राजनैतिक हालात बदलते देर नहीं लगती। लोग कब बदल जाएं, उनके मूड-आशा और अपेक्षाओं में कब अचानक परिवर्तन आ जाए इसका कोई गांरटीशुदा जवाब नहीं दे सकता। लोगों की सोच धीरे-धीरे चुपचाप बदलती है और परिवर्तन अचानक!
ऐसा कुछ तुर्की में होता लगता है। तुर्की परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। दुनिया की निगाहें उस पर हैं।रेचेप तैय्यप अर्दोआन, जो एक समय अपनी साफ़-सुथिर छवि के कारण तुर्की की आशा माना जाते थे, लोगों को अपना बनाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं। अर्दोआन ने तुर्की की अर्थव्यवस्था को उसके दुर्दिनों से बाहर निकलने और देश को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उपयुक्त जगह दिलवाने के लिए जो किया, वह केवल तुर्की के संस्थापक कमल अतातुर्क से कमतर था। परन्तु 20 साल सत्ता में रहने के बाद अर्दोआन का आभामंडल फीका हो चला है, वे अब उतने अच्छे वक्ता नहीं रह गए हैं, वे उतनी चतुराई से राजनैतिक चालें नहीं चल पाते और आमजन अब उनसे उतने जुड़े हुए नहीं हैं। जनता पर उनकी पकड़ कमज़ोर हुई हैं। देश में गुस्सा और असंतोष है। राजनीति ध्रुवीकृत और अप्रजातांत्रिक हो गयी है और अर्थव्यवस्था ढलान पर है। अगर अपने अस्तित्व में आने के शुरूआती बरसों में तुर्की एक खिलता हुआ फूल था तो अब वह एक मुरझाता हुआ फूल है। इस समय वह अपने के इतिहास सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है।
अर्दोआन ने उनके हाथों में पूरी शक्तियां सौंपे जाने के बदले तुर्की के लोगों को जो देने का वायदा किया था वह पूरा होता नज़र नहीं आ रहा है। युवा बदलाव चाहते हैं और उनके स्वर ऊंचे और तीखे हो चले हैं। सर्वेक्षणों से ऐसा लग रहा है कि कमाल किलिकडारोग्लू के नेतृत्व में संयुक्त विपक्ष जल्द होने वाले चुनावों में अर्दोआन की जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (ए.के.) और उसके गठबंधन दलों के हाथों से संसद का नियंत्रण छीन लेगा। यह भी लगता है कि अर्दोआन उसी दिन होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भी पीछे रह जाएंगे।
तो क्या होगा यदि रेचेप तैय्यप अर्दोआन अपनी सत्ता और तुर्की पर अपना नियंत्रण खो देंगे? क्या इससे तुर्की को फायदा होगा? क्या इससे दुनिया को कोई लाभ होगा?
अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण तुर्की को हमेशा से दुनिया में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल रहा है। वह यूरोप और मध्यपूर्व के बीच है और उसकी अर्थव्यवस्था दुनिया में 11वीं सबसे बड़ी है – कनाडा, इटली और दक्षिण कोरिया से भी बड़ी। वह नाटो में निर्णायक भूमिका निभाता है।अर्दोआन के शासनकाल में देश की विदेश नीति में आधारभूत बदलाव हुए और उसे एक ऐसे राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया जिसकी अपनी स्वतंत्र आवाज़ है और जो अपने-आप में विश्व शक्ति है। शुरूआती दौर में उनका नारा था “जीरो प्रोब्लेम्स विथ नेबर्स” अर्थात पड़ोसी देशों के साथ तुर्की की सभी समस्याओं को हल किया जायेगा।अर्दोआन ने ईराक, लीबिया और सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप किया, मेडिटरेनीयन क्षेत्र में भूमि पर दावे किये, अन्य देशों में इस्लामिक स्कूल और अदालतें शुरू करवाईं और रूस और चीन को रिझाया।
