आजादी के अमृत काल का दूसरा और वैसे 74वां गणतंत्र दिवस आज पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जा रहा है। इससे ठीक पहले भारत सरकार ने दावा किया है कि देश का शरीर 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ था लेकिन देश की आत्मा को स्वतंत्रता 22 जनवरी को मिली है, जिस दिन अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हुई। इस लिहाज से कह सकते हैं कि देश की आत्मा की स्वतंत्रता के बाद का पहला गणतंत्र दिवस आया है।
बहरहाल, भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और गणतंत्र का तो इतिहास ही भारत से शुरू होता है। ईसा से कोई छह सौ साल पहले लिच्छवी गणराज्य की स्थापना हुई थी और उसके बाद दुनिया में जहां भी गणतंत्र को अपनाया गया वहां किसी न किसी रूप में लिच्छवी गणराज्य की परंपराओं को स्वीकार किया गया। आजादी के तीन साल बाद भारत भी उस दिन गणतंत्र बना, जिस दिन संविधान को अंगीकार किया गया। भारत में गणतंत्र की सार्थकता और उसके उत्सव का महत्व इसमें अंतर्निहित है कि संविधान की मूल भावना फलती-फूलती रहे।
संविधान की मूल भावना क्या है? देश की सर्वोच्च अदालत ने संविधान के बुनियादी ढांचे का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। मोटे तौर पर उसे संविधान की मूल भावना कह सकते हैं। इसमें नागरिकों के मौलिक अधिकार शामिल हैं तो देश में शासन की संघीय प्रणाली का संरक्षण भी शामिल है। संस्थाओं की स्वायतत्ता और शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत भी बुनियादी ढांचे के सिद्धांत के तहत आता है। नागरिकों को अवसर की समानता और देश में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव भी संविधान की मूल भावना में परिलक्षित होते हैं।
संविधान बनाने वालों ने नागरिकों के मौलिक कर्तव्य भी तय किए थे और हर नागरिक को धर्म चुनने और उसका पालन करने की आजादी भी दी थी। खान-पान और पहनावे की आजादी मौलिक अधिकारों के दायरे में आती है। गणतंत्र दिवस के मौके पर यह सब याद दिलाने का मकसद यह है कि इन दिनों संविधान की कई मूल भावनाओं को किसी न किसी रूप में चुनौती मिल रही है।
एक लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में भारत के सामने पहले भी कई चुनौतियां आई हैं और कह सकते हैं कि हर चुनौती ने भारतीय लोकतांत्रिक गणतंत्र को मजबूत बनाया। देश में इमरजेंसी लगाए जाने और 42वें संशोधन के जरिए संविधान की मूल भावना को बदल देने के प्रयासों से भारत का लोकतंत्र कमजोर नहीं हुआ। उसके बाद भारत का लोकतंत्र भी मजबूत हुआ और गणतंत्र भी। नई सरकार ने संविधान के 44वें संशोधन से कई चीजों को वापस पुराने रूप में बहाल किया और उसके बाद भारी बहुमत से सत्ता में लौटीं इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौर में किए गए फैसलों को वापस बहाल करने की गलती नहीं की। उन्हें सबक मिल चुका था। आज भी सरकार के कामकाज में संविधान के कुछ सिद्धातों से विचलन दिख रहा है और संविधान के कुछ सिद्धांतों को लेकर आशंका मंडरा रही है। यह चिंता की बात है।
संवैधानिक सिद्धांतों से विचलन को कथित विकास और हिंदू पुनर्जागरण के नारे से ढका जा रहा है। सरकार दावा कर रही है कि अमृत काल चल रहा है और आजादी की सौवीं वर्षगांठ तक भारत एक विकसित देश बन जाएगा। यह भी दावा किया जा रहा है कि भारत गुलामी के प्रतीकों से मुक्त हो रहा है। यह भी कहा गया है कि देश की आत्मा अब आजाद हुई है। सरकार और सत्तारूढ़ दल की ओर से प्रचारित किया जा रहा है कि देश आत्मनिर्भर हो रहा है और दुनिया में भारत की आवाज अब ज्यादा मजबूती से सुनी जा रही है।
