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राज्यों की आर्थिक सेहत का बड़ा सवाल

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चुनावों में ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने के चलन को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई है। दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस एसएन ढींगरा ने जनहित याचिका दायर की है, जिसमें दो बातों पर अदालत से आदेश देने की मांग की गई है। पहली बात तो यह है कि आम नागरिकों से अवैध तरीके से उनका निजी और चुनावी डाटा हासिल करने और किसी तीसरे पक्ष के साथ उसे साझा करने से रोका जाए और दूसरी बात यह है कि ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने के कदाचार पर रोक लगाई जाए। यह याचिका बहुत सही समय पर दायर की गई है। इस समय पूरे देश में इस बात पर चर्चा शुरू हो गई है कि मुफ्त में ढेर सारी वस्तुएं और सेवाएं बांटने की राजनीति देश की अर्थव्यवस्था को कंगाली की ओर ले जा रही है। यह विषय इस वजह से भी प्रासंगिक हुआ है कि आम बजट से देश और राज्यों की सेहत की तस्वीर भी सामने आई है और इस समय 16वें वित्त आयोग की टीम राज्यों का दौरा कर रही है, जिससे करों में हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग हर राज्य कर रहे हैं। इन सभी पहलुओं की रोशनी में यह दिख रहा है कि देश और राज्यों की आर्थिक सेहत का सवाल सबसे गंभीर होता जा रहा है।

इस बात को कई आंकड़ों के जरिए समझा जा सकता है। परंतु सबसे सटीक आंकड़ा देश और अलग अलग राज्यों के ऊपर बढ़ते कर्ज का है। भारत पर कर्ज कितना बढ़ता जा रहा है इसे बजट के इस आंकड़े से समझा जा सकता है कि 50 लाख करोड़ से थोड़ा ज्यादा के बजट में 12 लाख करोड़ रुपए कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च होगा यानी कुल बजट का एक चौथाई हिस्सा ब्याज चुकाने में जाएगा। इसके बावजूद वित्त वर्ष 2024-25 के बजट में 14 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेने का प्रावधान किया गया है। राज्यों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। देश के राज्यों का औसत कर्ज उनके सकल घरेलू उत्पाद के 31 फीसदी से ज्यादा हो गया है। इसमे पंजाब शीर्ष पर है, जिसके ऊपर जीडीपी के अनुपात में 53 फीसदी से ज्यादा कर्ज है। उसे अपनी आय का 45 फीसदी हिस्सा कर्ज के ब्याज और दूसरी देनदारियों में जा रहा है। राजस्थान का कर्ज उसके जीडीपी के 40 फीसदी के बराबर है तो बिहार व पश्चिम बंगाल का 37 फीसदी और उत्तर प्रदेश का कर्ज उसके जीडीपी के 29 फीसदी के बराबर हो गया है। इसके बावजूद हर राज्य एक के बाद एक मुफ्त की योजनाओं की घोषणा करता जा रहा है और उसके लिए नए कर्ज लिए जा रहा है।

अब स्थिति यह हो गई है कि ज्यादातर राज्य अपनी आय का सबसे बड़ा हिस्सा कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन पर खर्च कर रहे हैं और उसके बाद दूसरा बड़ा खर्च ब्याज के भुगतान का है। इसके बाद राज्यों के पास बुनियादी ढांचे का विकास करने और आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए बहुत कम पैसा बच रहा है। सरकारों का पूंजीगत खर्च लगातार कम होता जा रहा है या उसके लिए कर्ज लेने की जरुरत पड़ रही है। पंजाब सरकार के पास अपने खर्च के बाद सिर्फ पांच फीसदी रकम बचती है, जिससे बुनियादी ढांचे का विकास हो या आर्थिक संसाधन तैयार किए जाएं। कमोबेश यही स्थिति सभी राज्यों की है। महाराष्ट्र जैसे साधन संपन्न राज्य में लड़की बहिन योजना की वजह से आर्थिक समस्या खड़ी हो रही है। राज्य सरकार को हर साल इस योजना पर 63 हजार करोड़ रुपए खर्च करने हैं। झारखंड जैसे राज्य में मइया सम्मान योजना का सालाना खर्च करीब 18 हजार करोड़ रुपए का है। इस वित्त वर्ष में महिलाओं को इस योजना का पैसा देने के लिए राज्य सरकार ने बाकी सभी विभागों से बची हुई रकम लेकर महिला व बाल विकास मंत्रालय को दे दिया है।

