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न्यायपालिका की साख बिगाड़ कर क्या मिलेगा?

पहले ऐसा लग रहा था कि केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था को बदलना चाह रही है। अब केंद्रीय कानून मंत्री की एक प्रचारित चिट्ठी से लग रहा है कि सरकार नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था का हिस्सा बनना चाह रही है। दोनों ही मामलों में कार्यपालिका की ओर से ऐसे सवाल उठाए जा रहे हैं, जिनसे न्यायपालिका की साख खराब हो रही है। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि लोकतंत्र के जो तीन स्तंभ हैं उनमें विधायिका और कार्यपालिका के मुकाबले न्यायपालिका की साख बेहतर है। अब भी लोग उस पर भरोसा करते हैं। एक कहावत की तरह यह प्रचलित है कि ‘अदालत में देख लेंगे’। यह एक भरोसा है, जिससे एक साधारण नागरिक भी बड़े से बड़े आदमी को चुनौती दे सकता है। यह अलग बात है कि आम नागरिक के लिए मौजूदा व्यवस्था में न्याय हासिल करना बहुत मुश्किल है। समय के साथ भारत में ‘समानों के लिए समान न्याय’ की व्यवस्था बन गई है। फिर भी नागरिकों की उम्मीदों का सबसे भरोसेमंद आधार अब भी न्यायपालिका ही है।

तभी सवाल है कि सरकार उसकी साख क्यों खराब करना चाहती है? उससे क्या हासिल होगा? उलटे मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में हर बड़े मसले पर सरकार को संरक्षण मिल रहा है। खुद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया कि कैसे राफेल से लेकर नोटबंदी, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग, हजारों करोड़ रुपए खर्च करके बन रहे सेंट्रल विस्टा, आर्थिक आधार पर सवर्णों के आरक्षण जैसे तमाम मुद्दों पर विपक्ष ने प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की कोशिश की लेकिन न्यायपालिका ने पीएम की छवि बचा ली। सोचें, ऐसी न्यायपालिका पर अविश्वास का क्या कारण है? सर्वोच्च न्यायपालिका के जिन जजों ने इन तमाम मसलों पर सरकार और प्रधानमंत्री की छवि की रक्षा की वे सारे तो नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था यानी कॉलेजियम से ही चुने गए थे, फिर उस व्यवस्था को क्यों बदलना है? अगर उच्च अदालतें सरकार के खिलाफ फैसले दे रही होतीं या आम धारणा को प्रभावित कर रही होतीं तो सरकार को चिंता करने की जरूरत थी। यथास्थिति तो सरकार के अनुकूल है। इसके बावजूद व्यवस्था को बदलने का प्रयास क्यों? क्या सरकार को भविष्य में कोई खतरा दिख रहा है?

अगर ऐसा है तब भी सरकार को विधायिका के जरिए यानी संसद के जरिए कानून बना कर बदलाव की पहल करनी चाहिए। बयानबाजी या चिट्ठी लिख कर ऐसी पहल करने का कोई मतलब नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी की सरकार को लग रहा है कि कॉलेजियम सिस्टम को बदलने की जरूरत है तो फिर से कानून बनाने की पहल हो। मोदी सरकार ने 2015 में यह पहल की थी और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का कानून पास कराया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया। वह कानून इतना लचर था कि उसे देख कर हैरानी होती है कि कैसे ऐसा कानून बनाया जा सकता है। कानून के अनेक जानकारों ने उन कमियों के बारे में विस्तार से बताया। फिर भी सात साल तक सरकार ने कुछ नहीं किया और अब अचानक न्यायपालिका के साथ सीधा टकराव शुरू कर दिया गया है। केंद्रीय कानून मंत्री की ओर से लिखी गए एक कथित चिट्ठी इस टकराव का नया बिंदु है।

कानून मंत्री ने चिट्ठी में लिखा है कि एक ‘सर्च एंड इवैलुएशन कमेटी’ यानी एसईसी बनाई जाए, जो उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का काम देखे। उन्होंने यह भी लिखा है कि उस कमेटी में सरकार के प्रतिनिधियों को भी जगह दी जाए। सवाल है कि यह एसईसी कैसे काम करेगी और जज तलाश करने का आधार क्या होगा? मौजूदा व्यवस्था इस परंपरा के आधार पर चल रही है कि किसी हाई कोर्ट का सबसे सीनियर जज किसी दूसरे हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बनेगा, वरिष्ठता के आधार पर हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट में जज बनेगा और सुप्रीम कोर्ट का सबसे सीनियर जज चीफ जस्टिस बनेगा। यह स्थापित परंपरा है और इसमें बदलाव की कोई जरूरत नहीं दिख रही है। अब रही बात हाई कोर्ट में जज नियुक्त करने तो उसमें सरकार कैसे भूमिका निभाएगी? सरकार कैसे किसी जज के न्यायिक काम का मूल्यांकन करेगी? यह काम तो न्यायपालिका ही बेहतर कर सकती है, जिसको जजों के कामकाज और उनके फैसलों की जानकारी होती है। वह किसी भी जज का मूल्यांकन करने में ज्यादा सक्षम है। इस मामले में सरकार पर भरोसा इसलिए भी नहीं बनता है कि उसने जब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया तो उसमें सरकार की ओर से मनोनीत दो विशिष्ठ लोगों को शामिल करने का प्रावधान था। लेकिन उन दो लोगों के कानून का जानकार होने की शर्त नहीं रखी गई थी। यानी किसी भी क्षेत्र के दो विशिष्ठ लोगों को सरकार उसमें नियुक्त कर सकती थी। सवाल है कि ऐसे किसी व्यक्ति से किसी जज के फैसले या न्यायिक कामकाज का मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

सरकार की इस पहल में आपत्ति का जो दूसरा पहलू है वह ये है कि अगर उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति में सरकार की भूमिका होती है तो यह संविधान की ओर से की गई शक्तियों के पृथक्करण की बुनियादी व्यवस्था के विरूद्ध होगा। संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाएं स्पष्ट रूप से चिन्हित की गई हैं। सरकार के प्रस्ताव से इस सीमा का अतिक्रमण होगा। न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। जिस तरह से इन दिनों देश की विधायिका कार्यपालिका का एक्सटेंशन बन गई है उसी तरह न्यायपालिका भी हो जाएगी, जो चेक एंड बैलेंस के समय सिद्ध सिद्धांत के विरूद्ध भी होगा। इसलिए सरकार को आधी अधूरी पहल या बयानबाजी से बचना चाहिए। इस व्यवस्था को बदलने के दो रास्ते हैं। पहला सरकार फिर से कानून बनाए हालांकि वह कानून फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए जा सकता है। और दूसरा रास्ता है कि सुप्रीम कोर्ट की कोई बड़ी बेंच कॉलेजियम के सिस्टम को बदल दे।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जजों की नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया में कमियां हैं। यह पारदर्शी नहीं है और काफी हद तक इसमें पूर्वाग्रह या पक्षपात की भी संभावना है। इसमें भी संदेह नहीं है कि उच्च न्यायपालिका में महिला, आदिवासी, दलित जैसे हाशिए पर के या वंचित समूहों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और इसके लिए कहीं न कहीं नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया जिम्मेदार है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था में बदलाव की सख्त जरूरत है। लेकिन वह बदलाव वैसी पहल से नहीं होगा, जैसी सरकार कर रही है। उसके लिए सरकार को सभी संबंधित पक्षों के बीच सहमति बनानी होगी। बार और बेंच दोनों को भरोसे में लेना होगा। यह विश्वास दिलाना होगा कि सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण के लिए नहीं, बल्कि बेहतरी के लिए पहल कर रही है। इसके बगैर जो भी पहल या बयानबाजी हो रही है उससे न्यायपालिका की साख ही बिगड़ रही है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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