विदेश मंत्री ने यहां तक कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी प्रासंगिकता खो रहा है और दुनिया बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए भारत की ओर देख रही है। शीर्ष नेतृत्व के प्रति अपनी स्वामीभक्ति दिखाने के लिए इस तरह की बातें पहले भी नेता करते रहे थे। इसलिए विदेश मंत्री अपवाद नहीं हैं। बहरहाल, सरकार की ओर से किए जा रहे विकास के दावे अपनी जगह हैं। दूसरी ओर एक हकीकत यह है कि संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के सामने नई चुनौतियां आ गई हैं।
संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता सवालों के घेरे में है। चुनाव आयोग जैसी संस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं, जिससे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा प्रभावित हो रही है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए सबसे बुनियादी जरुरत है कि चुनाव आयोग और उसकी गतिविधियां संदेह से परे रहें। लेकिन चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट की बनाई व्यवस्था को बदल कर नई व्यवस्था के तहत सब कुछ सरकार का अपने हाथों में लेना संदेह पैदा करता है। इससे चुनाव की प्रक्रिया पर और अविश्वास बढ़ेगा। विपक्षी पार्टियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल को लेकर भी सरकार कठघरे में है।
पहले भी केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई विपक्ष के खिलाफ ज्यादा होती थी लेकिन अब अति हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है। राज्यों की पुलिस और दूसरी एजेंसियां केंद्रीय एजेंसियों के खिलाफ मुकदमे कर रही हैं। इससे अंततः संघवाद की धारणा प्रभावित होती है। भारत जैसे भाषायी और सांस्कृतिक विविधता वाले देश में संघवाद की धारणा का संपूर्णता में पालन एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य शर्त है।
एक देश, एक चुनाव को लेकर विचार चल रहा है। उससे पहले पहले एक देश, एक टैक्स की व्यवस्था लागू की गई, जिससे राज्यों की आर्थिक स्वायत्तता खतरे में आई है। सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति डावांडोल है। केंद्र सरकार भी कर्ज के बोझ तले डूबी है लेकिन राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है। इस बीच यह भी खबर आई कि जीएसटी लागू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर में एक तिहाई हिस्सेदारी ही राज्यों को देना चाहते थे। हालांकि वित्त आयोग की सिफारिशों से 42 फीसदी हिस्सेदारी राज्यों को मिलती है।
इसी तरह एक देश, एक चुनाव की बात सुनने में भले अच्छी लग रही हो लेकिन उससे देश में लोकतंत्र और संघीय ढांचे के सामने नई चुनौतियां पैदा होंगी। लगभग सभी विपक्षी पार्टियां इन चुनौतियों की ओर इशारा कर रही हैं। उन्हें समझने की जरुरत है। चुनाव आयोग के सामने भी अपनी स्वायत्तता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की चुनौती है।
संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया गया है, जिसके तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारियों को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया गया है। गणतंत्र दिवस से दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जुड़े मामले की सुनवाई में चीफ जस्टिस ने सॉलिसीटर जनरल को याद दिलाया कि कानून के मामले में विधायिका सर्वोच्च है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से विधायिका का कामकाज सवालों के घेरे में है। कानून बनाने की प्रक्रिया में विपक्ष को पूरी तरह से किनारे कर दिया गया है।
संसदीय समितियों की भूमिका सीमित कर दी गई है और संसद में चंद मिनटों में बिना बहस और सार्थक चर्चा के कानून पास हो रहे हैं। ऊपर लिच्छवी गणराज्य का संदर्भ देने का एक मकसद यह बताना भी था कि उस समय सब कुछ बहस या विमर्श के जरिए तय होता था। उसके लिए भारत के लोकतांत्रिक गणतंत्र में स्पेस कम होता जा रहा है। उस स्पेस की बहाली गणतंत्र को और खूबसूरत बनाएगी साथ ही मजबूत भी बनाएगी।
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