बढ़ते हुए कर्ज के अलावा राज्यों की आर्थिक सेहत बिगड़ने का एक दूसरा कारण कम होता राजस्व भी है। जीएसटी लागू होने के बाद से राज्यों के राजस्व में उम्मीद के मुताबिक बढ़ोतरी नहीं हो रही है। उन्होंने प्रत्यक्ष कर की तरह अप्रत्यक्ष कर वसूलने का जिम्मा भी केंद्र सरकार को दे दिया है लेकिन केंद्र सरकार ने ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिससे उसके खजाने में तो पैसे आ रहे हैं लेकिन राज्यों के खजाने में उस अनुपात में पैसे नहीं जा रहे हैं। वित्त वर्ष 2016 से पहले केंद्र सरकार के कुल करों में राज्यों का हिस्सा 32 फीसदी था, जिसे बढ़ा कर 42 फीसदी किया गया। 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर इसे 41 फीसदी फिक्स किया गया है। राज्यों की सरकारें चाहती हैं कि इसे बढ़ा कर 50 फीसदी किया जाए। अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाले 16वें वित्त आयोग के सामने राज्यों की ओर से इसकी मांग की जा रही है।

लेकिन राज्यों की असली समस्या यह है कि केंद्र सरकार ने सेस और सरचार्ज बढ़ा कर राज्यों का हिस्सा बहुत कम कर दिया है। सरकार कर बढ़ा रही है लेकिन राज्यों के साथ बंटवारे वाली श्रेणी में नहीं बढ़ाया जा रहा है। यानी जिस मद से राज्यों को कर का पैसा जाना है उसमें बढ़ोतरी नहीं की जा रही है। केंद्र सरकार ने सेस और सरचार्ज बढ़ा कर 11 फीसदी तक कर दिया है। यानी केंद्र सरकार अगर एक सौ रुपया कर वसूलती है तो उसमें से करीब 11 रुपया सेस और सरचार्ज है, जिसे वह अपने पास रख लेती है। इसके अलावा कर वसूलने के खर्च के नाम पर वह करीब दो फीसदी अपने पास रखती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी इन दो मद में केंद्र सरकार साढ़े 13 रुपया अपने पास रखती है और बचे हुए साढ़े 86 रुपए में से 41 फीसदी राज्यों को देती है। कहा जा रहा है कि सरकार सेस, सरचार्ज और कर वसूली के खर्च को कम करके 11 फीसदी पर लाना चाहती है। यानी सौ रुपए की कर वसूली में से 89 रुपए राज्यों के साथ बंटेंगे। जबकि कोरोना महामारी से कुछ वर्ष पहले तक सेस, सरचार्ज और कर वसूली खर्च अधिकतम सात फीसदी था, जो अभी साढ़े 13 फीसदी है। एक समय तक केंद्रीय करों में से 95 फीसदी हिस्से का बंटवारा राज्यों के साथ होता था, जो अब घट कर साढ़े 86 फीसदी रह गया है। विपक्षी शासन वाले राज्य यह मुद्दा उठाते भी हैं लेकिन यह मुद्दा राजनीतिक विमर्श में खो जाता है।

केंद्र सरकार कर से जुटाए गए राजस्व का बड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों को देती है। दूसरी ओर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों का हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। वह संघीय व्यवस्था के सामने एक अलग चुनौती बन रहा है। परंतु मुश्किल यह है कि दक्षिण भारत के विकसित और ज्यादा राजस्व जुटाने वाले राज्यों के मुकाबले केंद्र से ज्यादा राजस्व हासिल करने के बावजूद उत्तर भारत के राज्यों की आर्थिक सेहत बिगड़ती जा रही है। तभी उम्मीद की जा रही है कि जस्टिस ढींगरा की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद कोई स्पष्ट आदेश जारी होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक समय ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने का विरोध कर चुके हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार क्या रुख लेती है। कहने की जरुरत नहीं है कि मुफ्त की रेवड़ी ने अब चरस का रुप ले लिया है। जो बांट रहा है उसको भी इसकी लत लग गई है और जिसे मिल रहा है वह तो इस नशे का आदी हो ही गया है। तभी इस लत से छुटकारा पाने के लिए किसी तीसरी ताकत को दखल देना होगा। वह तीसरी ताकत अदालत हो सकती है। अदालत को कल्याणकारी योजनाओं और मुफ्त की रेवड़ी की योजनाओं का फर्क बताते हुए दो टूक आदेश देना होगा। अगर ऐसा होता है तभी राज्यों की आर्थिक सेहत सुधरने की दिशा में कोई पहल हो पाएगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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