चार चुनावी राज्यों में दो राज्यों, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई है। इनके अलावा महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों की घोषणा अक्टूबर में संभावित है। इन चुनावों को लेकर पिछले तीन चार महीने से एक खास किस्म के नैरेटिव का निर्माण हो रहा है। पारंपरिक और सोशल मीडिया में कहा जा रहा है कि चार राज्यों के चुनाव में भाजपा हारने जा रही है। यह धारणा लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर बनाई जा रही है। इसमें कोई बुराई नहीं है, बल्कि पारंपरिक राजनीतिक विश्लेषण के सिद्धांतों के आधार पर इसे सही मान सकते हैं।
आमतौर पर माना जाता है कि एक चुनाव में अगर किसी पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा है तो चार महीने बाद होने वाले दूसरे चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर नहीं होगा, बल्कि और खराब हो सकता है। चूंकि लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा 28 सीटों पर लड़ कर सिर्फ नौ सीट जीत पाई और उसका गठबंधन 48 में से सिर्फ 17 सीटों पर जीता तो अब कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में भाजपा के लिए कोई अवसर नहीं है या हरियाणा में पिछली बार 10 सीट जीतने वाली भाजपा इस बार सिर्फ पांच सीटों पर जीती और पांच पर कांग्रेस जीत गई तो अब वहां कांग्रेस का चुनाव जीतना तय है या झारखंड में 14 में से आदिवासी आरक्षित सभी पांच सीटों पर भाजपा हार गई है तो वह वहां विधानसभा का चुनाव जीत ही नहीं सकती है।
हकीकत में यह एक किस्म का स्टीरियोटाइप है, जिसके गलत होने की संभावना भी रहती है। पहले कई बार ऐसा हो चुका है कि लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने वाली पार्टियां विधानसभा में अच्छा प्रदर्शन करती हैं और लोकसभा में जीतने वाली पार्टियों का विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन खराब हो जाता है। मिसाल के तौर पर हरियाणा में 2019 में सभी 10 सीटें जीतने वाली भाजपा पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव में 90 में से 40 ही सीट जीत पाई और लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीतने वाली कांग्रेस ने 31 सीटें जीत लीं।
झारखंड इसका और बड़ा उदाहरण है, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू ने 2019 में 14 में से 12 सीटें जीतीं और कांग्रेस व जेएमएम सिर्फ दो सीट जीत पाए लेकिन पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव में 81 में से भाजपा सिर्फ 25 सीट जीत पाई और कांग्रेस व जेएमएम गठबंधन ने 48 सीटें जीत लीं। इसलिए सिर्फ लोकसभा चुनाव के आंकड़ों के आधार पर विधानसभा चुनाव की संभावना का आकलन करना उचित नहीं होगा। इन आंकड़ों के अलावा दूसरे फैक्टर्स पर विचार की भी जरुरत है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति अर्थमेटिक यानी अंकगणित नहीं है, बल्कि यह कैलकुलस की तरह है। गणित के विद्यार्थी जानते होंगे कि कैलकुलस क्या होता है। इसमें कई हिडेन फैक्टर और वैरिएबल्स होते हैं, जिनके आधार पर सवाल हल होते हैं। राजनीति भी कैलकुलस की तरह है, जिसमें दूसरे फैक्टर्स और वैरिएबल्स ज्यादा महत्व रखते हैं।
जम्मू कश्मीर का मामला बाकी राज्यों से बिल्कुल अलग है। इसलिए उसको छोड़ें और बाकी तीन राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा व झारखंड में अंकगणित के साथ साथ दूसरे फैक्टर्स को सम्मिलित करके विश्लेषण करें तो यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि इन राज्यों का चुनाव किसी के लिए बहुत आसान नहीं है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि लोकसभा चुनाव जिन मुद्दों पर लड़े गए थे वे मुद्दे लोकसभा के नतीजों के साथ ही खत्म हो गए। उनके दम पर विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा जाएगा। तीसरा निष्कर्ष यह है कि लोकसभा चुनाव का सामाजिक समीकरण भी बिल्कुल उसी तरह से विधानसभा में काम नहीं करेगा, जैसे लोकसभा में किया। चौथा निष्कर्ष यह है कि एंटी इन्कम्बैंसी का फैक्टर वैसे नहीं रहेगा, जैसे लोकसभा चुनाव में था और पांचवां निष्कर्ष यह है कि नेतृत्व और गठबंधन का मुद्दा भी लोकसभा चुनाव से बिल्कुल अलग होगा। तभी यह भी संभव है कि नागरिकों का मतदान व्यवहार भी वैसा नहीं रहे, जैसा लोकसभा चुनाव में था। इसका यह मतलब नहीं है कि लोगों ने लोकसभा में भाजपा को हराया तो विधानसभा में उसे जीता सकते हैं। इसका सिर्फ यह मतलब है कि विधानसभा चुनावों को बिल्कुल अलग नजरिए से देखने की जरुरत है और उस हिसाब से चुनाव किसी के लिए बहुत आसान नहीं रहने वाला है।
राज्यों के चुनाव का विश्लेषण करते हुए इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि भाजपा ने चार सौ सीट का जो नारा दिया था उसका उसे नुकसान हुआ था। उसके समर्थक लापरवाह हुए थे और या यह मान कर वोट किया कि भाजपा तो जीत ही रही है तो उसके एक वोट से क्या बिगड़ जाना है। दूसरे, विपक्ष ने संविधान और आरक्षण खत्म कर देने का मुद्दा बनाया था, जिसे लोगों ने सही माना क्योंकि आरक्षण और संविधान में बदलाव का अधिकार केंद्र सरकार को है। लेकिन यही मुद्दा राज्यों के चुनाव में हो सकता है कि काम न करें क्योंकि राज्य सरकारों के हाथ में संविधान या आरक्षण के बारे में कोई भी फैसला करने का अधिकार नहीं है। अयोध्या में 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन के बाद हिंदुओं में एक किस्म के संतोष का भाव पैदा हुआ था, जिससे हिंदुत्व का मुद्दा शिथिल हुआ और जाति का मुद्दा प्रमुख बन गया। ऊपर से केंद्र की 10 साल की नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति निश्चित मात्रा में एंटी इन्कम्बैंसी का भाव था। लोग एक ही बात सुन कर उबे हुए थे और उनके मोदी के प्रति थकान का भाव भी था।
राज्यों के चुनाव में ये स्थितियां बदल सकती हैं। इन तीनों राज्यों में भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी नाराजगी का इजहार कर चुके मतदाता वापस कंसोलिडेट हो सकते हैं। यह भी एक सामान्य राजनीतिक परिघटना है। इसी तरह हर राज्य की जमीनी वास्तविकताएं अलग अलग हैं। मिसाल के तौर पर झारखंड में जेल से रिहा होने के बाद हेमंत सोरेन ने जैसे चंपई सोरेन को हटाया और खुद मुख्यमंत्री बन गए और उससे पहले उनकी पत्नी भी विधायक बन गईं, उससे सहानुभूति का फैक्टर कम हुआ है। पांच साल के शासन को लेकर एंटी इन्कम्बैंसी भी है। ऊपर से भाजपा ने दो पड़ोसी राज्यों में आदिवासी सीएम बनाया है और आदिवासी नेता का चेहर आगे किया है। यह भी तथ्य है कि जेएमएम और कांग्रेस की उग्र आदिवासी व अल्पसंख्यक राजनीति सामान्य वर्ग के हिंदुओं, पिछड़ों और दलितों को एकजुट कर सकती है।
इसी तरह हरियाणा में जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर भाजपा की अति निर्भरता दूसरी जातियों को गोलबंध कर सकती है। दलित नेता कुमारी शैलजा बार बार इस ओर इशारा कर रही हैं। लेकिन उनको चुप करा दिया जा रहा है। प्रदेश की गुटबाजी कांग्रेस के लिए भारी पड़ रही है। महाराष्ट्र में जरूर विपक्षी गठबंधन मजबूत दिख रहा है लेकिन लोकसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे के बेहतर स्ट्राइक रेट के बाद यह बहस छिड़ी है कि क्या सचमुच असली शिव सेना उन्हीं की है? वंचित बहुजन अघाड़ी के नेता प्रकाश अंबेडकर ने यह बात कही। हालांकि विधानसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे के मुकाबले उद्धव ठाकरे का स्ट्राइक रेट बेहतर हो सकता है क्योंकि शिव सैनिक उनको सीएम बनाने के लिए मतदान करेंगे। फिर भी महा विकास अघाड़ी को पूरा दम लगाना होगा।