विपक्ष की बैठकें हो रही हैं, सीट बंटवारे पर बातचीत के लिए डेडलाइन तय की जा रही है? चुनाव लड़ने की रणनीति बन रही है और प्रचार के प्रबंधन पर भी टीमें बन गई हैं, जो थोड़ा बहुत काम कर रही हैं। लेकिन सवाल है कि विपक्ष का आंदोलन कहा है? जमीन पर लड़ने की तैयारी कहां दिख रही है? क्या बिना जमीनी लड़ाई लड़े विपक्ष अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को हरा देने के सपने देख रहा है? विपक्षी गठबंधन का अघोषित तौर पर नेतृत्व कर रही कांग्रेस के नेता क्यों नहीं 2004 के सिंड्रोम से बाहर निकल रहे हैं?
जब भी किसी से पूछा जाता है कि 2024 के चुनाव में भाजपा को कैसे हराएंगे तो वह कहता है कि जैसे 2004 में हरा दिए थे। सोचें, क्या 2004 और 2024 में फर्क नहीं है? क्या अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी वाली भाजपा और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की भाजपा में अंतर नहीं है? पिछले 20 साल में गंगा-जमुना में कितना पानी बह गया, लेकिन कांग्रेस के नेता अभी वही अटके हैं!
ऐसा इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं को 2004 को याद करके खुशी मिलती है, उम्मीद बंधती है, फीलगुड होता है इसलिए वे उसी सिंड्रोम में अटके हैं। भारत के पिछले 75 साल के इतिहास में वह एकमात्र चुनाव था, जिसमें बिना किसी बड़े आंदोलन या विरोध प्रदर्शन के सत्ता बदल गई थी। न हारने वाले ने सोचा था कि वह हार सकता है और न जीतने वाले को यकीन था कि वह जीत भी सकता है। वाजपेयी सरकार शाइनिंग इंडिया और फीलगुड के नारे पर भाजपा लड़ रही थी और सौ फीसदी जीत के भरोसे में थी।
लेकिन समय से पहले चुनाव कराने और एकाध राज्यों में गलत गठजोड़ की वजह से भाजपा हार गए। उसकी सीटें 183 से घट कर 138 रह गईं। वह कांग्रेस से सात सीट पीछे हो गई। कांग्रेस उसी चमत्कार में अटकी है। असल में यह कांग्रेस नेताओं का भाग्यवाद है। वे पिछले 10 साल की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा कर पाने की अपनी अक्षमता को 2004 के चमत्कार से ढकना चाहते हैं।
कांग्रेस के नेता मानते हैं कि उस समय भी कोई आंदोलन नहीं हुआ था लेकिन तब भी कांग्रेस जीत गई थी। इसलिए अब भी कोई आंदोलन नहीं करेंगे और जीतना होगा तो जीत जाएंगे। कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि 2004 के अलावा आजाद भारत के इतिहास में कभी सत्ता पलट किसी बड़े आंदोलन के बगैर नहीं हुआ है। 1975 की संपूर्ण क्रांति ने 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी। 1987 में बोफोर्स पर हुए आंदोलन ने 1989 में राजीव गांधी की चार सौ से ज्यादा सांसदों वाली सरकार को हराया था, 1996 में भी भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण कांग्रेस की सरकार गई थी और 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन ने 2014 में कांग्रेस की 10 साल की सरकार की विदाई का रास्ता बनाया था। कांग्रेस इन सबको भूल कर 2004 को पकड़े बैठी है, जो एक अपवाद है।
यह नियतिवादी सोच कांग्रेस को भारी पड़ने वाली है। उसे समझना चाहिए कि मौजूदा भाजपा वाजपेयी-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है। अब मोदी और शाह की भाजपा जीत के अति आत्मविश्वास में कभी गाफिल नहीं रहती है और न कोई गलत गठजोड़ करती है। कुछ राज्यों में वह जरूर हारी लेकिन वहां भी उसने अपना वोट आधार कायम रखा या उसमें बढ़ोतरी की। यह जानते हुए कि स्थिति कमजोर और चुनाव हार जाएंगे, मोदी और शाह ने कई राज्यों में प्रचार के रिकॉर्ड बनाए। ऐसी मेहनत की, जैसी किसी चुनाव में पहले देखने को नहीं मिली। वे दोनों हर चुनाव ऐसे लड़ते हैं, जैसे आखिरी चुनाव है। इसी तरह वाजपेयी-आडवाणी से उलट मोदी-शाह की भाजपा में गलत फैसलों को सीने से नहीं चिपकाए रखा जाता है। अगर कहीं गलती हो गई तो उसे तुरंत दुरुस्त किया जाता है।
