Delhi Election 2025: लोकतंत्र की अनेक परिभाषाओं में एक परिभाषा यह है कि, ‘इसमें जनता को अधिकतम भ्रम दिया जाता है और न्यूनतम अधिकार दिए जाते हैं’।
आधुनिक समय में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सरकारों के गठन में जनता को भ्रम देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और अधिकार की छोड़िए, उसकी भागीदारी भी लगातार कम होती जा रही है।
भागीदारी को सिर्फ मतदान प्रतिशत के नजरिए से नहीं देखा जा सकता है। मतदान प्रतिशत तो अलग अलग कारणों से बढ़ रहा है लेकिन जनता की भागीदारी घटती जा रही है।(Delhi Election 2025)
अब लोग स्वतःस्फूर्त तरीके से राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा नहीं बनते हैं। राजनीतिक दल कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा कर पाते हैं और इससे भी राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी कम हुई है।
चुनावों के समय रैलियों और रोड शो में जो भीड़ दिखाई देती है उसमें से ज्यादातर लोग भाड़े पर लाए गए होते हैं। किसी प्रतिबद्धता के तहत लोगों का रैलियों में शामिल होना दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है।
इसी तरह चुनावों में मुद्दे भी ऐसे उठाए जा रहे हैं, जिनका जनता से सीधा सरोकार नहीं होता है।
इस बात को ऐसे कह सकते हैं कि मुद्दे जनता के बीच से या जनता की पसंद के नहीं होते हैं, बल्कि पार्टियां मुद्दे तय कर रही हैं और उसी पर चुनाव लड़े जा रहे हैं।
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यहां भी जनता को भ्रम देने का खेल कितना बढ़ गया है इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि पार्टियां हर बार घोषणापत्र या संकल्प पत्र जारी करते हुए कहती हैं कि इतने दर्जन समूहों के साथ संवाद किया गया है, इतनी संख्या में मुद्दों पर चर्चा हुई और इतनी संख्या में लोग चर्चा में शामिल हुए, जिनकी राय के आधार पर घोषणापत्र तैयार किया गया है।
यह अलग बात है कि जिन समूहों के साथ बैठकें होती हैं वो सारे समूह पार्टियों के लोगों द्वारा ही संचालित होते हैं। उनमें जो लोग आते हैं वे भी पार्टियों द्वारा ही लाए जाते हैं और जिन मुद्दों पर चर्चा होती है वे भी पार्टियों द्वारा ही चुने गए होते हैं।
लेकिन लोगों को ऐसा भ्रम दिया जाता है, जैसे उन्होंने अपनी पसंद से मुद्दे चुने हैं। असल में वो जनता के मुद्दे नहीं होते हैं, बल्कि पार्टियों के ‘सर्वज्ञानी’ नेताओं के चुने गए मुद्दे होते हैं।(Delhi Election 2025)
नेताओं को लगता है कि जनता भेड़, बकरी है और वह अपना हित नहीं समझ सकती है। इसलिए जनता का हित किस बात में है यह तय करने का दैविक अधिकार उनको मिला हुआ है। तभी यह उनका परम पुनीत कर्तव्य है कि वे जनता के लिए मुद्दे तय करें।
संविधान खतरे में
अगर इस सैद्धांतिक बात को व्यावहारिक राजनीतिक अनुभव में देखना हो तो अभी पार्टियों की ओर से जोर शोर से प्रचारित किए जा रहे मुद्दों को देखा जा सकता है।
सोचें, कहां की जनता ने तय किया कि चुनाव में संविधान की रक्षा करना सबसे बड़ा मुद्दा होगा? यह किस राज्य की या किस वर्ग के नागरिक का चुना हुआ मुद्दा है?
