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योगी के प्रति मुग्ध भाव का नया समाजशास्त्र

भारत के 97 करोड़ हिंदुओं में से 40 फ़ीसदी को भी अगर मैं पूरी तरह मतांध-विरोधी मान लूं तो भी 50 करोड़ से ज़्यादा हिंदू ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिल-दिमाग़ पर ताले लटका लिए हैं। वे वही सुन रहे हैं, जो उन्हें सुनना है; वे वही देख रहे हैं, जो उन्हें देखना है; और, वे वही बोल रहे हैं, जो उन्हें बोलना है। दो, उन के मन-मस्तिष्क बदल देने का माद्दा रखने वाला फ़रिश्ता अभी तो दूर-दूर तक आसमान से उतरता दिखाई नहीं देता।

हमारे समाज का पिछले एक दशक में जैसा (कु)रूपांतरण हुआ है, उस ने अतीक अहमद प्रसंग के बाद योगी आदित्यनाथ की छवि एक बड़े तबके में, संवैधानिक आचार संहिता के उजड्ड अवज्ञाकारी के बजाय आसुरी शक्तियों के संहारक की, बना दी है। मैं मानता हूं कि उन के तसव्वुर का यह आयाम बेहद लज्जास्पद है, लेकिन जिन्हें उन की संकटमोचक सरीखी बनती छवि के मेरे इस आकलन पर आपत्ति हो, वे अपनी अट्टालिका से नीचे उतर कर ज़रा इधर-उधर टहल आएं। इस के बाद वे समाजशास्त्र की ताज़ातरीन परिभाषा जान कर धक्क रह जाएंगे।

जिन्हें यह आलाप लगाना है कि न्याय संवैधानिक तौर-तरीक़ों से होना चाहिए, वे अपना यह आलाप लगाते रहें। उन्हें ऐसा करते भी रहना चाहिए, क्योंकि आख़िर कोई तो यह शाश्वत प्रश्न उछालता रहे कि राज्य-व्यवस्थाओं की भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती जा रही है? मगर इस सच्चाई से नज़रें फेरे रखने से भी कुछ नहीं होने वाला कि, सही हो या ग़लत, व्यापक जन-मन में कुछ मामलों को ले कर संविधानेतर उपाय अपनाने वाली शासन व्यवस्थाओं से विमुखता का कोई भाव नहीं है। उल्टे एक तरह का मुग्ध-भाव टपक रहा है।

यह चिंता की बात है। लेकिन उस से भी ज़्यादा घनघोर चिंता की बात यह है कि इस स्थिति तक हम पहुंचे कैसे? बरसों-बरस ऐसा क्या हुआ कि आम-जन इतने उकता गए, इतने खीज गए, इतने चिढ़ गए कि संवैधानिक दायरों के बाहर माने जाने वाले कथांशों पर कहने लगे कि जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा? यह बट्ठरपन अगर आज की सामाजिक सोच पर हावी हुआ है तो उस की वजह तो कहीं ज़रूर रही होगी। योगी को रक्षक-देव के रूप में देख रहे लोगों को मैं मूढ़ मानता हूं। मगर इस तथ्य को गलीचे के नीचे चुपचाप कैसे सरकाऊं कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की दुहाई देने वालों के अंतर्मन में भी योगी के लिए कोई बड़ी फांस नहीं है।

इसलिए अजयसिंह बिष्ट अब सचमुच योगी आदित्यनाथ बन चुके हैं। पौड़ी-गढ़वाल के पंचूर गांव से चल कर गोरखपुर होते हुए वे लखनऊ तक पहुंचे थे, मगर अब वे लखनऊ की चौहद्दी से बाहर की यात्रा आरंभ कर चुके हैं। उन का क़द उत्तरप्रदेश से बड़ा होता जा रहा है। मुझे नहीं मालूम कि नरेंद्र भाई मोदी को इस फ़िक्र ने नोचना शुरू कर दिया है या नहीं कि हिंदू हृदय सम्राट की उन की गद्दी अब कितने दिन सुरक्षित है, लेकिन इतना मैं ज़रूर जानता हूं कि देश के धर्मोन्मत्त मानस में एक नए हिंदू हृदय सम्राट का चेहरा ठोस आकार लेने लगा है। योगी एक-डेढ़ महीने बाद 51 साल के होंगे। सामान्यतौर पर उन के पास अपने सपने पूरे करने के लिए 25 साल का समय तो शेष पड़ा ही है। तब नरेंद्र भाई 98 के हो जाएंगे और अमित भाई शाह 84 के।

एक बात और पक्की है। भारत के सामाजिक तानेबाने ने जो शक़्ल अख़्तियार कर ली है, उसे फिर से जस-का-तस करना अब तक़रीबन नामुमकिन है। इस के दो कारण हैं। एक, हिंदू होने का (कु)गर्व वंशानुक्रमिक-सा हो गया है। भारत के 97 करोड़ हिंदुओं में से 40 फ़ीसदी को भी अगर मैं पूरी तरह मतांध-विरोधी मान लूं तो भी 50 करोड़ से ज़्यादा हिंदू ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिल-दिमाग़ पर ताले लटका लिए हैं। वे वही सुन रहे हैं, जो उन्हें सुनना है; वे वही देख रहे हैं, जो उन्हें देखना है; और, वे वही बोल रहे हैं, जो उन्हें बोलना है। दो, उन के मन-मस्तिष्क बदल देने का माद्दा रखने वाला फ़रिश्ता अभी तो दूर-दूर तक आसमान से उतरता दिखाई नहीं देता। रोज़मर्रा की सियासी-टुच्चई में रमे लोगों से सामाजिक बदलाव की कक्खट इबारत उकेरने की उम्मीद करूं – इतना भी मासूम मैं नहीं रहा। आप हों तो करते रहिए।

