भारतीय रिजर्व बैंक के नए गवर्नर संजय मल्होत्रा ने कामकाज संभाल लिया है। उनको भी उसी तरह वित्त मंत्रालय का अनुभव है, जैसे उनके पूर्ववर्ती शक्तिकांत दास को था। उन्होंने छह साल तक केंद्रीय बैंक के प्रमुख का पद संभाला। उनसे पहले उर्जित पटेल गवर्नर थे। इन दोनों का कार्यकाल बहुत उतार चढ़ाव का रहा। उर्जित पटेल के समय नोटबंदी हुई थी। सरकार ने 2016 के नवंबर में पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए थे। इस तरह एक झटके में देश की 85 फीसदी मुद्रा अवैध हो गई थी। उस झटके से उबरने में अर्थव्यवस्था को बहुत समय लगा था। इसी तरह शक्तिकांत दास के कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा कोरोना महामारी में बीता। दोनों के कार्यकाल में यानी पिछले आठ साल में यह संकट बना रहा कि महंगाई काबू में करते हैं तो ब्याज दर को ऊंचा रखना पड़ रहा है और उसकी वजह से विकास दर में तेजी नहीं आ रही है। अंत में स्थिति यह है कि न खुदा मिला न विसाले सनम। महंगाई पर तो काबू नहीं ही पाया जा सका, विकास दर भी गिर रही है और भारतीय मुद्रा यानी रुपया ऐतिहासिक गिरावट पर है। एक डॉलर की कीमत 85 रुपए तक पहुंच गई है।
तभी केंद्रीय बैंक के नए गवर्नर संजय मल्होत्रा के सामने ज्यादा बड़ी चुनौतियां हैं। उनके कमान संभालने से ठीक पहले दिसंबर के पहले हफ्ते में रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति यानी एमसीपी ने अपनी दोमासिक समीक्षा बैठक में नीतिगत ब्याज दरों में कटौती नहीं की और उसे साढ़े छह फीसदी पर स्थिर रखने का फैसला किया महंगाई की चिंता में एमपीसी ने यह फैसला किया। उनके सामने अक्टूबर की खुदरा महंगाई का आंकड़ा था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर 6.21 फीसदी पहुंच गई थी, जो उससे पहले सितंबर में 5.49 थी। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने महंगाई दर की अधिकतम सीमा छह फीसदी रखी है। आगे महंगाई और बढ़ने की संभावना है। खास कर खाने पीने की चीजों की महंगाई रिकॉर्ड तेजी से बढ़ रही है। तभी रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती नहीं की। परंतु बीच का रास्ता निकालते हुए कैश रिजर्व रेशो यानी सीआरआर में कटौती करके उसे चार फीसदी कर दिया। सीआरआर में आधा फीसदी की कटौती से बैंकों के पास नकदी की उपलब्धता बढ़ेगी और उनको कर्ज देने में आसानी होगी।
रिजर्व बैंक के नए गवर्नर से उम्मीद की जा रही है कि वे ब्याज दरों में कटौती करेंगे क्योंकि सरकार की चिंता विकास दर बढ़ाने की है। इस महीने मौद्रिक नीति समिति की बैठक से पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ब्याज दरों में कटौती की जरुरत बताई थी और उनसे पहले वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने भी कहा था कि ब्याज दरों में कमी की जानी चाहिए। दोनों केंद्रीय मंत्रियों का मानना है कि ऊंची ब्याज दर यानी साढ़े छह फीसदी की दर भारी पड़ रही है। लोगों को उधार लेना महंगा पड़ रहा है, जिससे विकास की गतिविधियां धीमी पड़ रही हैं। उनकी बात के समर्थन में वित्त वर्ष 2024-25 की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर की विकास दर का हवाला दिया जा सकता है। दूसरी तिमाही में विकास दर 5.4 फीसदी रही। यह इससे पहले की सात तिमाहियों में सबसे कम है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर 6.7 फीसदी रही थी। दूसरी तिमाही में कमी आने के बाद एक एक करके देशी और वैश्विक एजेंसियों ने भारत के विकास दर के अनुमानों में संशोधन शुरू कर दिया है। एशियाई विकास बैंक यानी एडीबी ने विकास दर का अनुमान सात से घटा कर साढ़े छह फीसदी कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसी मॉर्गन स्टेनली ने विकास दर का अनुमान 6.7 से घटा कर 6.3 फीसदी कर दिया है। भारतीय स्टेट बैंक ने विकास दर का अनुमान 7.2 से घटा कर 6.6 फीसदी कर दिया है और साथ ही महंगाई का अनुमान 4.5 से बढ़ा कर 4.8 फीसदी कर दिया है।
