राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

केंद्र और राज्यों में इतने झगड़े!

vijyan-keral

तमिलनाडु सरकार की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि आजकल कई राज्य सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहे हैं और केंद्र के ऊपर भेदभाव के आरोप लगा रहे हैं। अदालत ने कहा कि राज्यों और केंद्र के बीच विवाद नहीं होना चाहिए। यह अदालत की सदिच्छा है और आदर्श स्थिति भी है कि केंद्र और राज्य आपस में नहीं लड़ें और सह अस्तित्व के सिद्धांत का पालन करें। आखिर भारत में शासन के संघीय ढांचे को अपनाया गया है।

लेकिन संविधान में अपनाई गई संघवादी व्यवस्था के प्रावधानों को देखेंगे तो पता चलता है कि भारत में शक्ति का संतुलन केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है। यानी केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा है और दोनों के कामकाज तय हैं पर प्राथमिकता केंद्र को है और विवाद की स्थिति में आमतौर पर केंद्र की ही जीत होती है। यह हकीकत है कि जब भी केंद्र में बहुत मजबूत सरकार होती है तो राज्यों के साथ विवाद बढ़ता है क्योंकि तब केंद्र की प्रवृत्ति किसी न किसी तरह से राज्यों को नियंत्रित करने की रहती है।

अब तो स्थितियां बदल गई हैं अन्यथा सत्तर, अस्सी के दशक में बात बात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता था। चुनी हुई सरकारों को किसी न किसी बहाने बरखास्त करने का बहुत चलन था। अब वैसा नहीं हो रहा है लेकिन पहले के मुकाबले राज्यों के कामकाज में केंद्र का दखल बढ़ गया है। राज्यपालों के जरिए, केंद्रीय एजेंसियों के जरिए, वित्तीय शक्तियों के जरिए या किसी और तरीके से केंद्र का शिकंजा राज्यों पर कस गया है। जब से वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी का कानून लागू हुआ तब से राज्यों की केंद्र पर निर्भरता और बढ़ गई है।

पहले राज्य अपने सारे कर खुद वसूलते थे। हर राज्य सरकार के पास अपने राज्य की स्थितियों के मुताबिक उसे घटाने बढ़ाने का अधिकार था। लेकिन एक देश, एक टैक्स की जीएसटी व्यवस्था में राज्यों का यह अधिकार केंद्र को चला गया है। राज्य अब सिर्फ पेट्रोलियम उत्पादों और शराब पर ही कर वसूल सकते हैं। बाकी सारे कर केंद्र सरकार वसूलती है और उसमें से राज्यों को उनका हिस्सा देती है। यह व्यवस्था लागू होने के बाद से ही राज्य सरकारें जीएसटी का बकाया नहीं मिलने या जीएसटी वसूली कम होने पर मुआवजा नहीं मिलने की शिकायत करती रही हैं। अपनी आर्थिक शक्तियां केंद्र के हाथों में देकर राज्यों ने खुद अपने को कमजोर किया है।

विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्य सरकारों की शिकायत जीएसटी बकाए की तो होती ही है और भी भेदभाव की होती है। पश्चिम बंगाल से लेकर कर्नाटक और पंजाब तक सभी विपक्षी पार्टियों के शासन वाली सरकारें बकाए का रोना रोती हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री और उनकी पूरी कैबिनेट ने तो दिल्ली में आकर प्रदर्शन किया और कहा कि उनके यहां से सौ रुपया टैक्स वसूला जाता है तो उसमें से 12 या 13 रुपए ही राज्य सरकार को मिलते हैं। इसके अलावा कर्नाटक सरकार ने सूखा राहत की राशि नहीं मिलने का मुद्दा भी उठाया।

कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की मांग आर्थिक थी लेकिन भाजपा ने पूरा नैरेटिव ही बदल दिया। प्रधानमंत्री तक कहने लगे कि देश के बंटवारे की बात हो रही है। जबकि हकीकत यह है कि जब नरेंद्र मोदी खुद गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो बिल्कुल इसी भाषा में केंद्र से शिकायत करते थे। उन्होंने कितनी बार कहा कि गुजरात टैक्स के रूप में कितना रुपया केंद्र को देता है और उसमें से कितना कम गुजरात को वापस मिलता है। लेकिन अब यही बात कर्नाटक और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री कह रहे हैं तो भाजपा उसे देश तोड़ने वाली बात बता रही है। उत्तर और दक्षिण के विभाजन को इससे जोड़ दिया जाता है। जबकि बकाए का मामला पंजाब, बंगाल और झारखंड की सरकारें भी उठाती रहती हैं।

