शुरुआत इस सवाल से कर सकते हैं कि क्या कांग्रेस के शशि थरूर और जयराम रमेश को पता नहीं है कि 1950 में अंगीकार किए जाने के बाद भारतीय संविधान कितनी बार बदला जा चुका है? अगर वे जानते हैं तो फिर भाजपा के किसी नेता के संविधान बदलने की बात कहने पर इतनी प्रतिक्रिया क्यों देते हैं? इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि इस मसले पर भाजपा क्यों बैकफुट पर आती है? क्या उसके मन में कोई चोर है, जिसकी वजह से वह घबरा जाती है और सफाई देने लगती है?
सोचें, कर्नाटक के फायरब्रांड नेता और सांसद अनंत हेगड़े की टिकट भाजपा ने काट दी। उन्होंने टिकटों की घोषणा से कुछ दिन पहले कहा था कि इस बार चुनाव जीतने के बाद भाजपा संविधान में बदलाव करेगी। इसी तरह राजस्थान की नागौर सीट से चुनाव लड़ रहीं भाजपा की ज्योति मिर्धा ने संविधान बदलने की बात कही तो कांग्रेस के नेता उनके ऊपर टूट पड़े और भाजपा बचाव की मुद्रा में आ गई। तभी इस तरह से बयान और उन पर होने वाली प्रतिक्रिया को समझने की जरुरत है।
भारतीय राजनीति और संविधान के बारे में जानकारी रखने वालों को पता है कि 1950 में अंगीकार किए जाने के बाद भारतीय संविधान एक सौ बार से ज्यादा बदला जा चुका है। सितंबर 2023 तक की स्थिति के मुताबिक संविधान में 106 संशोधन हो चुके हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को यह भी पता है कि 42वां और 44वां संशोधन कैसा था। 42वें संशोधन से तो इंदिरा गांधी ने संविधान में आमूलचूल बदलाव कर दिया था, जिसे जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संशोधन के जरिए कुछ हद तक ठीक किया।
इमरजेंसी के समय 42वें संशोधन से इंदिरा गांधी ने एक साथ संविधान के 41 अनुच्छेदों में बदलाव किया था और 13 नए अनुच्छेद जोड़े थे। इसी संशोधन में लोकसभा की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द जोड़े गए थे और लोकसभा का कार्यकाल छह साल कर दिया गया था। बाद में जनता सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा बदले गए ज्यादातर अनुच्छेदों को 44वें संशोधन के जरिए पुराने रूप में स्थापित किया और अनुच्छेद 19 (1) (एफ) को हटा दिया था, जिसके जरिए संपत्ति इकट्ठा करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी।
सोचें, जब संविधान में इतने संशोधन हो चुके हैं और खुद कांग्रेस के राज में 42वें संशोधन जैसा काम हुआ तो फिर कांग्रेस की ओर से इस बात को इतना बड़ा मुद्दा बनाने की क्या जरुरत है कि भाजपा जीती तो संविधान में बदलाव होगा? क्यों राहुल गाधी इतने इमोशनल हो जा रहे हैं कि यहां तक बोल जा रहे हैं कि अगर भाजपा ने संविधान बदला तो देश में आग लग जाएगी? साथ ही यह भी सवाल है कि भाजपा इस बात पर इतनी रक्षात्मक क्यों हो जाती है? ध्यान रहे भाजपा ने संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद 370 हटाने का वादा किया था, जिसे उसने 2019 में पूरा कर दिया। यह बड़ा मुद्दा था लेकिन भाजपा ने जब संविधान में बदलाव किया तो इसका कोई विरोध नहीं हुआ।
यह ध्यान रखने की जरुरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में केशवानंद भारती केस में संविधान के बुनियादी ढांचे का एक सिद्धांत विकसित किया था। इसमें सर्वोच्च अदालत ने संविधान की कुछ बातों को बुनियादी ढांचे का हिस्सा बताते हुए उनमें बदलाव को निषेध कर दिया था। इसमें मौलिक अधिकार से लेकर देश में शासन की लोकतांत्रिक पद्धति और संघीय ढांचे की शासन व्यवस्था शामिल है। इसका मतलब है कि कितने भी बड़े बहुमत वाली सरकार होगी तो वह मौलिक अधिकारों को नहीं खत्म कर पाएगी, न लोकतंत्र को खत्म कर पाएगी और न संघीय ढांचे वाली सरकार की व्यवस्था को खत्म कर पाएगी।
अगर सरकार ऐसा कुछ करती है तो सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर सकता है। नरेंद्र मोदी की पहली सरकार ने न्यायपालिका में नियुक्ति के मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी का बिल पास कराया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे निरस्त कर दिया और सरकार ने फिर उसकी पहल नहीं की। सो, न्यायपालिका के स्वतंत्र रहते संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव संभव नहीं है। हां, न्यायपालिका की स्वतंत्रता किसी वजह से खत्म हो जाए या जैसी कि चिंता जताई जाती है किसी सरकार को प्रतिबद्ध न्यायपालिका मिल जाए तब तो कुछ भी हो सकता है।
बहरहाल, पिछले अनेक बरसों से भाजपा के नेता संविधान में कुछ चीजें बदलने की बात करते रहे हैं। जैसे भाजपा जजों की नियुक्ति की मौजूदा कॉलेजियम व्यवस्था को बदलना चाहती है। इसी तरह संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को हटाने की भी मांग गाहेबगाहे भाजपा के नेता करते रहते हैं। लेकिन ये दोनों बातें तो ऐसी नहीं है, जिनकी वजह से भाजपा को बैकफुट पर आना पड़े। कॉलेजियम सिस्टम को बदलने का एक प्रयास वह कर चुकी है। इसलिए दोबारा प्रयास में भी उसे कोई दिक्कत नहीं होगी। इसी तरह संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की बात भी भाजपा की विचारधारा से अलग की बात नहीं है।
ध्यान रहे भाजपा के कई बड़े नेता धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को आयातित बता चुके हैं। उनका मानना है कि यह पश्चिमी सिद्धांत है, जिसकी भारत में जगह नहीं है। इसलिए इस पर भी रक्षात्मक होने की जरुरत नहीं है। हां, भाजपा के नेता कई बार अध्यक्षीय यानी शासन की राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने की बात करते हैं। लेकिन वह संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव का मुद्दा है, जो सिर्फ बहुमत के दम पर नहीं किया जा सकता है। उसके लिए न्यायपालिका का समर्थन भी जरूरी होगा।
जहां तक जनसंख्या नियंत्रण का कानून बनाने की बात है या हिंदी भाषा की सर्वोच्चता बनाने या राज्यों की सीमाओं के पुनर्निधारण की बात है या सबके लिए समान नीति बनाने की बात है या धर्मस्थल कानून को बदलने की बात है तो ये काम भाजपा अपने मौजूदा बहुमत के दम पर भी कर सकती थी। उसने नहीं किया है तो इसका मतलब है कि उसे नहीं लगता है कि अभी इनका समय आया है या उसे लग रहा है कि ऐसा करने का कोई बड़ा राजनीतिक फायदा नहीं होने वाला है उलटे टकराव का नया मोर्चा खुल सकता है।
सो, भाजपा के रक्षात्मक होने की जो एकमात्र वजह समझ में आती है वह ये है कि संविधान बदलने की बात को दलित और पिछड़ा अस्मिता के साथ जोड़ा सकता है। विपक्षी पार्टियां यह प्रचार कर सकती हैं कि बाबा साहेब भीमराम अम्बेडकर के लिखे संविधान को भाजपा समाप्त करके नया संविधान लाना चाहती है, जिसमें दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, महिलाओं के अधिकार कम कर दिए जाएंगे। भाजपा की दूसरी चिंता आरक्षण की व्यवस्था को लेकर है।
विपक्ष यह मुद्दा बना सकता है कि भाजपा संविधान बदल कर आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करना चाहती है। इसका भी असर दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय पर होगा। ध्यान रहे भाजपा के कई नेता आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल उठा चुके हैं और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार संविधान की समीक्षा की बात कही थी। उनके उस एक बयान से 2015 में भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव गंवा दिया था। तभी ऐसा लग रहा है कि भाजपा का कोई भी नेता जैसे ही संविधान बदलने की बात करता है भाजपा तुरंत एक्शन में आती है। उसे चुप कराया जाता है और सफाई दी जाती है ताकि विपक्ष को इसे मुद्दा बनाने का मौका न मिले। कांग्रेस को भी इसका अंदाजा है इसलिए वह भी ‘बाबा साहेब का लिखा संविधान’ और आरक्षण समाप्त किए जाने का ही नैरेटिव बनाती है।
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