राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

संविधान का मुख्य चुनावी मुद्दा बन जाना

लोकसभा चुनाव 2024 की शुरुआत में क्या किसी ने सोचा था कि इस बार का लोकसभा चुनाव संविधान बचाने के नाम पर होगा? विपक्ष की जो पार्टियां संविधान बचाने के नाम पर चुनाव लड़ रही हैं उन्होंने भी नहीं सोचा था। तभी पहले चरण के मतदान से पहले प्रचार में संविधान का जिक्र नहीं था। दूसरे चरण से संविधान का जिक्र शुरू हुआ और तीसरे चरण से राहुल गांधी ने हाथ में संविधान लेकर मंच से भाषण करना शुरू किया। भाजपा के लिए यह अचंभित करने वाली बात थी। उसको लग रहा था कि विपक्ष के पास न कोई नेता है और न कोई मुद्दा है।

वह नरेंद्र मोदी को निशाना बना कर चुनाव लड़ेगी और उस लड़ाई में मोदी उनको हरा देंगे। तभी भाजपा ने भी चुनावी मुद्दों को लेकर या नैरेटिव को लेकर कोई तैयारी नहीं की। यहां तक कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का भी मुद्दा नहीं बनाया गया। पहले चरण के मतदान के बाद जब संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र बचाने का मुद्दा जोर पकड़ने लगा तब भाजपा ने इसका जवाब देना शुरू किया। लेकिन तब तक धारणा के स्तर पर उसे नुकसान हो चुका था। वह बैकफुट पर आ गई थी और पहली बार ऐसा हो रहा था कि कांग्रेस के तय किए एजेंडे पर भाजपा को जवाब देना पड़ रहा था।

सवाल है कि संविधान कैसे मुद्दा बन गया? इसके दो स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं। पहला, संविधान को लेकर भाजपा की सोच का इतिहास और दूसरा, सरकार बनाने के लिए ‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल फरवरी में संसद के अंदर भाषण देते हुए कहा कि उनकी सरकार ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त किया है तो लोग उनकी सरकार को 370 सीट का टीका यानी शगुन देंगे और एनडीए को चार सौ से ज्यादा सीटें मिलेंगी।

इसके बाद ‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा लगने लगा। विपक्षी पार्टियों के पास इसका जवाब नहीं था। विपक्ष बैकफुट पर था। ऐसा लगने लगा था कि देश में कहीं कोई लड़ाई नहीं है। भाजपा और एनडीए चार सौ सीट के लिए लड़ रहे हैं, जबकि सारी विपक्षी पार्टियां अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं। उस समय तक विपक्ष का गठबंधन भी नहीं बना था और नीतीश कुमार ‘इंडिया’ ब्लॉक छोड़ कर भाजपा के साथ चले गए थे।

तभी कर्नाटक भाजपा के एक फायरब्रांड नेता और पांच बार के सांसद अनंत हेगड़े का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि अबकी बार सरकार बनी तो भाजपा संविधान बदलेगी। इसी से विपक्षी पार्टियों ने एक अवसर निकाला और कहना शुरू कर दिया कि भाजपा को चार सौ सीट इसलिए चाहिए ताकि वह संविधान बदल सके। एक बार यह लाइन पकड़ने के बाद इसमें कई चीजें जुड़ती गईं। विपक्ष को पता था कि संविधान का मुद्दा उतना संवेदनशील नहीं है इसलिए उसने आरक्षण को इसके साथ जोड़ा।

यह कहा जाने लगा कि भाजपा चार सौ सीट के साथ आई तो वह संविधान बदल कर आरक्षण समाप्त कर देगी। इससे पहले कांग्रेस की ओर से कहा जा रहा था कि भाजपा इस बार जीती तो आगे से चुनाव नहीं होगा। लेकिन बाद में वह बात छोड़ दी गई और सारा फोकस संविधान और आरक्षण पर हो गया।

भाजपा का इतिहास भी ऐसा रहा है कि वह संविधान और आरक्षण दोनों की समीक्षा की बात करती रही है। अटल बिहारी वाजपेयी के समय संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया गया था और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी। हालांकि उसके बाद से भाजपा और संघ अनेक बार सफाई दे चुके हैं लेकिन लोगों के मन में कहीं न कहीं संशय बैठा हुआ है।

इस बार लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने लोगों के इस संशय को और प्रबल कर दिया। राहुल गांधी से लेकर तमाम दूसरे विपक्षी नेताओं ने संविधान और आरक्षण पर खतरे का इतना प्रचार किया कि वह खतरा वास्तविक लगने लगा। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा कि वे तो क्या अब बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर भी आ जाएं तो संविधान नहीं खत्म कर पाएंगे।

मोदी और भाजपा के तमाम स्पष्टीकरण के बावजूद देश के एक बड़े तबके में भाजपा की मंशा को लेकर संदेह बढ़ा। यह कहने की जरुरत नहीं है कि देश की व्यापक अनुसूचित जाति के लिए संविधान एक भावनात्मक दस्तावेज है। वे उसे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की थाती मानते हैं। उनको लगता है कि समाज में उनका सम्मानजनक स्थान संविधान की वजह से ही संभव है। जैस ही उनको लगा कि बाबा साहेब की विरासत छिन सकती है, वे अपेक्षाकृत ज्यादा एकजुट हो गए।

इसी तरह आरक्षण खत्म करने की बात ने पिछड़ी जातियों के साथ एससी और एसटी दोनों को एकजुट किया। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि एससी, एसटी और ओबीसी की ऐसी एकजुटता बन गई कि भाजपा को बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा। लेकिन कई राज्यों में इस एकजुटता ने भाजपा की हिंदुत्व और मोदी के नाम की लहर को समाप्त कर दिया या उसके असर को बहुत कम कर दिया। यही कारण रहा कि देश में न मोदी लहर दिखाई दी और न मंदिर की कोई लहर बन पाई।

हालांकि बाद में भाजपा की चेतना लौटी और उसने संविधान व आरक्षण पर खतरे की वजह से एससी, एसटी और ओबीसी जातियों का जो ध्रुवीकरण हो रहा था उसे हिंदू मुस्लिम के सांप्रदायिक नैरेटिव से काटने का प्रयास शुरू किया। तीसरे चरण के प्रचार से प्रधानमंत्री मोदी ने कहना शुरू किया कि अगर कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन की सरकार बनी तो वे एससी, एसटी और ओबीसी को संविधान के जरिए मिले आरक्षण को छीन कर मुसलमानों को दे देंगे।

इसके लिए आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय को मिलने वाले आरक्षण का जिक्र किया गया। संविधान और आरक्षण के मुद्दे की काट में प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिम आरक्षण को भाजपा के प्रचार का मुख्य मुद्दा बना दिया। वे अपनी हर सभा में कहने लगे कि उनके जिंदा रहते देश में धर्म के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं हो पाएगा। विपक्ष के आरक्षण बढ़ाने के दावे के बरक्स नरेंद्र मोदी की ओर से हिंदुओं के लिए आरक्षण बचाने का नैरेटिव आखिरी चार चरण में मुख्य चुनावी मुद्दा बना। हालांकि जमीनी स्तर पर किस नैरेटिव ने ज्यादा काम किया इसका पता चार जून को चलेगा लेकिन यह जरूर पता चल गया कि भाजपा का हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व का जो कोर मुद्दा है वह चुनाव जीतने का परफेक्ट फॉर्मूला नहीं है। उसमें भी कमियां हैं और विपक्ष उनका मुद्दा बना सकता है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *