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जाति गणना होगी और नई राजनीति भी!

अब ऐसा लग रहा है कि जाति जनगणना होने जा रही है। इसका सबसे बड़ा संकेत राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ओर से दिया गया, जिसके बारे में कहा जा रहा था कि वह इस विचार के सख्त खिलाफ है। केरल के पलक्कड में आरएसएस की अखिल भारतीय समन्वय बैठक के बाद उसके अखिल भारतीय प्रचार प्रभारी सुनील आंबेकर ने कहा कि जाति जनगणना समाज कल्याण के लिए जरूरी है।

उन्होंने कहा कि सरकार सिर्फ आंकड़े जुटाने के लिए जाति जनगणना करा सकती है लेकिन इसका राजनीतिक टूल के तौर पर इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। यह जातियों की गिनती को लगभग स्पष्ट समर्थन है। इस बैठक के पहले दिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी पलक्कड में मौजूद थे और उनकी संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात हुई। संघ और भाजपा के संबंधों पर लोकसभा चुनाव के दौरान नड्डा द्वारा दिए गए बयान के बाद यह संभवतः पहली सार्वजनिक मुलाकात थी।

पलक्कड की बैठक चूंकि संघ और उसके अनुषंगी संगठनों के बीच समन्वय को लेकर थी इसलिए यह मानने की पर्याप्त वजह है कि भाजपा के साथ समन्वय की वार्ता में जाति गणना को लेकर भी जरूर चर्चा हुई होगी। तभी यह माना जा सकता है कि इस मामले में संघ और भाजपा एक सैद्धांतिक बिंदु पर खड़े हैं कि समाज कल्याण के लिए और आंकड़े जुटाने के लिए जाति जनगणना होनी चाहिए।

सो, अगर जाति जनगणना होती है तो फिर उसके राजनीतिक इस्तेमाल को भी रोका नहीं जा सकेगा। जो पार्टियां जाति की राजनीति में माहिर हैं या जिन्होंने भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति की काट के तौर पर जाति की राजनीति को हवा दी है और जातीय जनगणना का मुद्दा बनाया है वे इस अवसर का अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश करेंगे।

भाजपा को इसका कितना लाभ मिलेगा यह नहीं कहा जा सकता है या हिंदुत्व की राजनीति पर इसका कितना असर होगा यह भी नहीं कहा जा सकता है परंतु इतना तय है कि इससे सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर कई नए मोर्चे खुलेंगे, जिन्हें संभालना आसान नहीं होगा।

जाति गिनती से पहले इस पर जैसी राजनीति हो रही है उसे देख कर ऐसा लग रहा है कि सामाजिक और राजनीतिक मामले में देश नब्बे के दशक में लौट रहा है। हो सकता है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद देश में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी या जितनी हिंसा हुई थी वैसी हिंसा अब नहीं हो लेकिन सामाजिक विभाजन बढ़ेगा और राजनीति में जातियों का इस्तेमाल भी बढ़ेगा। विकास और आकांक्षा की राजनीति नेपथ्य में जाएगी और हिंदुत्व की राजनीति को भी बहुत एडजस्ट करना होगा।

इसका कारण यह है कि जाति जनगणना की मांग कर रही कांग्रेस और उसकी दूसरी सहयोगी पार्टियां इस पर बहुत आक्रामक हैं। वे नया माइल स्टोन सेट करना चाहती हैं। वे मौजूदा राजनीतिक ढांचे को पूरी तरह से खत्म करना चाहती हैं। यह डिसरप्शन यानी व्यवस्था को थोड़ा बहुत हिला के उसे बदलने से आगे डिस्ट्रक्शन यानी मौजूदा व्यवस्था के विध्वंस की राजनीति है।

तभी न तो ऐसी राजनीति करने वाली पार्टियां सिर्फ जातियों की गिनती से संतुष्ट हो जाएंगी और न जातीय समूह संतुष्ट होंगे। जातियों के आंकड़े आने के बाद उसके अनुपात में आरक्षण बढ़ाने की मांग शुरू होगी। ध्यान रहे बिहार में ये दोनों काम एक साथ हुए थे। पहले जातियों की गिनती हुई और उनके आंकड़े सामने आने के बाद आबादी के अनुपात में ओबीसी, एससी और एसटी का आरक्षण बढ़ा कर 65 फीसदी कर दिया गया। ऊपर से 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों का है।

छत्तीसगढ़ और झारखंड की सरकारों ने पहले ही आरक्षण की सीमा 75 फीसदी से ऊपर पहुंचा दी। हालांकि बिहार के कानून को अदालत ने रोक दिया और छत्तीसगढ़ व झारखंड के कानून पर राज्यपाल ने ब्रेक लगा दी। परंतु जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने की मांग करने वाली सभी पार्टियां चाहती हैं कि तमिलनाडु की तरह उनके राज्यों में भी आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाए और केंद्र सरकार उनके कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाले ताकि अदालतें उस पर रोक नहीं लगा सकें।

बहरहाल, बताया जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में जनगणना की अधिसूचना जारी होगी और तीन साल की देरी से दस वार्षिक जनगणना शुरू होगी। इसमें जातियों की गिनती के लिए जाति का कॉलम जोड़ा जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो जातियों के आंकड़े सामने आने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठेगी।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा, लेफ्ट, राजद आदि जिस आक्रामक अंदाज में इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं, उसे देखते हुए यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भाजपा कुछ नहीं करेगी और उन पार्टियों को ओबीसी, एससी और एसटी का चैम्पियन बनने देगी। अगर भाजपा कुछ नहीं करती है तो परिसीमन, महिला आरक्षण, एक साथ चुनाव जैसे उसके सारे दांव विफल होंगे।

अगर भाजपा इस जाल में उलझती है और आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने का फैसला करती है तो उसके बाद निजी सेक्टर में आरक्षण की मांग उठेगी। यह मांग अभी से उठने लगी है। राहुल गांधी तो ‘मिस इंडिया’ की प्रतिस्पर्धा से लेकर टेलीविजन चैनलों के एंकर्स, फिल्मी कलाकारों और खेलों में भी आरक्षण की जरुरत बताने लगे हैं।

भाजपा को भी जाति राजनीति से आपत्ति नहीं है लेकिन वह वहीं तक जातियों की राजनीति करना चाहती है, जहां तक हिंदुत्व का उसका बड़ा कैनवस बिखरे नहीं। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा ने अनेक अत्यंत पिछड़ी और दलित जातियों को सामाजिक स्तर पर जाग्रत करके उनकी संख्या को अपनी राजनीतिक पूंजी में बदला है। इसलिए वह भी इस मौके का भरपूर इस्तेमाल करने का प्रयास करेगी।

इसके साथ ही जातियों के अंदर वर्गीकरण का मुद्दा भी जोर पकड़ेगा। बिहार में बड़ी होशियारी से कुछ जातियों को एक होमोजेनस जाति की तरह गिना गया, जबकि कुछ जातियों की उपजातियों को अलग अलग गिना गया। यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर जनगणना में जब जातियां गिनी जाएंगी, तब उसमें उपजातियों की गिनती होती है या नहीं। क्योंकि अब ऐसी जातियां भी जागरूक हो रही हैं, जो दशकों से मिल रहे आरक्षण के बावजूद उसके लाभ से पूरी तरह से वंचित रही हैं।

जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कोई साढ़े नौ सौ जातियों के बारे में बताया है, जिनको आरक्षण का आज तक कोई लाभ नहीं मिला है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में भी वर्गीकरण का फैसला सुना दिया है। इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन हुए हैं और समीक्षा याचिका दायर की गई है।

लेकिन बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की मांझी जाति से लेकर पंजाब के वाल्मिकी और तेलंगाना के मडिगा तक अनेक जातियां इसका समर्थन कर रही हैं। सो, जाति गिनती के बाद ओबीसी, एससी और एसटी सबके आरक्षण में वर्गीकरण का मोर्चा खुलेगा। कह सकते हैं कि एक साथ कई मोर्चे खुलेंगे, जिन्हें संभालना आसान नहीं होगा।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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