कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पिछले दिनों झारखंड की राजधानी रांची में संविधान के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में देश में कथित तौर पर चल रहे वैचारिक संघर्ष को प्रतीकित करने वाली दो बातें कहीं। पहली, ‘मनुस्मृति संविधान विरोधी है’। यह एकदम बेतुकी बात है क्योंकि दो विचारों को एक दूसरे का विरोधी तभी कहा जा सकता है, जब वे समकालीन हों और एक साथ चलन में हों।
दूसरी, ‘मनुस्मृति और संविधान के बीच दशकों से संघर्ष चल रहा है’। सवाल है कि क्या सचमुच इस तरह का कोई वैचारिक संघर्ष धरातल पर चल रहा है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब देश 75 साल से संविधान के आधार पर चल रहा है, जिसमें से 55 साल के करीब कांग्रेस सत्ता में रही है और उसमें भी 38 साल राहुल गांधी के परनाना, दादी और पिता ही प्रधानमंत्री रहे तो अब मनस्मृति से देश चलने की बात कहां से आ गई?
इस सदी में 10 साल कांग्रेस का शासन था और तब राहुल गांधी भी सांसद थे क्या तब भी मनुस्मृति और संविधान में संघर्ष चल रहा था? अगर चल रहा था तो राहुल गांधी या कांग्रेस के किसी भी नेता ने 10 साल में एक बार भी इसका जिक्र क्यों नहीं किया और अब अचानक राहुल गांधी इसे लेकर क्यों इतने मुखर हो गए हैं? जाहिर है राहुल गांधी को न तो मनुस्मृति से कोई मतलब है और न संविधान से। उनको सत्ता की राजनीति से मतलब है। होना भी चाहिए क्योंकि वे कोई संत, महात्मा या दार्शनिक तो हैं नहीं। वे नेता हैं और नेता की ही तरह काम करते हैं।
लेकिन सत्ता हासिल करने की बेचैनी में वे जो बातें कह रहे हैं उनसे देश और समाज का कोई भला नहीं हो रहा है। संविधान और कानून के शासन वाले देश में वे जबरदस्ती मनुस्मृति की बात करके सामाजिक विभाजन बढ़ाने का खतरनाक प्रयास कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि इस देश में मनुस्मृति कोई नहीं पढ़ता है। खुद राहुल गांधी ने भी उसका एक भी पन्ना नहीं पढ़ा होगा। उनको पता भी नहीं होगा कि मनुस्मृति के कितने संस्करण मौजूद हैं और उनमें से कोई भी असली नहीं है।
वे शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि सोशल मीडिया में मनुस्मृति के नाम से जितनी बातें वायरल होती हैं उनमें से ज्यादातर बातें उस ग्रंथ में नहीं लिखी हैं। मनुस्मृति के की जो बातें सोशल मीडिया में प्रचारित होती हैं उनका असली मकसद सामाजिक विद्वेष बढ़ाना और राजनीतिक लाभ लेना होता है। वह देश में एक नया नैरेटिव सेट करने का टूलकिट है, जिसके पीछे बड़ा खेल हो सकता है। जरूरी नहीं है कि जिस हैंडल या अकाउंट से इसे प्रचारित किया जाता है उसके पीछे कोई पिछड़ा, दलित या कोई प्रगतिशील चेहरा हो। लेकिन वह अलग बहस और चिंता का विषय है।
अभी इस सवाल पर विचार करने की जरुरत है कि क्या सचमुच इस देश में मनुस्मृति और संविधान को लेकर कोई संघर्ष चल रहा है? धरातल पर तो ऐसा कोई संघर्ष देखने को नहीं मिलता है। इसकी पड़ताल करने के लिए कहीं भी 10 लोगों से मनुस्मृति के बारे में पूछा जा सकता है। ज्यादातर लोगों ने इस ग्रंथ का नाम नहीं सुना होगा और सुना भी होगा तो उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होगी। हां, यह जरूर है कि भारत में समाज के संचालन के जो नियम बने उनका एक बड़ा हिस्सा मनुस्मृति की बातों पर आधारित है।
लेकिन यह काम 10 या 20 साल पहले या सौ दो सौ साल पहले नहीं हुआ है, बल्कि हजारों साल पहले हुआ और समय के साथ उसमें बदलाव आता गया। यह भी सही है कि अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की अपनी नीति के तहत इसे आधार बना कर कुछ कानून बनाए। लेकिन आजादी मिलने और संविधान लागू होने के बाद तो सारी चीजें बदल गईं। अब निजी, पारिवारिक या धार्मिक कार्यक्रमों में वेद या मनुस्मृति की कुछ बातों का पालन होता हो तो अलग बात है लेकिन सार्वजनिक जीवन में या सरकार के कामकाज में मनुस्मृति की किसी भी बात का प्रयोग नहीं होता है।
मनुस्मृति का सिर्फ इतना ही मतलब है कि इस ग्रंथ ने प्राचीन भारत के हमारे पूर्वजों को एक रास्ता दिखाया था। यह बताया था कि समाज के संचालन के लिए एक संहिता की जरुरत होती है। यह ठीक उसी तरह था, जैसे मध्य पूर्व में हम्मूराबी की संहिता बनी थी। यह वो समय था, जब समाज को संचालित या नियंत्रित करने के लिए कोई नियम या कानून नहीं थे। उस समय जो सामाजिक व्यवस्था मौजूद थी उसे देखते हुए एक संहिता बनाई गई थी, जिसे लेकर यह विवाद है कि इसे स्वंयभू मनु ने बनाई या भृगु ऋषि ने बनाई, इसे एक व्यक्ति ने लिखा या कई व्यक्तियों ने लिखा और एक बार लिखे जाने के बाद सदियों तक इसमें कुछ चीजें जोड़ी जाती रहीं।
लेकिन जिसने भी बनाई उसने अपने समय की वास्तविकताओं और जरुरतों के हिसाब से इसे बनाया, जिसका मकसद समाज में व्यवस्था बहाल करना था। एक बार संहिता बन जाने के बाद आगे आने वाली पीढ़ियों की जिम्मेदारी थी कि वे समय की जरुरतों के हिसाब से इसमें सुधार करें या इसे पूरी तरह से खारिज करके नई संहिता बनाएं। भारत में भी तमाम सुधार और बदलाव हुए। इसके बावजूद अगर कुछ चीजें समाज में ऐसी मौजूद हैं, जिनके बीज मनुस्मृति में थे तो वह ग्रंथ लिखने वाले की नहीं, बल्कि समाज की कमी है।
सोचें, महज 75 साल पहले बने संविधान में एक सौ से ज्यादा बदलाव हो चुके हैं। बदलते हुए समय की जरुरतों के हिसाब से संविधान को बदला जाता है। लेकिन जब भी संविधान का कोई प्रावधान बदला जाता है तो क्या संविधान बनाने वालों को गालियां दी जाती हैं? उनकी लिखी कोई बात अगर समय की कसौटी पर सही नहीं उतरी तब भी वे सम्मानीय हैं क्योंकि उन्होंने अपने समय की जरुरत के हिसाब से उसे लिखा था।
इसी तर्क से मनुस्मृति लिखने वाले या लिखने वालों को सम्मान क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? उन्होंने यह रास्ता दिखाया कि समाज को संचालित और नियंत्रित करने के लिए एक संहिता की जरुरत है, क्या इसके लिए वे सम्मान के पात्र नहीं हैं? इस ग्रंथ में कई बातें मानवाधिकार, स्त्री अधिकार, बाल अधिकार आदि की अवधारणा के अनुकूल नहीं हैं या विरोधाभासी हैं। लेकिन ये अवधारणाएं तो एक सदी पुरानी भी नहीं हैं। इनकी कसौटी बना कर करीब दो सहस्त्राब्दी पहले लिखे गए ग्रंथ का आकलन कैसे किया जा सकता है?
हम्मूराबी की संहिता में भी सैकड़ों ऐसी चीजें हैं, जो आधुनिक अवधारणों की कसौटी पर बहुत खराब हैं। लेकिन इस आधार पर तो हम्मूराबी संहिता लिखने वाले को गाली नहीं दी जाती है। फिर मनुस्मृति लिखने वाले या लिखने वालों को गाली देने का क्या मतलब है? इनके लेखकों ने दुनिया को रास्ता दिखाया है। इन दोनों ग्रंथों का मानव सभ्यता के इतिहास में वही स्थान है, जो आग और पहिए के आविष्कार का है। सोचें, हमारे पूर्वजों ने कैसे पत्थरों को आड़ा तिरछा काट कर पहला पहिया बनाया था और आज हम मिशेलिन टायर्स बना रहे हैं तो क्या हम अपने पूर्वजों को गाली देते हैं कि उन्होंने कैसा पहिया बनाया था?
आज आग जलाने के दर्जनों फैंसी तरीके उपलब्ध हैं लेकिन क्या हम पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा करने वाले अपने पूर्वजों को गाली देते हैं? आज आंख के निर्देश पर चलने वाले फोन बन गए तो क्या हम अलेक्जेंडर ग्राहम बेल को गाली दें कि उन्होंने कैसा फोन बनाया था! लेकिन भारत ऐसे कृतघ्न लोगों का देश है, जो छोटे छोटे राजनीतिक फायदे के लिए अपने महान पूर्वजों का अपमान करने में भी नहीं हिचकता है।
मनुस्मृति को लेकर जो दुराग्रह है और उसको जिस तरह से प्रकट किया जाता है उसके पीछे विशुद्ध राजनीतिक मकसद है। असल में कांग्रेस इससे पहले कभी 10 साल तक सत्ता से बाहर नहीं रही है। सो, उसकी बेचैनी बढ़ रही है। तभी उसके नेता सत्ता के लालच में एक प्राचीन ग्रंथ को आधार बना कर सामाजिक विभाजन बढ़ा रहे हैं। जिन लोगों ने मनस्मृति का एक अक्षर नहीं पढ़ा वे इसको गालियां दे रहे हैं और इसको संविधान के बरक्स रख रहे हैं। इस तरह से वे दोनों ग्रंथों का अपमान कर रहे हैं।
राहुल गांधी सारे समय महात्मा गांधी की बात करते रहते हैं लेकिन उन्होंने मनुस्मृति के बारे में गांधी के विचारों को भी नहीं पढ़ा है। गांधी ने बार बार कहा कि इसे गाली देने या जलाने की जरुरत नहीं है। वे कहते थे कि इसकी अच्छी बातों को अपना लो और बुरी बातों को छोड़ दो। लेकिन यह काम तो वह करेगा, जो सत्ता के लोभ में अंधा नहीं हुआ हो।