सोचिए तो सही कि आज से दस बरस पहले ही यह देश इस दशा को प्राप्त हो गया था कि उस में सर्वसमावेशी और कुल मिला कर सकारात्मक राजनीति की आराधना करने वाला कांग्रेस जैसा दल तो लोकसभा में साढ़े चार दर्जन सीटों पर ही हिलग गया और पूरी तरह निर्लज्ज हो कर धर्म का धंधा करने वाला राजनीतिक दल 282 सीटों का आंकड़ा छू गया। पांच साल और बीते तो हिलमिल कर रहने की चिरंतन गुहार लगाने वाली कांग्रेस को तो देशवासियों ने पांच दर्जन सीटों तक भी नहीं पहुंचने दिया और धु्रवीकरण के धुरंधरों को तीन शतक पार पहुंचा दिया।

भारतीय जनता पार्टी अजर-अमर नहीं है। हो सकता है कि वह 2024 में ही सरकार बनाने लायक स्पष्ट बहुमत न ला पाए। हो सकता है कि 2029 में वह अपने 150 सांसद भी बमुश्क़िल जिता कर ला पाए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस सब के बावजूद भाजपा आने वाले कई दशक ऐसी दुरावस्था में पहुंचेगी कि उसे लोकसभा में पांच दर्जन सीटें भी न मिलें। हिंदू समाज भले ही तीन हज़ार जातियों और पच्चीस हज़ार उपजातियों में बंटा रहे और उस के हिंदू हृदय सम्राट कितने ही अशक्त हो जाएं, मगर हिंदू-मानस की ताज़ा बुनावट के सौजन्य से वे देश के कंधों पर अभी बहुत लंबे वक़्त तक विराजे रहेंगे।

भाजपा की सियासत का प्रतिकार तात्कालिक उपायों से कभी नहीं होगा। वह तब होगा, जब प्रतिपक्ष के पास दूरगामी दृष्टि होगी। ऐसे लोग होंगे, जिन में अखिल भारतीय सामाजिक संरचना की बारीकियां समझने की सिफ़त हो। प्रतिपक्ष की मुश्क़िल यह है कि उस के पास सकल और सम्यक दृष्टि वाले राजनेता क़रीब-क़रीब हैं ही नहीं। जो हैं, उन की सोच, उन की समझ, आंचलिक है। उन्हें अपने दायरे से बाहर का दिखता ही नहीं है। वे अपने-अपने कोल्हू तो जैसे-तैसे चला सकते हैं, मगर किसी अखिल भारतीय प्रवाह का भगीरथ बनने लायक उन में कोई नहीं है।

आप मेरी इस मान्यता पर जो सोचना है, सोचें, लेकिन बावजूद दो-चार ख़ामियों के, एक अकेले राहुल गांधी हैं, जिन में विविधता भरे भारत को ले कर एक समग्र सोच-समझ काफी हद तक विकसित हो गई है। वे कम-से-कम प्रतिपक्ष के उन इक्कादुक्का राजनीतिकों में से हैं, जिन का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बोध दूसरों से बहुत बेहतर है। अपनी उम्र के राजनीतिकों में तो इस मामले में वे अकेले ही हैं। नरेंद्र भाई मोदी से तो वे इस में कोसों-कोस आगे हैं। नौ साल से ज़्यादा प्रधानमंत्री रहने के बावजूद भारतीय और वैश्विक समाज के बारे में नरेंद्र भाई की समझ की विकास दर बेहद दयनीय है। कोई और उन की जगह होता तो अपने प्रधानमंत्रित्व का एक दशक पूरा करते-करते इतना प्रविचेतन-विपन्न न होता।

मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए हुआ कि नरेंद्र भाई पहले दिन से ही जैसे एकछत्र-प्रधानमंत्री हैं, वैसा कभी कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ। उन के व्यक्तित्व के इस खोट ने सारे रोशनदान स्थाई तौर पर बंद कर डाले। सर्वज्ञानी होने की भावना घर कर जाए तो फिर अपने तालाब का पानी बदलना आसान नहीं रह जाता है। नरेंद्र भाई के साथ, दुर्भाग्य से, यही हुआ है। लेकिन उन का सौभाग्य यह है कि आंखों पर पट्टी बांधे पीछे चलते 50 करोड़ गर्वीले हिंदू उन्हें मिल गए। उन में से आधों के पास भी मताधिकार हो तो नरेंद्र भाई की नैया पार! यही नींव के पत्थर अंततः योगी को भी तैराक बनाएंगे। मेरा मन यह सोच-सोच कर भारी है कि भाजपा जिस दिन मोदी-मुक्त होगी, उस दिन कहीं वह योगी-युक्त न हो जाए!

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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