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कश्मीर में चुनाव की बड़ी चुनौती

जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। तीन चरण में होने वाले मतदान के पहले चरण की अधिसूचना जारी हो गई है और नामांकन की प्रक्रिया चल रही है। इसके साथ ही आतंकवादियों की ओर से चुनाव प्रक्रिया में बाधा डालने के प्रयास भी चल रहे हैं। चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से एक दिन पहले यानी 19 अगस्त को आतंकवादियों ने अपेक्षाकृत शांत और सुरक्षित माने जाने वाले उधमपुर इलाके में सुरक्षा बलों पर हमला कर दिया, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के एक इंस्पेक्टर शहीद हो गए। असल में इस साल अप्रैल, मई में हुए लोकसभा चुनावों में जम्मू कश्मीर के लोगों के खुल कर शामिल होने और जम कर मतदान करने की परिघटना ने आतंकवादियों और सीमा पार बैठे उनके आकाओं को असहज कर दिया है। वे समझ नहीं पाए कि क्यों इतनी बड़ी संख्या में लोग चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो रहे हैं। राज्य की सभी पांच लोकसभा सीटों पर औसतन 50 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ, जो एक रिकॉर्ड है।

तभी लोकसभा चुनाव के बाद से ही सुरक्षा बलों पर हमले में तेजी आई, खासतौर से जम्मू के इलाके में, जिसे आमतौर पर शांत और सुरक्षित माना जाता है। अकेले जुलाई के महीने में सुरक्षा बलों पर 10 बड़े हमले हुए हैं, जिनमें कैप्टेन रैंक के अधिकारियों सहित कुल 15 जवान शहीद हुए। अगस्त में भी एक हफ्ते के अंतराल पर दो हमले हुए, जिसमें सेना के एक कैप्टेन और सीआरपीएफ के एक इंस्पेक्टर शहीद हो गए। ये हमले अनायास या अचानक नहीं हो रहे हैं। इनके पीछे किसी बड़ी साजिश की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। तभी आशंका जताई जा रही है कि विधानसभा चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों और आम नागरिकों को भी निशाना बनाने वाले हमलों में बढ़ोतरी हो सकती है।

इस लिहाज से चुनाव प्रक्रिया में सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौती है। चुनाव आयोग, राज्य प्रशासन और सुरक्षा बलों को हर स्थिति में नागरिकों को सुरक्षा मुहैया करानी होगी और उनके मन में सुरक्षा की धारणा पुख्ता करनी होगी ताकि वे खुल कर चुनावी प्रक्रिया में शामिल हों। चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का मतलब है कि बढ़ चढ़ कर चुनाव लड़ने वाले सामने आएं और मतदान करने के लिए भी लोग बेखौफ होकर निकलें। लोकसभा चुनाव से ज्यादा मतदान विधानसभा में हो तभी चुनाव आयोग की सफलता मानी जाएगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मतदान स्वतंत्र और निष्पक्ष हों। इसमें किसी तरह की गड़बड़ी की खबरों से लोगों का भरोसा टूटेगा और सारी कवायद विफल हो जाएगी।

जम्मू कश्मीर में चुनाव की दूसरी चुनौती सनातन है। लम्बे समय से वहां स्थिर और पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं बनी है। हर बार गठबंधन की सरकार बनती है क्योंकि चुनाव हमेशा बहुकोणीय होता है, जिसमें किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है। इस बार भी चुनाव से पहले राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बंटा हुआ दिख रहा है। पांच साल पहले जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद पार्टियों में जो राजनीतिक एकता दिखी थी वह पांच साल में समाप्त हो गई है। गुपकर एलांयस नाम की कोई चीज अब मौजूद नहीं है। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और कांग्रेस तीनों अलग अलग ताल ठोंक रहे हैं, जिन्होंने नवंबर 2018 में साथ मिल कर सरकार बनाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। इनके अलावा सज्जाद लोन की ‘पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’, गुलाम नबी आजाद की प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी और अल्ताफ बुखारी की ‘अपनी पार्टी’ की भी तैयारी है। भाजपा जो पिछली बार दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी वह ज्यादा बड़ी तैयारी के साथ चुनाव में उतरेगी। इस बहुकोणीय मुकाबले में किसी पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना मुश्किल प्रतीत होता है। त्रिशंकु विधानसभा में कैसी सरकार बनेगी और वह कितनी स्थिर होगा और लोगों का कितना भला कर पाएगी, यह देखने वाली बात होगी।