राज्यों की एक शिकायत भेदभाव की है, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। तमिलनाडु सरकार का कहना है कि आपदा राहत के नाम पर उसे 38 हजार करोड़ रुपए की मदद मिलनी चाहिए थी, जो केंद्र ने नहीं दी है। हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक आपदा के बाद राज्य की कांग्रेस सरकार का कहना है कि उसने केंद्र से जितनी मदद मांगी उतनी उसे नहीं मिली। पश्चिम बंगाल में आए चक्रवात के बाद ममता बनर्जी की सरकार ने भी केंद्र से मदद मांगी थी और उनका कहना है कि केंद्र ने बंगाल सरकार को नाममात्र की मदद की। यह शिकायत भी विपक्षी शासन वाले राज्यों की है कि बाढ़, सूखा, चक्रवात या किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय मदद करने में उनके साथ भेदभाव होता है।

राज्यों की एक अन्य शिकायत राज्यपालों की सक्रियता को लेकर भी है। राज्यपाल पहले भी केंद्र के एजेंट के तौर पर काम करते थे। आखिर उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति करते हैं। लेकिन अब राज्यपालों की अति सक्रियता का दौर चल रहा है। राज्यपाल विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति से लेकर दूसरी नियुक्तियों तक में सीधा दखल दे रहे हैं, जिसकी वजह से राज्यों को कानून बना कर राज्यपालों को रोकना पड़ रहा है। राज्यपाल कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सीधा दखल दे रहे हैं और पुलिस अधिकारियों को बुला कर रिपोर्ट ले रहे हैं।

अधिकारियों को हटाने की सिफारिशें कर रहे हैं। राज्यपाल राज्य की विधानसभा से पास विधेयकों को महीनों लटकाए रखते हैं और फैसला कराने के लिए सरकारों को सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ रहा है। केरल और तमिलनाडु दोनों राज्यों में राज्यपाल कई कई विधायक महीनों तक रोके रहे और राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट जाकर कुछ राहत हासिल की। पंजाब जैसे संवेदनशील राज्य में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने के राज्य सरकार के फैसले पर ऐसा विवाद हुआ कि राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने की चेतावनी दे दी। तमिलनाडु के एक मंत्री की सजा पर सुप्रीम कोर्ट के रोक लगाने के बावजूद राज्यपाल ने संवैधानिक नैतिकता के आधार पर उनको फिर से शपथ दिलाने से मना कर दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद राज्यपाल ने मंत्री को शपथ दिलाई।

केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का मामला भी विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों की मुसीबत है। दिल्ली के मुख्यमंत्री को ही ईडी ने गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ईडी के अधिकारियों की गाड़ी में बैठ कर राजभवन गए और इस्तीफा दिया, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। पश्चिम बंगाल से लेकर तमिलनाडु और दिल्ली सरकार के अनेक मंत्री केंद्रीय एजेंसियों द्वारा गिरफ्तार किए गए। केंद्रीय एजेंसियां सास बहू सीरियल की तरह मामलों की जांच कर रही हैं।

बरसों तक जांच ही चलती रहती है और धारावाहिक की तरह एक एक करके आरोपियों की गिरफ्तारी होती है। इससे बरसों तक जेल में बंद लोगों को जमानत नहीं मिल पाती है। सो, संघवाद, जो भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है वही विचार प्रभावित होता दिख रहा है। लंबे समय तक इससे जुड़े मसले अदालतें नहीं सुलझा सकती हैं। अंत में राजनीतिक तौर पर ही इस मामले को सुलझाना होगा।

यह भी पढ़ें:

विचारधारा की लड़ाई कहां है?
संविधान बदलने का इतना हल्ला क्यों मचा है?

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *