पहलवान यौन उत्पीड़न का मामला सियासत का नहीं है। यह एक के जघन्य अपराध का मामला है। इस तरह इस मामले में जिन पर भी आंच आई है, उनकी नैतिक साख का क्षरण लाजिमी है।
यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि नरेंद्र मोदी के बतौर प्रधानमंत्री नौ साल के कार्यकाल में उनकी सरकार की नैतिक साख का जितना क्षरण पहलवान यौन उत्पीड़न मामले में हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। इस दौरान राफेल और अडानी जैसे मामलों में सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। चीन से विवाद के क्रम में सरकार की नाकामियां खूब चर्चित हुईं। नोटबंदी और अचानक लॉकडाउन जैसे मनमानी फैसलों की अब तक आलोचना होती है। अर्थव्यवस्था और आम जन की आर्थिक हालत में लगातार गिरावट को सरकार की नीतियों का ही नतीजा बताया जाता है। लेकिन इन सभी मामलों में सत्ता पक्ष और उसके समर्थकों के पास बचाव के कुछ तर्क होते थे। राफेल जैसे मामलों में अपर्याप्त साक्ष्य को कवच बनाया गया। लेकिन महिला पहलवानों (जिनमें एक नाबागिक भी है) की एफआईआर में दर्ज जो विवरण सार्वजनिक हुआ है, उसके बाद इस मामले में सरकार के रुख का बचाव क्या कोई सभ्य और विवेकपूर्ण तर्क हो सकता है?
असल में इस ब्योरे से तो आंच सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंची है, क्योंकि एफआईआर में विनेश फोगाट ने दर्ज कराया है कि पिछले साल ही उन्होंने व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री को यौन उत्पीड़न की घटनाओं की विस्तृत जानकारी दी थी। इस रूप में प्रधानमंत्री इस प्रकरण में एक द्वितीयक साक्षी बन जाते हैं। इस रूप में देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था कसौटी पर आ गई है। जांच दल को इस बारे में अवश्य ही प्रधानमंत्री से जानकारी लेनी चाहिए और अपेक्षित यह है कि कोर्ट उनसे यह जाने कि विनेश सच बोल रही हैं या झूठ और अगर सच बोल रही हैं, तो प्रधानमंत्री ने जानकारी मिलने के बाद इस मामले में क्या कदम उठाए? गौरतलब है कि यह मामला सियासत का नहीं है। यह एक यौन उत्पीड़न के जघन्य अपराध का मामला है। इस तरह जिन पर भी आंच आई है, उनकी नैतिक साख दांव पर लग जाती है। चूंकि सरकार अब तक इस मामले में अपेक्षित फुर्ती दिखाने में नाकाम रही है, इसलिए उसके नैतिक मानदंडों पर प्रश्न खड़े करना लाजिमी हो गया है। सवाल यही है कि आरोपी को किसका संरक्षण मिला हुआ है?