महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव में दोनों मुख्य गठबंधन मतदाताओं को अनेक सेवाएं और वस्तुएं मुफ्त में देने के वादे पर चुनाव लड़े हैं। जो गठबंधन सरकार में है उसने चुनाव से पहले ही मुफ्त की वस्तुएं और सेवाएं देनी शुरू कर दी थीं और जो विपक्ष में है उसने सरकार से ज्यादा देने का वादा किया है। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति यानी भाजपा, शिव सेना और एनसीपी को उम्मीद है कि ‘माझी लाड़की बहिन’ योजना के तहत महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार रुपए देने की योजना चुनाव जिताएगी तो इसी आधार पर झारखंड की जेएमएम, कांग्रेस और राजद गठबंधन की सरकार को उम्मीद है कि ‘मइया सम्मान योजना’ के तहत महिलाओं को 11 सौ रुपया महीना देने से चुनाव जीत जाएंगे। राजनीति और चुनाव जैसी जटिल गतिविधि का ऐसा सरलीकरण कई बार हैरान करता है लेकिन जब यह माना जाता है कि मध्य प्रदेश में ‘लाड़ली बहना योजना’ ने भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका निभाई और छत्तीसगढ़ में ‘महतारी वंदन योजना’ का फॉर्म भरवा कर भाजपा ने ठीक ठाक लोकप्रिय भूपेश बघेल सरकार को हरा दिया तो महिलाओं को नकद रुपए देने की योजना महाराष्ट्र और झारखंड में सफल क्यों नहीं होगी?
एक और दिलचस्प बात यह है कि झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने 12 नवंबर को महिलाओं के खाते में 11 सौ रुपए की किश्त डाली और 13 नवंबर को पहले चरण मतदान होना था। इसकी शिकायत चुनाव आयोग से की गई है लेकिन माना जा रहा है कि यह दांव काम कर गया है। क्योंकि 13 नवंबर को पहले चरण की 43 विधानसभा सीटों पर महिलाओं ने पांच फीसदी ज्यादा वोट डाले हैं। राज्य में कुल 66 फीसदी से कुछ ज्यादा मतदान हुआ, जिसमें पुरुषों ने 64 फीसदी और महिलाओं ने 69 फीसदी मतदान किया। लेकिन क्या सचमुच महिलाओं के ज्यादा मतदान करने के पीछे ‘मइया सम्मान योजना’ के पैसे का हाथ है? इसी से जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि क्या सभी महिलाएं, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या आर्थिक समूह की हैं वे इस योजना से प्रभावित हो रही हैं? इस सवाल को व्यापक संदर्भ में पूछें तो यह कह सकते हैं कि क्या सभी लाभार्थी सरकार की योजना से प्रभावित होते हैं और लाभ देने वाली सरकार के पक्ष में मतदान करते हैं? और जो लाभार्थी नहीं होते हैं यानी जिन लोगों को सरकार की योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिलता है वे अनिवार्य रूप से सरकार के खिलाफ मतदान करते हैं?
इसका जवाब मुश्किल नहीं है। इसका स्पष्ट जवाब है कि सारे लाभार्थी सरकार के समर्थन में वोट नहीं करते हैं और सरकार की योजनाओं से लाभान्वित नहीं होने वाले सारे लोग सरकार के खिलाफ वोट नहीं करते हैं। मतदाताओं का मतदान व्यवहार कई अन्य चीजों से प्रभावित होता है। मुफ्त की वस्तुएं, मुफ्त की सेवाएं या नकदी बांटने की योजनाएं असल में हर पार्टी के अपने कोर वोट को ही संगठित या कंसोलिडेट करती हैं। जैसे झारखंड में जेएमएम, कांग्रेस और राजद का जो वोट आधार है, जिसमें आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, यादव और सदान यानी महतो का एक हिस्सा शामिल है, वह सरकार की लाभ देने वाली योजना से ज्यादा प्रभावित होगा और सरकार के समर्थन में एकजुट होगा। लेकिन सरकार की लाभकारी योजना इसी तरह से सवर्ण या गैर आदिवासी या कट्टर हिंदू मतदाताओं को प्रभावित नहीं करेगी। वे योजना का लाभ लेने के बावजूद सरकार के समर्थन में वोट नहीं करेंगे। मिसाल के तौर पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार या अलग अलग राज्यों की भाजपा सरकारों की योजनाओं से लाभान्वित होने वाले मुस्लिम मतदाता उससे प्रभावित होकर भाजपा को मतदान नहीं करने लग जाते हैं।
कहने का आशय यह है कि वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जो समरूप या होमोजेनस समाज है वह एक तरह से व्यवहार करता है। हर पार्टी के पास ऐसे समूहों का समर्थन होता है और उस पार्टी की सरकारों की लाभकारी योजनाओं से ये समूह उसके पक्ष में ज्यादा मजबूती से गोलबंद होते हैं। यानी हर पार्टी का जो अपना आधार वोट होता है वह लाभकारी योजनाओं से एकजुट होता है। उसमें बिखराव की संभावना कम होती है। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में ‘माझी लाड़की बहिन योजना’ के लाभान्वित मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं करेंगे लेकिन भाजपा का जो आधार वोट है, जिसको किसी वजह से नाराजगी रही होगी उसकी नाराजगी इससे दूर हो जाएगी। इसी तरह झारखंड में भाजपा को जो औसतन 33 फीसदी वोट मिलता है उसका बड़ा हिस्सा ‘मइया सम्मान योजना’ से अप्रभावित रहेगा। वह लाभ लेने के बावजूद सरकार का समर्थन नहीं करेगा। लेकिन जेएमएम, कांग्रेस और राजद के अपने वोट आधार में कोई नाराजगी है तो वह इससे दूर हो जाएगी। अनिर्णय वाले मतदाता समूह पर भी इसका असर हो सकता है। हालांकि किसी अन्य मुद्दे पर अगर सरकार के खिलाफ नाराजगी है तो उसे सिर्फ मुफ्त की रेवड़ी बांट कर या लोक लुभावन घोषणाओं से दूर नहीं किया जा सकता है। पिछले साल राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव में यह देखने को मिला। दोनों जगह कांग्रेस की सरकार हार गई, जबकि दोनों सरकारों ने खूब लोक लुभावन घोषणाएं की थीं।
बहरहाल, चुनाव में बहुत मामूली अंतर के लिए लाखों करोड़ रुपए की योजनाएं घोषित की जा रही हैं। इससे पार्टियों को बहुत थोड़ा लाभ होता है। हालांकि कई बार थोड़े लाभ से भी बड़ा अंतर आ जाता है। लेकिन दीर्घावधि में इसका बड़ा नुकसान राज्य की आर्थिक सेहत को होता है और अंततः आम लोग भी इसका शिकार होते हैं। इस तरह की योजनाओं से राज्यों का वित्तीय घाटा बढ़ता जाता है, जिससे विकास की गतिविधियां अंततः ठप्प होती जाती हैं। लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने वाले कामकाज रूक जाते हैं क्योंकि उनके लिए सरकारों के पास फंड नहीं बचता है। मुफ्त की योजनाओं से ढांचागत विकास की गतिविधियां प्रभावित होती हैं। दिल्ली के लोग इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। दिल्ली सरप्लस बजट वाला राज्य रहा है, जो प्रति व्यक्ति आय और कर देने के मामले में देश के शीर्ष राज्यों में शामिल है। लेकिन मुफ्त की बिजली, पानी आदि बांटते बांटते सरकार ने इसे घाटे के बजट वाला राज्य बना दिया और अब स्थिति यह है कि पैसे की कमी से सड़कों के रिपेयर जैसे मामूली काम भी नहीं हो पा रहे हैं। नई सड़कें, नए फ्लाईओवर या नए स्कूल, कॉलेज तो नहीं ही बन रहे हैं। गनीमत इतनी है कि अभी दिल्ली सरकार को कर्ज लेने की नौबत नहीं आई है, जबकि दूसरी राज्य सरकारें अपने जीडीपी के 50 फीसदी से ज्यादा तक कर्ज ले चुकी हैं और उनके बजट का एक चौथाई हिस्सा ब्याज का कर्ज चुकाने में चला जाता है। महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार रुपया देने की योजना पर महाराष्ट्र सरकार हर साल 46 हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी, जबकि उसका राजकोषीय घाटा पौने तीन लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है।