कहीं पर जनता में इस बात को लेकर कोई चिंता या आक्रोश नहीं था कि संविधान खतरे में है और उसे बचाना है।(Delhi Election 2025)
लेकिन मुद्दों की तलाश में भटक रही देश की मुख्य विपक्षी पार्टी को लगा कि इसे जनता का मुद्दा बनाया जा सकता है तो उसने इसे मुद्दा बना दिया।
उसके नेता राहुल गांधी संविधान हाथ में लेकर घूमने लगे और उस पर आए काल्पनिक खतरे के आधार पर चुनाव लड़ गए।
देश में जनगणना नहीं हो रही(Delhi Election 2025)
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जो फायदा हुआ वह कई कारणों के मिले जुले असर से हुआ लेकिन प्रचारित यह किया गया कि संविधान बचाने का मुद्दा कारगर रहा है।
ऐसे ही यह कोई नहीं बता सकता है कि देश के किस हिस्से की जनता ने कहा कि जातिगत गणना कराना उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है।
ध्यान नहीं आता है कि कहीं इसके लिए जन आंदोलन हुआ या लोगों ने कहा कि जातिगत गणना नहीं कराई गई तो उनका जीवन नरक हो रहा है।
लेकिन जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों ने इसे भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा विमर्श बना दिया। सोचें, देश में जनगणना नहीं हो रही है।(Delhi Election 2025)
2021 में जो जनगणना होनी थी उसकी सुगबुगाहट नहीं है लेकिन किसी विपक्षी पार्टी ने इसे मुद्दा नहीं बनाया है। उसका मुद्दा जाति आधारित गणना का है।
संविधान बचाओ, जातिगत गणना कराओ
संविधान बचाओ, जातिगत गणना कराओ और आरक्षण बढ़ाओ आदि जो भी मुद्दे हैं वो पार्टियों के तय किए हुए मुद्दें हैं। इन्हें जनता ने तय नहीं किया है। ऐसे मुद्दों की अंतहीन सूची बनाई जा सकती है।
जनता ने नहीं कहा था कि उसे ‘मुफ्त की रेवड़ी’ चाहिए। यह भी पार्टियों की देन है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने 2013 में यह कह कर चुनाव लड़ा कि जीते तो लोकपाल बनाएंगे।(Delhi Election 2025)
हालांकि उसके लिए भी जनता ने नहीं कहा था। फिर केजरीवाल ने 2015 के चुनाव से पहले मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी का वादा करके चुनाव लड़ा।
उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। अब सारी पार्टियों के थिंकटैंक का सारा समय इस बात में जाता है कि कौन सी वस्तु या कौन सी सेवा मुफ्त में दी जा सकती है और उसकी योजना का नाम क्या रखा जाए!
हकीकत यह है कि देश में कही भी नागरिकों ने मुफ्त की वस्तुओं और सेवाओं के आंदोलन नहीं किया था।
सो, आज की तारीख में राष्ट्रीय स्तर पर या राज्य स्तर पर जितने भी चुनावी मुद्दे दिख रहे हैं उनमें से कोई भी मुद्दा जनता का उठाया हुआ नहीं है।
सारे मुद्दे पार्टियों ने अपनी सुविधा के लिए तय किए हैं और नागरिकों को बता रही हैं कि ये उनके मुद्दे हैं।
पार्टियों को इसका क्या फायदा(Delhi Election 2025)
सवाल है कि पार्टियों को इसका क्या फायदा है? पार्टियों को इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे असली मुद्दों पर उनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती है।
उलटे जनता के असली मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। आजादी के बाद की सारी सरकारें जनता से जुड़े मुद्दों पर नाकाम रही हैं। इसलिए चुनाव दर चुनाव यह प्रयास किया जाता है कि जनता के मुद्दे सामने न आ पाएं।
मिसाल के तौर पर दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और उसमें तीन मुख्य पार्टियां जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं उनको देखा जा सकता है।
दिल्ली के लोगों के जीवन से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या पीने के साफ पानी की है। लगभग पूरे साल किसी न किसी वजह से पानी की आपूर्ति बाधित रहती है और सरकार की ओर से सप्लाई किए जा रहे पानी की क्वालिटी ऐसी नहीं होती है कि लोग उसे बिना फिल्टर किए पी सकें।
लेकिन यह किसी पार्टी का मुद्दा नहीं है। ऐसे ही दिल्ली के लोगों का मुद्दा साफ हवा का है। प्रदूषण से लोगों का दम घुटता है। लेकिन किसी पार्टी का सरोकार वायु प्रदूषण दूर करना नहीं है।(Delhi Election 2025)
दिल्ली के और देश के लोगों का सरोकार महंगाई को लेकर है। लगातार बढ़ती कीमतों से लोगों का जीना दूभर हो रहा है। लेकिन कहीं महंगाई को लेकर कोई चर्चा नहीं है।
समस्या नौकरी और रोजगार की
दिल्ली और देश के लोगों की समस्या नौकरी और रोजगार की है। लेकिन इस पर कोई चर्चा नहीं है। शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार प्राथमिक जरुरत है लेकिन पार्टियां नए स्कूल, कॉलेज या अस्पताल बनाने के बारे में बात नहीं करती हैं।
असल में जनता के सरोकार वाले जो मुद्दे हैं उसके लिए संरचनागत बदलाव की जरुरत होगी। उसके लिए विजन और दीर्घावधि के संकल्प की जरुरत होगी, जिसकी नेताओं में घनघोर कमी है।(Delhi Election 2025)
दूसरी ओर जो मुद्दे पार्टियां खुद तय करती हैं उसे पूरा कर देना बहुत आसान होता है। जनता के टैक्स के पैसे का एक हिस्सा उसे नकद या सेवाओं व वस्तुओं के रूप में बांट देना सबसे आसान काम है।
लेकिन इसका इस्तेमाल करके संरचनागत सुधार करना ताकि नागरिकों को सम्मान का जीवन हासिल हो सके, मुश्किल काम है। सो, पार्टियां क्यों मुश्किल काम करेंगी, अगर उनको आसान काम से वोट मिल रहे हैं!