जब भी कांग्रेस का कोई नेता पार्टी छोड़ता है तो उसे नए और पुराने की बाइनरी में देखा जाता है। इसके अलावा दूसरे पहलुओं पर देखने की जहमत नहीं उठाई जाती है। पीढ़ियों के संघर्ष की बाइनरी चूंकि बहुत सुविधाजनक है इसलिए इस पहलू से देख कर मामले को हर बार रफा-दफा कर दिया जाता है। इसमें एक फायदा यह भी है कि इस पहलू से देखने पर राहुल गांधी के ऊपर निशाना साधना आसान हो जाता है, जो भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के बहुत अनुकूल होता है।
ऐसे नेता, जिनका कांग्रेस से मोहभंग नहीं हुआ है या वैचारिक-राजनीतिक कारणों से भाजपा में नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन राहुल गांधी को पसंद नहीं करते हैं या उनको लगता है कि उनका राजनीतिक करियर राहुल की वजह से खत्म हो रहा है वे कांग्रेस की कमजोरी या किसी नेता के पार्टी छोड़ने की घटना को नए और पुराने के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करते हैं और मीडिया व सोशल मीडिया को राहुल पर हमला करने का मौका मुहैया कराते हैं।
तभी जब मिलिंद देवड़ा ने कांग्रेस छोड़ी तो निशाने पर राहुल गांधी आए। समूचा सोशल मीडिया ऐसी पोस्ट से भरा है, जिसमें राहुल पर हमला किया गया है। एक पुरानी तस्वीर शेयर की जा रही हैं, जिसमें मिलिंद देवड़ा के साथ जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह और सचिन पायलट खड़े हैं। इनमें से पायलट के अलावा बाकी चार कांग्रेस छोड़ चुके हैं। तीन अभी भाजपा के साथ हैं और मिलिंद देवड़ा भाजपा की सहयोगी शिव सेना में शामिल हुए हैं।
सचिन पायलट ने भी बगावत कर ही दी थी लेकिन उनको सिंधिया की तरह कामयाबी नहीं मिली तो वे कांग्रेस में ही रह गए और अब उसी में अपनी जगह तलाश रहे हैं। कहा जा रहा है कि राहुल गांधी की गलती थी कि उन्होंने ऐसे युवराजों को आगे बढ़ाया और उन्हें केंद्र में मंत्री बनवाया। तथ्यात्मक रूप से यह सही है कि राहुल की तरह ही ये सभी युवराज थे और इनको बहुत कम उम्र में केंद्र में मंत्री बना दिया गया था। लेकिन इन तथ्यों की अभी जो व्याख्या हो रही है वह व्याख्या 2009 में नहीं हो रही थी। तब इसे राहुल गांधी का मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा था कि उन्होंने चुपचाप कांग्रेस के अंदर नेताओं की दूसरी लाइन तैयार कर दी। इसके लिए राहुल गांधी की तारीफ हो रही थी कि उन्होंने नए और युवा नेताओं को आगे किया है।
अलग अलग समय की कसौटी पर दोनों व्याख्याएं सही प्रतीत होंगी। लेकिन उस समय जो मास्टरस्ट्रोक था आज वह ऐतिहासिक भूल है। सर्वकालिक सही साबित होने वाले फैसले आमतौर पर राजनीति में कम होते हैं और व्यक्तियों के मामले में तो और भी कम होते हैं। बहरहाल, अगर कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने के घटनाक्रम को नए और पुराने की बाइनरी में देखेंगे तो सवाल उठेगा कि अगर पार्टी के भीतर नए और पुराने का विवाद चल रहा है और राहुल गांधी पुराने नेताओं को किनारे कर रहे हैं तो फिर नए नेताओं के पार्टी छोड़ने की बात को कैसे जस्टिफाई करेंगे?
