भारतीय जनता पार्टी इस बार अखिल भारतीय राजनीति कर रही है। वह सिर्फ उत्तर भारत या पश्चिम और पूरब के अपने असर वाले इलाकों तक ही सीमित नहीं दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार के चुनाव अभियान का आगाज ही दक्षिण भारत से किया है। यह भी कह सकते हैं कि चुनावी साल यानी वर्ष 2024 की शुरुआत प्रधानमंत्री ने दक्षिण के दौरे से की।
पहले 15 दिन में ही वे कई बार दक्षिणी राज्यों में गए। अभी इस साल के पहले तीन महीने में कई दक्षिण भारतीय राज्य ऐसे हैं, जहां प्रधानमंत्री मोदी के पांच पांच दौरे हो चुके हैं। ऐसा नहीं है कि मोदी दक्षिण में दौरे, रैलियां, रोड शो आदि करके सिर्फ चुनावी नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी पार्टी संगठन के स्तर पर भी इन राज्यों में काम कर रही है और रणनीति के तौर पर अनेक प्रादेशिक पार्टियों के साथ तालमेल किया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी को पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में एक फीसदी से कम वोट मिला था, लेकिन उसने 40 फीसदी वोट हासिल करने वाली तेलुगू देशम पार्टी से तालमेल करके राज्य की 25 में से छह लोकसभा सीटें लड़ने के लिए ले ली हैं।
इसी तरह पिछली बार वह तमिलनाडु में अन्ना डीएमके से तालमेल में सिर्फ पांच सीटों पर लड़ी थी लेकिन इस बार वह 22 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है और चार पार्टियों के साथ तालमेल किया है। डीएमके नेता और मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का सीधा हमला भाजपा पर हो रहा है। हाल के दिनों में उनका एक भी बयान मुख्य प्रतिद्वंद्वी अन्ना डीएमके के खिलाफ नहीं दिखाई दिया है। भाजपा उनके ऊपर और वे भाजपा के ऊपर रोज हमला कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे तमिलनाडु में डीएमके व कांग्रेस गठबंधन का मुकाबला भाजपा गठबंधन से हो। चार दशक से ज्यादा समय के बाद ऐसा हो रहा है कि तमिलनाडु की राजनीति में किसी राष्ट्रीय पार्टी के प्रचार का नैरेटिव बन रहा है।
असल में इस बार की चुनावी राजनीति बहुत कौतुहल पैदा करने वाली है। शास्त्रीय राजनीतिक नजरिए से देखें तो कौतुहल विपक्षी पार्टी कांग्रेस और उसके गठबंधन को लेकर होनी चाहिए थी लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कौतुहल भारतीय जनता पार्टी ने बनाया है, जो लगातार 10 साल तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद तीसरी बार जनादेश हासिल करने के लिए मैदान में उतरी है। भाजपा की राजनीति को लेकर कौतुहल तीन कारणों से बना है। पहला, भाजपा ने 370 सीटें हासिल करने का लक्ष्य तय किया और एनडीए के लिए चार सौ पार का नारा दिया।
सवाल है कि वह साधारण बहुमत यानी 272 के जादुई आंकड़े की बजाय 370 का प्रचार क्यों कर रही है और क्यों उसे इतनी सीटें चाहिए? दूसरे, इस साल के शुरू में ही भाजपा ने अपने तमाम विरोध को दरकिनार करके नीतीश कुमार की गठबंधन में वापसी करा कर पूरे देश में नए सिरे से गठबंधन करने का संदेश दिया। पिछले दो महीने में भाजपा ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक दर्जनों पार्टियों के साथ गठबंधन बनाया है।
सवाल है कि जब भाजपा खुद इतनी मजबूत है तो उसे इतने समझौते करके गठबंधन बनाने की क्या जरुरत है? कौतुहल का तीसरा कारण दक्षिण का अभियान है। सवाल है कि जब भाजपा अपने असर वाले राज्यों में फिर से पिछला प्रदर्शन दोहराने के भरोसे में है और उसने जो नैरेटिव बनाया है, उससे एक तरफ जहां भाजपा का कोर समर्थक वर्ग ज्यादा मजबूती से पार्टी के साथ जुड़ा है तो अनिर्णय की स्थिति वाले मतदाता भी उसके साथ जुड़े हैं तो फिर उसे दक्षिण में इतनी मेहनत करने की क्या जरुरत है?