इसका मतलब है कि चालू वित्त वर्ष में और उसके आगे भी महंगाई में कमी नहीं आने वाली है और अगर महंगाई में कमी नहीं आती है तो रिजर्व बैंक की एमपीसी के लिए ब्याज दरों में कटौती करना आसान नहीं होगा। एक तरफ महंगाई का संकट है तो दूसरी ओर विकास दर को ऊपर उठाने की चुनौती है। इसके बीच भारतीय मुद्रा की कीमत लगातार गिर रही है। कहा जा रहा है कि अगले साल इसमें और गिरावट होगी क्योंकि अमेरिकी डॉलर वैश्विक स्थितियों के कारण ज्यादा मजबूत होता जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक अगले साल डॉलर की कीमत साढ़े 86 रुपए तक जा सकती है। सो, जाहिर है कि रिजर्व बैंक के नए गवर्नर को देश की मौद्रिक नीतियों में बहुत फूंक फूंक कर कदम उठाने होंगे। उनसे यह तो न्यूनतम उम्मीद है ही कि वे केंद्र सरकार के दबाव में नहीं आएंगे और विकास दर बढ़ाने की चिंता में ब्याज दरों में कटौती नहीं करेंगे। ध्यान रहे ब्याज दर का अर्थव्यवस्था को संभालने में बड़ा योगदान होता है और सबने देखा है कि डी सुब्बाराव ने 2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकट के समय गवर्नर का पद संभालते ही कैसे ब्याज दरों में कटौती शुरू की थी और उसे साढ़े तीन फीसदी तक ले गए थे। परंतु तब की स्थितियां अलग थीं।
आज भारत की अर्थव्यवस्था का संकट आपूर्ति यानी सप्लाई साइड का नहीं है, जबकि ब्याज दर घटाने का जो समाधान है वह सप्लाई साइड को ठीक करने के लिए होता है। भारत का संकट मांग यानी डिमांड साइड का है। भारत में मांग लगातार कम होती जा रही है, जिसका चौतरफा असर अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है। मांग में कमी की वजह से अर्थव्यवस्था में सुस्ती दिख रही है और विकास दर का आंकड़ा नीचे आया है। त्योहारी सीजन में यानी अक्टूबर के महीने में भी वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी का आंकड़ा पुराने रिकॉर्ड नहीं तोड़ सका तो इसका कारण मांग में कमी है। इसके बावजूद अगर जीएसटी का संग्रह एक लाख 80 हजार करोड़ रुपए से ऊपर गया तो उसका कारण महंगाई है, जिसकी मार गरीबों और निम्न मध्य वर्ग के लोगों पर भारी पड़ रही है।
मांग की कमी के कारण लगभग हर क्षेत्र में गतिविधियां कम हो रही हैं। नेस्ले इंडिया के प्रमुख ने पिछले दिनों इस बारे में बहुत विस्तार से बताया था कि कैसे सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं की मांग कम हो रही है। सबसे तेजी से बढ़ने वाले एफएमसीजी सेक्टर में मांग कम हो रही है। सस्ती कारों की बिक्री घट रही है। प्रमुख बुनियादी उद्योगों यानी कोर सेक्टर के उद्योगों में भी विकास की गति धीमी पड़ रही है। विनिर्माण सेक्टर में बड़ी सुस्ती दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मांग की कमी के चलते भारत का निर्यात प्रभावित हो रहा है। रोजगार का संकट मांग की कमी को और बढ़ा रहा है। जाहिर है अर्थव्यवस्था की मुश्किल के कई आयाम हैं और इसलिए रिजर्व बैंक के नए गवर्नर पर ब्याज दर में कटौती के लिए गैरजरूरी दबाव बनाने से कुछ हासिल नहीं होना है। ब्याज दर अर्थव्यवस्था में तेजी लौटाने के कई तरीकों में से एक तरीका है। उसे अंतिम और सबसे कारगर तरीका नहीं माना जा सकता है। इसे बाकी दूसरे तरीकों के साथ आजमाया जाएगा तभी यह तरीका भी असरदार होगा।