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सख्त कानून से क्या हो जाएगा?

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार ने विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर बलात्कार और महिलाओं के साथ होने वाले अन्य अपराधों के लिए सख्त सजा का प्रावधान करने वाला कानून पास कर दिया। अब बलात्कार के दोषी को फांसी की सजा देने का प्रावधान किया गया है। लेकिन सवाल है कि इसमें क्या नया है? क्या देश में पहले से बलात्कारी को फांसी देने की सजा का कानून नहीं है? दिल्ली में 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद बलात्कारी के लिए फांसी की सजा का प्रावधान किया गया था। लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार की घटनाओं में कमी आ गई या क्या महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध कम हो गए?

खुद ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी चिट्ठी में कहा कि देश में हर दिन 90 महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं। फिर भी उन्होंने बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के लिए कानून को सख्त बनाने का रास्ता चुना! यह सीधे सीधे लोगों की आंख में धूल झोंकने का प्रयास है। एक किस्म का फ्रॉड है, जो इस देश की सरकारें लगातार करती हैं। लोगों के सामूहिक गुस्से को ठंडा करने के लिए इस तरह के कानून बनाए जाते हैं, जो कि हमेशा बहुत आसान होता है। इसकी बजाय महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जमीनी स्तर पर जो ठोस काम करने हैं, सुरक्षा बंदोबस्त बेहतर करने हैं, काम की स्थितियां बेहतर बनानी है, पुलिस व न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना है, उस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

असल में सख्त कानून बनाना महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने का कारगर उपाय नहीं है। कई तरह के आंकड़ों से इसे प्रमाणित किया जा चुका है। हत्या के लिए पहले से फांसी की सजा का प्रावधान है लेकिन क्या इससे हत्या या हत्या के प्रयास की घटनाओं में कमी आई? उलटे बलात्कार के दोषी को फांसी की सजा का प्रावधान किए जाने से बलात्कार के बाद हत्या की घटनाओं में बढ़ोतरी हो गई है। सबूत मिटाने के लिए दोषी पीड़ित महिलाओं की हत्या कर दे रहे हैं। उनको पता है कि बलात्कार का दोषी पाए जाने पर भी मौत की सजा होती है और हत्या का दोषी पाए जाने पर भी मौत की ही सजा होती है।

पीड़ित के जीवित रहने पर उसकी गवाही दोषी को सजा दिलाने के लिए पर्याप्त होती है। उसके नहीं रहने पर पुलिस को ठोस सबूत और गवाह जुटाने होते हैं, जिनमें कई बार मुश्किल आती है और केस कमजोर हो जाता है। कोलकाता के राधागोविंद कर मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना में भी ऐसा ही हो रहा है। हालांकि पश्चिम बंगाल के नए कानून में इस स्थिति से बचने के लिए यह प्रावधान किया गया है कि बलात्कार के बाद पीड़ित की मौत होने या उसके कोमा में जाने की स्थिति में ही फांसी दी जाएगी। इसके बावजूद इससे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी ऐसा सोचना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा है।

सोचें, कोलकाता में इतनी बड़ी घटना हो गई, जिसे लेकर पूरा देश आंदोलित है लेकिन घटना के एक महीने बाद भी पुलिस और सीबीआई दोनों ठोस सबूत जुटाने में सफल नहीं हो रहे हैं। उलटे इस मामले में गिरफ्तार मुख्य आरोपी पॉलीग्राफ टेस्ट में कह रहा है कि वह गलती से सेमिनार हॉल में पहुंच गया था, जहां उसे जूनियर डॉक्टर का शव दिखा और वह घबरा कर भागा तो उसका ब्लूटूथ डिवाइस वहां गिर गया। यानी उसने बलात्कार और हत्या में शामिल होने से इनकार कर दिया है। उसने अदालत में ‘नॉट गिल्टी’ यानी ‘दोषी नहीं हूं’ कहने का फैसला किया है। सोचें, क्या फायदा पॉलीग्राफ टेस्ट का? उलटे इससे मुख्य आरोपी को बल मिल गया! क्या इससे ममता बनर्जी या केंद्र सरकार या दूसरे राज्यों की सरकारें यह सबक नहीं ले रही हैं कि उनको सुरक्षा उपायों के साथ साथ जांच और अभियोजन की बेहतर व्यवस्था बनानी चाहिए।