तीसरी चुनौती अलगाववादी ताकतों से है। लोकसभा चुनाव में बारामूला लोकसभा सीट के नतीजे से इस खतरे की आशंका स्पष्ट दिख रही है। निर्दलीय उम्मीदवार इंजीनियर शेख राशिद ने इस सीट पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक उमर अब्दुल्ला को हरा दिया। वह भी तब जबकि शेख राशिद दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं। उन्होंने जेल से चुनाव लड़ा और उनके दो बेटों ने चुनाव की कमान संभाली। शेख राशिद उग्र अलगाववादी विचारों के हैं और इसलिए जेल में बंद हैं। बारामूला लोकसभा सीट पर लोगों ने उदार और लोकतांत्रिक उमर अब्दुल्ला की बजाय उग्र और अलगाववादी विचार वाले शेख राशिद को चुना। राशिद को 45.70 फीसदी वोट मिले, जबकि उमर अब्दुल्ला सिर्फ 25 फीसदी वोट हासिल कर पाए।

यानी राशिद ने उनको 20 फीसदी के बड़े अंतर से हराया। जम्मू कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन भी इस सीट से चुनाव लड़े थे और उनको भी 17 फीसदी के करीब वोट मिला था। सो, मुख्यधारा की पार्टियों के बरक्स छोटी व नई पार्टियों और अलगाववादी विचारों वाले निर्दलीय उम्मीदवार को मिला समर्थन विधानसभा चुनाव के लिए एक नई चुनौती का संकेत है। यह समझने वाली बात है कि लोकसभा चुनाव में जो उत्साह दिखा है, खास कर घाटी के इलाके में वह कहीं अलगाववादी ताकतों की वजह से तो नहीं है? विधानसभा चुनाव में इस प्रवृत्ति पर नजर रखने और इसे रोकने की कोशिश होनी चाहिए।

असल में पिछले छह साल की राजनीति यानी जब से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ है तब से भाजपा और केंद्र सरकार ने जो राजनीति की है उससे भी लोगों में अलगाव की भावना पैदा हुई है। नवंबर 2018 में विधानसभा भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू करने, फिर अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करने, राज्य को विभाजित करके लद्दाख को अलग करने और फिर परिसीमन के नाम पर जम्मू इलाके में छह व कश्मीर घाटी में एक सीट बढ़ाने की कार्रवाई से देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में स्थानीय नागरिकों के मन में भाजपा को लेकर संदेह पैदा हुआ है। उनको लग रहा है कि भाजपा घाटी में कठपुतली पार्टियां खड़ी कर रही है और जम्मू इलाके में सीट बढ़ा कर वहां चुनाव जीतना चाहती है ताकि अपनी सरकार बना सके और हिंदू मुख्यमंत्री बना सके। ध्यान रहे राज्य की दोनों बड़ी प्रादेशिक पार्टियां यानी नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी पहले भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना चुके हैं। इसलिए उन पर भी लोगों का भरोसा नहीं बन रहा है। तभी यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा किस तरह से चुनाव लड़ती है और तीन, चार छोटी पार्टियां किस तरह से उसकी मदद करती हैं। इस बीच कांग्रेस और भाजपा दोनों की ओर से गठबंधन की कवायद भी शुरू हुई है। वह भी एक दिलचस्प पहलू है।

अगर चुनाव बाद की चुनौतियों की बात करें तो उसमें सबसे प्रमुख जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करना है। कहने को तो नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपने घोषणापत्र में अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली का भी वादा कर दिया है लेकिन सबको पता है कि वह अब संभव नहीं है। इसलिए राज्य के दर्जे की बहाली सबसे जरूरी है। इसमें भी यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव के बाद जम्मू कश्मीर कैसा राज्य बनता है। वह पूर्ण राज्य होता है या दिल्ली जैसा अर्ध राज्य बनता है। पिछले दिनों उप राज्यपाल को जितने अधिकार दिए गए हैं उससे लगता है कि राज्य सरकार के पास कम ही अधिकार रहेंगे। चुनाव बाद की एक बड़ी चुनौती साफ सुथरी सरकार की है। अगर सरकार गठन में जोड़ तोड़ या खरीद फरोख्त होती है तो पूरी कवायद विफल होगी। राज्य के लोग पहले इस तरह की बातें देख चुके हैं। साफ सुथरी सरकार से ही उनका भरोसा सरकार पर बनेगा और तभी स्थायी शांति बहाली संभव हो पाएगी।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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