शिकार हुए लोग मुआवजे की मामूली रकम लेकर किस्मत के खेल को स्वीकार करते हैं। उसके साथ सहानुभूति सबकी होती है लेकिन उसके लिए सिस्टम से लड़ने कोई नहीं जाता है। जो व्यवस्था के निकम्मेपन का शिकार होता है वह खुद भी उसके खिलाफ खड़ा नहीं होता है।

एक नीट यूजी की परीक्षा में 24 लाख छात्र शामिल हुए थे, जिनकी सांस पेपर लीक और अन्य गड़बड़ियों की वजह से अटकी हुई थी। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए हुई सीयूईटी की परीक्षा में 14 लाख छात्र शामिल हुए थे, जिनके नतीजे 30 जून को आने थे लेकिन 28 जुलाई को आए। इस बीच निजी विश्वविद्यालयों में दाखिला शुरू हो गया। लेक्चरर की पात्रता के लिए यूजीसी नेट की परीक्षा 18 जून को हुई और 19 जून को परीक्षा रद्द हो गई। इस परीक्षा में शामिल नौ लाखों छात्रों की सांस अटकी है। उनको अगस्त में फिर परीक्षा देनी होगी। इतनी बड़ी संख्या में नौजवान सिस्टम की गड़बड़ियों का शिकार हो रहे हैं लेकिन कहीं से चूं की आवाज नहीं आ रही है। प्रतियोगिता और प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन करने वाली एजेंसियों की गड़बड़ियां जनता के सामने हैं लेकिन सबने मान लिया है कि सब ऐसे ही चलता है। एक पूजा खेडकर कांड ने दिखा दिया कि भारत की सर्वोच्च परीक्षा का आयोजन करने वाली संस्था के सिस्टम में कितने लूपहोल्स हैं और उनका किस तरह से फायदा उठाया जा सकता है। पूजा खेडकर ने ओबीसी के अंदर नॉन क्रीमी लेयर का जाली प्रमाणपत्र बना कर, अपनी विकलांगता का प्रमाणपत्र बनवा कर और माता, पिता का नाम बदल कर अपनी उम्र का जाली प्रमाणपत्र बना कर यूपीसीएस की परीक्षा 11 बार दी और अंततः आईएएस चुनी गईं। ऐसे कितने पूजा खेडकर हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।

दुष्यंत कुमार की गजल है- हालत ए जिस्म सूरत ए जां और भी खराब, चारों तरफ खराब यहां और भी खराब। मूरत संवारने में बिगड़ती चली गई, पहले से हो गया है जहां और भी खराब। भारत में पहले से एक खराब व्यवस्था चल रही थी लेकिन अब वह और भी खराब हो गई है। नागरिक चौतरफा अरक्षित और असहाय हो गए हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की वजह से नागरिकों की समस्याओं का शोर बहुत है लेकिन उसकी सुनवाई नहीं है। सिस्टम या तो पूरी तरह से सड़ गया है या उसने मान लिया है कि वह जवाबदेही से ऊपर है और नागरिकों की नियति है कि वे देह धारण कर धरती पर आए हैं तो दंड भुगतें!

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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