नेताओं और राजनीतिक दलों की ओर से ऐसी घटनाओं पर होने वाली राजनीति का एक दूसरा खतरा भी है, जिसकी ओर सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अभय एस ओका ने ध्यान खींचा है। उन्होंने कहा है कि नेता और पार्टियां दोषियों को फांसी की सजा देने का भरोसा देते हैं, जिससे एक भीड़तंत्र तैयार होता है, जबकि असलियत में किसी भी मामले में न्याय करने का काम न्यायपालिका को करना है। इसमें एक पहलू यह भी है कि जब भी ऐसी कोई घटना होती है तो सारे नेता त्वरित न्याय की बात करते हैं। जैसे ममता बनर्जी की सरकार के बनाए कानून में 21 दिन में जांच करने या 10 दिन में फांसी की सजा दिलाने का प्रावधान किया गया है। इस त्वरित और सख्त सजा के प्रावधान के दो खतरे हैं। पहला तो जांच और अभियोजन में हड़बड़ी में गड़बड़ी की संभावना है और दूसरे, इस तरह त्वरित न्याय की बातों से भीड़ को हौसला मिलता है और वे कानून अपने हाथ में लेकर विजिलांते जस्टिस यानी मौके पर ही न्याय करने लगते हैं। अगर इसके रोका नहीं गया तो आने वाले दिनों में हालात और मुश्किल हो जाएंगे।

तभी सख्त और त्वरित सजा के लिए कठोर कानून की बजाय सजा सुनिश्चित करने पर जोर होना चाहिए और उससे पहले रोकथाम के उपायों पर ध्यान देना चाहिए। भारत में आंकड़ों से यह बात प्रमाणित है कि महिलाओं के प्रति ज्यादातर अपराध घरों में या जानकार लोगों द्वारा किए जाते हैं। इनमें से अनेक अपराध ऐसे होते हैं, जिन्हें रोकना पुलिस के हाथ में नहीं होता है। हां, अगर महिलाओं को शिक्षित किया जाए और उन्हें भरोसा दिलाया जाए कि वे घटना की जानकारी दें या शिकायत दर्ज कराएं तो कार्रवाई होगी तो महिलाएं सामने आएंगी। इसके अलावा कार्यस्थलों से लेकर सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की सुरक्षा के उपाय करने की जरुरत है।

एक तरफ तो सरकारें महिलाओं को रात की ड्यूटी के लिए इजाजत दे रही हैं लेकिन दूसरी ओर सुरक्षा के उपाय नहीं कर रही हैं। न तो पर्याप्त संख्या में सुरक्षाकर्मियों की तैनाती हो रही है और न सीसीटीवी कैमरे लगवाए जा रहे हैं। सोचें, पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के आरजी कर अस्पताल के सेमिनार हॉल में इतनी बड़ी घटना हो गई लेकिन वहां भी सीसीटीवी कैमरे नहीं लगे हैं। ऐसे में सोचें, दूर दराज की जगहों पर, गांवों, कस्बों में होने वाले अपराध के बारे में! राजधानी दिल्ली में सैकड़ों जगहें ऐसी हैं, जहां स्ट्रीट लाइट नहीं है और कैमरे नहीं लगे हैं। कई लाख कैमरे लगाने का वादा कई साल पहले अरविंद केजरीवाल ने किया था। लेकिन आज भी दिल्ली के अंधेरे पार्क या सुनसान जगहों पर महिलाओं के साथ अपराध की खबरें आती हैं।

सो, अगर वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी है या उन्हें पढ़ाई के लिए स्कूल, कॉलेज जाने के लिए प्रोत्साहित करना है तो शैक्षणिक संस्थानों से लेकर, कार्यस्थलों तक और सार्वजनिक परिवहन से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर महिला सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं। महिला सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए, स्ट्रीट लाइट्स लगाए जाएं, सीसीटीवी कैमरे इंस्टाल किए जाएं और साथ साथ महिलाओं को जागरूक करने का अभियान चलाया जाए। इसके बाद जो भी कानून है उस पर अमल सुनिश्चित किया जाए। जरूरी नहीं है कि इसमें कठोर सजा का प्रावधान हो।

सजा जितनी भी हो लेकिन यह प्रावधान जरूर होना चाहिए कि एक निश्चित अवधि में इसका ट्रायल शुरू होगा और ट्रायल पूरा होगा। अजमेर में जिस तरह बलात्कार और ब्लैकमेलिंग के मामले में 32 साल बाद फैसला आया है, वैसा होगा तो महिलाओं की सुरक्षा कभी भी सुनिश्चित नहीं हो पाएगी। निश्चित अवधि में जांच पूरी हो और अदालत में सुनवाई पूरी होकर दोषी को सजा मिले इसके लिए पुलिस को प्रशिक्षण देने की जरुरत है, आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता है, अभियोजन के लिए अलग पुलिस बल बनाने की जरुरत है और न्यायपालिका में न्यायिक अधिकारियों की संख्या बढ़ाने के साथ साथ कोर्ट के बुनियादी ढांचे में सुधार की जरुरत है। अपराध न्याय प्रणाली में आमूलचूल बदलाव किए गए बगैर सिर्फ कठोर कानून के सहारे किसी भी अपराध में न्याय की उम्मीद बेमानी है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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