दूसरी ओर अगर यह कहा जाता है कि पुराने नेताओं ने पार्टी पर कब्जा रखा है, जिससे नए नेताओं को अवसर नहीं मिल रहा है तो फिर पुराने नेताओं के पार्टी छोड़ने का क्या तर्क होगा? ध्यान रहे पार्टी छोड़ने वालों में अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह और मिलिंद देवड़ा जैसे नए नेता हैं तो कैप्टेन अमरिंदर सिंह, गुलाम नबी आजाद, सुनील जाखड़ जैसे पुराने नेता भी हैं। इसलिए यह सिर्फ नए और पुराने का संघर्ष या पार्टी के आंतरिक मतभेद का मामला नहीं है। ये सिर्फ सतह पर दिखने वाली चीजें हैं। असली कारण कुछ और है।
असल में कांग्रेस को एकजुट रखने और नेताओं को जोड़े रखने वाली सत्ता की गोंद सूख रही है। कांग्रेस इससे पहले कभी लगातार 10 साल तक केंद्र की सत्ता से बाहर नहीं रही और न राज्यों की सत्ता से इतने लंबे समय तक बेदखल रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि नेताओं का धैर्य खत्म हो रहा है। कांग्रेस को न विपक्ष में रहने की आदत है और न विपक्ष की राजनीति करने का तरीका आता है। कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में जाने से कई साल पहले सुष्मिता देब ने एक दिन कहा था कि कांग्रेस सत्ता में रहती है या सत्ता के इंतजार में रहती है। चूंकि इस बार सत्ता का इंतजार लंबा हो गया इसलिए कांग्रेस के नेताओं का धीरज खत्म हो गया।
पहले पांच साल तक तो कांग्रेस नेता सहज रूप से विपक्ष में रहे और इंतजार करते रहे कि अगली बार अपने आप सत्ता में आ जाएंगे। जब दूसरी बार भी कांग्रेस बुरी तरह से हारी तब नेताओं की उम्मीदें टूटने लगीं और वे दूसरी तरफ संभावना तलाशने लगे। अभी स्थिति यह है कि लगातार तीसरे चुनाव में कांग्रेस के लिए अच्छी संभावना नहीं दिख रही है और ऊपर से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस चुनाव हार गई। अगर वहां भी जीती होती तो कुछ हासिल होने की उम्मीद में नेताओं का पलायन रुका रह सकता था।
दूसरा अहम कारण वैचारिक क्षरण है। राहुल गांधी देश की मौजूदा राजनीति को विचारधारा की लड़ाई के तौर पर परिभाषित करते हैं। वे बार बार कहते हैं कि भाजपा और आरएसएस के खिलाफ वे विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे नफरत की विचारधारा के खिलाफ मोहब्बत की दुकान लगाने की बात करते हैं। लेकिन असलियत यह है कि कांग्रेस अपना मध्यमार्ग और समावेशी राजनीति का रास्ता छोड़ कर भाजपा के बरक्स दूसरे किस्म की कट्टरपंथी राजनीति में उतर गई है। कई नेताओं ने यह बात अलग अलग तरीके से कही है कि कांग्रेस को गैर सरकारी संगठनों यानी एनजीओ की तरह या जेएनयू के छात्र संगठन की तरह राजनीति नहीं करनी चाहिए।
उस तरह की राजनीति थोड़े समय के लिए युवाओं को आकर्षित तो करती है लेकिन चुनाव में सफल नहीं हो पाती है। कांग्रेस एक समय हर तरह की विचारधारा को साथ लेकर चलने वाली पार्टी थी। वह पहले भी भाजपा का विरोध करती थी लेकिन वह वैयक्तिक और एकपक्षीय नहीं था। हालांकि पहले भी विचारधारा कभी भी कांग्रेस को बांधे रखने वाली गोंद नहीं रही है, जैसा कि भाजपा और वामपंथी पार्टियों में है। फिर भी कांग्रेस में जब हर विचार के लोगों के लिए जगह थी और उनकी बात सुनी जाती थी तब फिर भी साथ चलते रहने की गुंजाइश होती थी। अब वह गुंजाइश कम होती जा रही है। हालांकि कांग्रेस से अलग होकर जो लोग भाजपा में जा रहे हैं वहां अलग विचार रखने की तो और भी गुंजाइश नहीं है लेकिन वहां सत्ता का चुम्बक है, जो उनको खींच रहा है।
तीसरा कारण यह है कि कांग्रेस की अपनी राजनीति में बहुत स्पष्टता नहीं है। भाजपा पर नफरत फैलाने के आरोप लगाने और उसकी आलोचना करने के अलावा कांग्रेस की कोई स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि नहीं दिखाई देती है। कूटनीति से लेकर आर्थिकी तक कोई वैकल्पिक विचार कांग्रेस ने पेश नहीं किया है। यह स्पष्ट नहीं है कि राहुल गांधी आज जिन आर्थिक नीतियों का विरोध कर रहे हैं वो नीतियां कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार की नीतियों से कैसे अलग हैं। चौथा कारण संगठन की कमजोरी है, जो एक एक करके नेताओं के निधन या संन्यास या उनके पलायन के कारण आई है। उसका कांग्रेस के पास कोई समाधान नहीं है। उसके पास न भाजपा के जैसा अनुशासित और बड़ा संगठन है और न आरएसएस के जैसी कोई ताकत है, जो सबको बांधे रहे। इसलिए नेताओं के अंदर कांग्रेस का समय लौटने का भरोसा कम होता जा रहा है।
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