मोदी और शाह के पास जो रणनीतिक लचीलापन है वह किसी और नेता में नहीं दिखता है। सरकार में आने के बाद पहले साल से लेकर अभी तक भूमि अधिग्रहण कानून से पीछे हटने से लेकर तीन विवादित कृषि कानूनों तक मोदी और शाह ने यह दिखाया है। राजनीतिक समझौतों में महबूबा मुफ्ती से लेकर नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा और अजित पवार तक भाजपा ने गजब लचीलापन दिखाया है। इसके लिए उसकी आलोचना भी होती है लेकिन चुनावी जीत के आगे सारी आलोचना दब जाती है।
पुरानी और नई भाजपा का फर्क यह भी है कि मोदी-शाह ने लगभग सारे पुराने वादे पूरे कर दिए हैं। अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का काम पूरा हो गया है। समान नागरिक संहिता आने वाली है और तीन तलाक को अपराध बनाया जा चुका है। अयोध्या के बाद काशी और मथुरा में सर्वे का काम शुरू हो गया है। यह दीर्घकालिक परियोजना है, जिससे शॉर्ट टर्म के ध्रुवीकरण की नहीं, बल्कि हिंदू पुनरुत्थान या पुनर्जागरण का माहौल बना है।
भाजपा इतनी बदल गई लेकिन कांग्रेस के नेता अब भी 2004 को सीने से चिपकाए हुए हैं। लगातार हार के बाद भी कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं कि उन्हें बैठे बैठे सत्ता मिलेगी। भाजपा और उसकी केंद्र सरकार गलतियां करेंगे और लोग खुद ही उनको हटा कर कांग्रेस को चुन देंगे। ऐसा नहीं होने वाला है। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को लड़ने की तैयारी करनी होगी। लड़ाई भी मामूली नहीं होगी। कांग्रेस लंबा समय गंवा चुकी है। पिछले नौ साल में उसने कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा किया है।
सरकार के ऊपर आरोप तो बहुत लगाए लेकिन सड़क पर उतर कर कोई लड़ाई नहीं लड़ी है। किसानों ने अपनी लड़ाई लड़ी और भूमि अधिग्रहण कानून भी वापस कराया और कृषि कानून भी वापस कराए। लेकिन कांग्रेस सिर्फ मुद्दे उठाती रही और आरोप लगाती रही। यह जानते हुए कि उसके किसी भी आरोप को मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने वाली है कांग्रेस उसी भरोसे में रही। तभी अब राहुल गांधी संसद में मीडिया को देख कर कहते हैं कि कुछ दिखा दीजिए आपकी भी जिम्मेदारी बनती है।
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की, जिससे उनकी निजी छवि बदली और उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगा। लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा में जो मुद्दे उठाए थे वह लोकप्रिय विमर्श से गायब हैं। मोहब्बत की दुकान का जुमला उन्होंने पता नहीं कब से नहीं बोला है। विचारधारा की लड़ाई का मामला भी अब परदे के पीछे है। संसद की सुरक्षा में चूक के बाद राहुल गांधी ने बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा उठाया। कांग्रेस इन दो मुद्दों पर बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती है। पूरे देश में बड़ी आबादी बेरोजगारी और महंगाई से परेशान है। अलग अलग सर्वेक्षणों में 80 फीसदी तक लोगों ने इसे बड़ा मुद्दा माना है। यह आज की समस्या नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से 10 साल में कांग्रेस इस पर को आंदोलन नहीं कर सकी है। राहुल गांधी ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाया लेकिन उसे लेकर कोई आंदोलन नहीं किया।
कांग्रेस ने अपना कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं पेश किया। यह नहीं बताया कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो महंगाई, भ्रष्टाचार कैसे कम होगा या क्रोनी कैपिटलिज्म पर कैसे काबू पाएंगे या सरकारी संपत्ति को बेचने के फैसलों को कैसे पलटेंगे? न तो कांग्रेस सड़क पर उतरी और न उसकी सहयोगी पार्टियां उतर रही हैं। सहयोगी पार्टियों की दूसरी समस्या है। ज्यादातर सहयोगी पार्टियां सरकार में हैं। बिहार में राजद और जदयू, झारखंड में जेएमएम, तमिलनाडु में डीएमके और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। उनकी मुश्किल यह है कि अपने ही राज्य में वे किसके खिलाफ आंदोलन करें! सो, ये पार्टियां भी सिर्फ बयान देकर भाजपा से लड़ रही हैं। इन्हें उलटे अपनी सरकार की एंटी इन्कम्बैंसी का जवाब देना है। तभी विपक्ष का न कोई मुद्दा है, न लड़ाई है, न नैरेटिव है और न कोई आंदोलन है।
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