कौतुहल पैदा करने वाले इन तीनों कदमों और उनसे उठे सवालों का एक ही जवाब है और वह है भारत की राजनीति पर अपना पूर्ण प्रभुत्व बनाना। यह मानने में हिचक नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जिन राज्यों में मजबूत है वहां इस बार भी लोकसभा चुनाव में उसकी बढ़त रहने वाली है। विपक्षी गठबंधन के बिखराव, नैरेटिव की कमी और नेतृत्व को लेकर विवाद की वजह से विपक्षी पार्टियां खासतौर से मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह भाजपा को उन राज्यों में टक्कर दे सके, जहां वह पहले से मजबूत है।
हिंदी पट्टी के ज्यादातर राज्यों में ज्यादा संभावना इस बात की है कि भारतीय जनता पार्टी अपना पुराना प्रदर्शन दोहराएगी। तभी इस तर्क में ज्यादा दम नहीं दिख रहा है कि भाजपा बहुत बेचैन है या अलग अलग पार्टियों के सामने सरेंडर करके तालमेल इसलिए कर रही है क्योंकि उसको लग रहा है कि इस बार वह हार जाएगी। दक्षिण में भी नरेंद्र मोदी के ज्यादा भागदौड़ करने से इस निष्कर्ष पर पहुंचना कि उत्तर के नुकसान की भरपाई भाजपा दक्षिण से करना चाह रही है, सही नहीं होगा।
लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर भाजपा बहुत आशंका में नहीं है। कह सकते हैं कि वह उतनी ही आशंकित है जितना चुनाव से पहले कोई भी नेता होता है या पार्टी होती है। असल में इस बार भाजपा को अपना वर्चस्व पहले से ज्यादा मजबूत करना है और उसे हर हाल में अखिल भारतीय पार्टी बन कर दिखाना है। तभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ग्राउंड ब्रेकिंग राजनीति कर रही है। वह एक एक करके ऐसे राज्यों में पार्टी को स्थापित कर रही है, जहां उसका पहले आधार नहीं रहा है।
यह लंबे समय की राजनीति है, जिसका लक्ष्य अभी भविष्य के गर्भ में है। सोचें, कैसे पिछले 10 साल में मोदी और शाह ने भाजपा को असम की मुख्य पार्टी बना दिया या पश्चिम बंगाल में राजनीति की दूसरी सबसे अहम धुरी बना दिया! 10 साल पहले भाजपा बिहार में नीतीश कुमार की पिछलग्गू थी और महाराष्ट्र में शिव सेना की सबऑर्डिनेट थी। लेकिन अब इन दोनों राज्यों में भाजपा सबसे बड़ी ताकत है और ऐसा सिर्फ संयोग से या अचानक नहीं हुआ है, बल्कि राजनीतिक दांव-पेंच और मेहनत से हुआ है।
सो, इस बार भाजपा बिहार में नीतीश कुमार से, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू से, कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा से, महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे व अजित पवार से, तमिलनाडु में अंबुमणि रामदॉस, टीटीवी दिनाकरण, जीके वासन आदि से तालमेल कर रही है तो उसका एक मकसद अपना बहुमत सुरक्षित करना है और दूसरा मकसद ताकत बढ़ाना है। उसे वह ताकत हासिल करनी है, जो कांग्रेस की पांचवें-छठे दशक में थी।
देश की राजनीति पर संपूर्ण प्रभुत्व बनाना है। उसे उत्तर से दक्षिण तक अखिल भारतीय पार्टी बनना है। उसे विपक्ष को या तो पूरी तरह से समाप्त कर देना है या हाशिए में पहुंचा देना है। भाजपा के मौजूदा नेतृत्व का लक्ष्य पूरे देश में भाजपा ब्रांड पोलिटिक्स को स्थापित करने की है। यह देखना दिलचस्प है कि भारत में धीरे धीरे पार्टियां भाजपा ब्रांड राजनीति को अपनाने लगी हैं। नेहरूवादी सेकुलर, उदार राजनीति की बजाय कट्टरपंथी राजनीतिक विचारधारा मजबूत हो रही है। इसका मतलब है कि भाजपा के कंट्रास्ट में राजनीति करने वाली जो पार्टियां हैं वे उसे चुनौती नहीं दे सकती हैं।
लंबे समय में भाजपा ब्रांड राजनीति से ही वैकल्पिक राजनीति का जन्म होगा। यह भारतीय राजनीति का 360 डिग्री टर्न होगा। पहले कांग्रेस की उदार, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राजनीति चलती थी, जिसके बरक्स भाजपा जैसी पार्टी को भी गांधीवादी समाजवाद का आदर्श पेश करना होता था। लेकिन अब भाजपा की प्रभुत्व वाली, धार्मिक, पूंजीवाद और एक हद तक अनुदारवादी राजनीति का दौर चलेगा और उसे चुनौती देने वाली पार्टी को इसी राजनीति का थोड़ा उदार संस्करण बनना होगा।
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