पिछले हफ्ते दो खबरें आईं, जिन पर मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं हुई। परंतु दोनों खबरें ऐसी हैं, जिनसे भारत की अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था और व्यापक रूप से राजनीति के क्षेत्र में भी कुछ सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगी है। पहली खबर 16वें वित्त आयोग के अध्यक्ष और दुनिया के मशहूर अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया के बयान की थी, जिसमें उन्होंने यह सवाल उठाया था कि देश के नागरिकों को बेहतर सुविधाएं चाहिए या ‘मुफ्त की रेवड़ी’। यह बहुत बड़ा सवाल है, जिसके जवाब पर देश का भविष्य टिका है।
दूसरी खबर उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान की थी, जिन्होंने सरकारी सेवाओं में काम कर रहे लोगों को एक के बाद एक मिलने वाले सेवा विस्तार पर सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था कि लोगों को लगातार सेवा विस्तार मिलना अच्छी बात नहीं है क्योंकि इससे कतार में पीछे खड़े लोगों के अवसर समाप्त होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे प्रतिभाशाली लोगों का अवसर इससे छिन जाता है। इन दोनों बातों पर विस्तार से चर्चा की जरुरत है।
आज के समय में देश के सामने सबसे बड़ा सवाल बेहतर सेवाओं और बुनियादी ढांचे के विकास का है, जिससे लोगों का जीवन बेहतर हो और देश की अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरे। लेकिन इसकी बजाय राजनीतिक विमर्श ‘मुफ्त की रेवड़ी’ पर केंद्रित हो गया है। इस समय राजधानी दिल्ली में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं लेकिन इस चुनाव में कहीं भी दिल्ली की और राजधानी में रहने वाले दो करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ी बुनियादी समस्याओं की चर्चा नहीं है। दिल्ली में हवा और पानी के प्रदूषण, ट्रैफिक की समस्या, सड़कों व नालियों की सफाई, यमुना की गंदगी जैसी बातों की चर्चा नहीं है। मुख्य मुद्दा यह बना हुआ है कि कौन ज्यादा से ज्यादा मुफ्त की चीजें और सेवाएं दे सकता है। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त बस पास जैसे वादों पर चुनाव लड़ा जा रहा है। हर पार्टी दिल्ली की जनता को भरोसा दिला रही है कि वह जीती तो मुफ्त की चीजें और सेवाएं मिलती रहेंगी। सब इस बात का वादा भी कर रहे हैं कि वे जीते तो महिलाओं को नकद पैसे देंगे।
महिलाओं को नकद पैसे देने का मामला कैसे राज्यों के गले की फांस बन रहा है, यह महाराष्ट्र और झारखंड में देखने को मिल रहा है। महाराष्ट्र में पिछले साल विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन एकनाथ शिंदे सरकार ने महिलाओं को माझी लड़की बहिन योजना के तहत डेढ़ हजार रुपए देना शुरू किया और वादा किया कि फिर चुनाव जीते तो 21 सौ रुपया महीना देंगे। जब सरकार डेढ़ हजार रुपया दे रही थी तो उसका सालाना खर्च 46 हजार करोड़ रुपए का था, जो अब बढ़ कर 63 हजार करोड़ रुपए का हो गया है। इस अतिरिक्त खर्च का पहला असर यह हुआ है कि सरकार किसानों से किया गया वादा पूरा नहीं कर पा रही है।
पहले ही केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि इस योजना की वजह से दूसरी योजनाओं की सब्सिडी रूकेगी। झारखंड सरकार मइया सम्मान योजना के तहत ढाई हजार रुपए दे रही है। उसका महीने का खर्च करीब डेढ़ हजार करोड़ है यानी सालाना खर्च 18 हजार करोड़ रुपए का होगा। सोचें, सरकार का कुल बजट एक लाख 30 हजार करोड़ रुपए का है, जिसका 15 फीसदी सिर्फ मइया सम्मान योजना पर खर्च हो जाएगा। बाकी पैसा वेतन, भत्ते, पेंशन और ब्याज के भुगतान में चला जाएगा। कमोबेश यह स्थिति हर राज्य की होने वाली है। महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार करोड़ रुपए देने के लिए सरकार हर विभाग से पैसा सरेंडर करा रही है।
तभी अरविंद पनगढ़िया ने जो सवाल उठाया है उस पर गंभीरता से विचार की जरुरत है। भारत की अर्थव्यवस्था कोई अच्छी स्थिति में नहीं है। चालू वित्त वर्ष में विकास दर 6.4 फीसदी रहने की संभावना है, जो चार साल में सबसे कम है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पिछले पिछले एक महीने में 70 अरब डॉलर घट गया है। भारतीय मुद्रा यानी रुपए की कीमत लगातार गिर रही है और आज एक डॉलर की कीमत 87 रुपए के करीब पहुंच गई है। महंगाई दर लगातार पांच फीसदी से ऊपर है, जिसकी वजह से रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी नहीं कर पा रहा है। भू राजनीतिक स्थितियों के कारण कच्चा तेल महंगा हो रहा है, जिससे अलग दबाव बढ़ रहा है। बैंकों में जमा घट रहा है और कर्ज बढ़ रहा है। गोल्ड लोन एनपीए होने की दर 50 फीसदी से ऊपर पहुंच गई है। ऐसी स्थिति में मुफ्त की रेवड़ी बांटने की होड़ देश और राज्यों की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा देगी। यह भी तय है कि बुनियादी ढांचे का विकास थम जाएगा और आम लोगों को बेहतर जीवन स्तर हासिल होने की संभावना समाप्त हो जाएगी।
वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था इस सिद्धांत पर चल रही है कि ऊपर की 10 फीसदी आबादी को आर्थिक रूप से मजबूत करो और बाकी 90 फीसदी आबादी को मुफ्त की रेवड़ी बांट कर उलझाए रखो। इस तरह से अर्थव्यवस्था का संचालन सरकारों के लिए सबसे आसान काम है। उन्हें कुछ भी नया सोचने या करने की जरुरत नहीं है। सरकारें टैक्स व नॉन टैक्स रेवेन्यू का एक हिस्सा मुफ्त की रेवड़ी पर खर्च करेंगी और बाकी हिस्से का इस्तेमाल सरकारी कर्मचारियों को वेतन, भत्ता, पेंशन और कर्ज का ब्याज चुकाने में करेंगी। उसके बाद अगर थोड़ा बहुत पैसा बचता है तो उसका इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर सड़क, फ्लाईओवर या हवाईअड्डा व रेलवे स्टेशन बनाने पर खर्च किया जाएगा।
यह ऐसा खर्च है, जिससे विनिर्माण सेक्टर के मजदूरों को कुछ रोजगार मिलेगा। क्वालिटी रोजगार में बढ़ोतरी नहीं होगी और रोजगार की बहुत सीमित संभावना पैदा होगी। बुनियादी ढांचे का निवेश भी दिशाहीन हो गया है लेकिन वह एक अलग समस्या है। अभी तत्काल सभी पार्टियों को मिल कर इस बात पर विचार करना चाहिए कि मुफ्त की रेवड़ी बांट कर वह नागरिकों का भला कर रही है या दीर्घकाल के लिए उनका नुकसान कर रही है? उम्मीद करनी चाहिए कि पनगढ़िया के बयान से इस पर सकारात्मक चर्चा शुरू होगी।
दूसरी बड़ी बात उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की है। उन्होंने सेवा विस्तार के सिद्धांत पर सवाल उठाया और कहा कहा कि, ‘सेवा विस्तार से पता चलता है कि कुछ व्यक्ति अपरिहार्य हैं। अपरिहार्यता एक मिथक है। इस देश में प्रतिभाओं की भरमार है। कोई भी अपरिहार्य नहीं है। और इसलिए, यह राज्य और केंद्रीय स्तर पर लोक सेवा आयोगों के अधिकार क्षेत्र में है कि जब ऐसी परिस्थितियों में उनकी भूमिका हो, तो उन्हें दृढ़ रहना चाहिए’। उन्होंने यह भी कहा कि लोक सेवा आयोगों की नियुक्तियां संरक्षण या पक्षपात से प्रेरित नहीं हो सकतीं। धनखड़ ने कहा, ‘हम लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य को किसी खास विचारधारा या व्यक्ति से जुड़ा हुआ नहीं रख सकते। यह संविधान के ढांचे के सार और भावना को नष्ट करना होगा’।
उप राष्ट्रपति ने सेवानिवृत्ति के बाद की भर्ती पर भी नाराजगी जताई और कहा कि यह संविधान निर्माताओं द्वारा कल्पना की गई बातों के विपरीत है। उन्होंने कहा, ‘कुछ राज्यों में, इसे संरक्षित किया गया है। कर्मचारी कभी सेवानिवृत्त नहीं होते, खासकर प्रीमियम सेवाओं में। उन्हें कई तदर्थ नाम मिलते हैं। यह अच्छा नहीं है। देश में हर किसी को हक मिलना चाहिए और वह हक कानून द्वारा परिभाषित किया जाना चाहिए’। उप राष्ट्रपति की इन बातों पर केंद्र सरकार और सभी राज्यों की सरकारों को तत्काल अमल शुरू करना चाहिए।
उप राष्ट्रपति का कहना था कि सेवा विस्तार और रिटायर होने के बाद रोजगार देने से योग्य और प्रतिभाशाली लोगों की कमी होती है और कतार में खड़े लोगों का अवसर छिन जाता है। यह बहुत बड़ी बात इसलिए है क्योंकि अभी तक केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सेवा विस्तार की सरकार ही कही जा रही थी। चार बार के सेवा विस्तार के बाद गृह सचिव पद से रिटायर हुए अजय भल्ला मणिपुर के राज्यपाल बनाए गए हैं। चार बार के सेवा विस्तार के बाद कैबिनेट सचिव पद से राजीव गौबा रिटायर हुए हैं। प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के पद से संजय मिश्रा को रिटायर कराने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। तीन तीन साल का दो कार्यकाल पूरा करके रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से शक्तिकांत दास रिटायर हुए हैं।
क्या यह संयोग है कि उप राष्ट्रपति ने ऐसे समय यह बात कही है, जब खुद केंद्र सरकार सेवा विस्तार पाए अधिकारियों को रिटायर कर रही है? एक खबर के मुताबिक केंद्र सरकार ने एनटीआरओ के प्रमुख के पद पर सेवा में कार्यरत अधिकारी को नियुक्त करने का फैसला किया है, जबकि कई रिटायर अधिकारी इस पद के दावेदार बताए जा रहे थे। सो, ऐसा लग रहा है कि सरकार सेवा विस्तार की नीति और रिटायर अधिकारियों को अहम जिम्मेदारी देने की नीति बदल रही है। यह बदलाव होता है तो अच्छा होगा।