परन्तु मिस्त्र में 2011 में अरब विद्रोहों के दौरान मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन करने के कारण तुर्की के क्वार्टेट (बहरीन, मिस्त्र, सऊदी अरब और यूएई का एक अनौपचारिक गठबंधन) के साथ रिश्तों में तल्खी आ गयी। सऊदी एजेंटों द्वारा 2018 में इस्ताम्बुल में पत्रकार जमाल जमाल ख़ाशग़्जी की हत्या और तुर्की द्वारा सऊदी अरब के प्रतिद्वंदी ईरान से व्यापारिक रिश्ते मज़बूत करने और तेल खरीदने के कारण यह कड़वाहट और बढ़ी।
इजराइल के साथ तुर्की के रिश्तों की शुरुआत बेहतर थी। इजराइल को मान्यता देना वाला तुर्की पहला मुस्लिम राष्ट्र था। परन्तु कुछ समय बाद ही अर्दोआन , फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद की वकालत करने लगे और हमास के समर्थकों को अपने यहाँ पनाह देने लगे। जहाँ तक यूरोपियन यूनियन (ईयू) का सवाल है, तुर्की लम्बे समय से उसका हिस्सा बनने को आतुर रहा है। परन्तु अर्दोआन के कार्यकाल में इस बारे में बातचीत रूक सी गयी। कारण थे ईयू देशों में शरणार्थियों को पहुँचाने में मदद करना, आतंरिक प्रजातंत्र में कमी और प्रेस, नस्लीय अल्पसंख्यकों और असंतुष्टों और विपक्ष कोई कुचलने के प्रयास। जहाँ तक अमरीका का प्रश्न है, अर्दोआन के डोनाल्ड ट्रम्प के साथ काफी अच्छे सम्बन्ध थे (दोनों शायद एक सी सोच वाले हैं!)। अभी तुर्की और अमरीका के सम्बन्ध खट्टे-मीठे हैं।
अगर कमाल किलिकडारोग्लू और विपक्ष जीत जाते हैं तो देश की विदेश नीति में शायद कोई बदलाव नहीं होगा। हो सकता है कि तुर्की, स्वीडन के नाटो का सदस्य बनने के प्रयासों में अड़ंगा लगाना बंद कर दे परन्तु रूस के साथ उसकी नजदीकियां बनी रहेंगी। इस बात की कम ही सम्भावना है कि किलिकडारोग्लू सरकार रूस के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाएगी या यूक्रेन की मदद करेगी। वह स्वयं को मध्यस्थ की भूमिका तक सीमित रखेगी। उसी तरह, सीरिया के कुर्द बागियों के प्रति तुर्की के दृष्टिकोण में भी कोई बदलाव नहीं आएगा।अर्दोआन की तरह विपक्षी भी तुर्की में रह रहे 36 लाख सीरियाई शरणार्थियों को वापस लौटाने और कुर्द उपद्रवियों पर नियंत्रण करने के लिए बशर अल असद पर निर्भर होंगे। ईयू के मुद्दे पर बातचीत फिर से शुरू हो जाएगी परन्तु कुछ बड़ा होने की सम्भावना कम ही है। कुल मिलाकार, विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव अपेक्षित नहीं है परन्तु इन मामलात के ज्ञाता कहते हैं कि कमाल किलिकडारोग्लू की जीत के बाद अंकारा और पश्चिमी देशों के बीच पेशेवराना और बेहतर सम्बन्ध बन सकेंगे। पश्चिमी देशों का मानना है कि किलिकडारोग्लू सरकार के साथ सबंध बनाना अधिक आसान होगा।
जहाँ तक तुर्की का खुद का सवाल है, सरकार में बदलाव हवा के एक सुखद झोंके की तरह होगा। भूकंप में हुई बर्बादी से उपजी आर्थिक बदहाली के चलते लोग एक दोस्ताना शासक चाहते हैं – ऐसा शासक जो उनके साथ हमदर्दी रखता हो। और किलिकडारोग्लू को वे ऐसा नेता मानते हैं। किलिकडारोग्लू तुर्की के वर्तमान अस्थिर मति वाले नेता की कार्बन कॉपी नहीं बनना चाहते। वे यह भी नहीं चाहते कि उनकी छवि एक छत्तीस इंच की छाती वाले नेता की हो। वे अपने आप को एक आम पारिवारिक व्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहते है जो अपने मिडिल क्लास रसोईघर में भ्रष्टाचार के खिलाफ वीडियो बनाता है और बिना कोई शोर मचाये, तुर्की के बंटे हुए समाज को एक कर सकता है। उन्होंने वायदा किया है कि वे अदालतों को उनकी आज़ादी लौटा देंगे, संसद को फिर से शक्तिशाली बनाएंगे और राष्ट्रपति को अपमानित करने सम्बन्धी कानून को रद्द कर देंगे। विपक्ष ने यह भी कहा है कि उनकी सरकार, चुने हुए मेयरों को बर्खास्त करने की अर्दोआन सरकार की नीति को पलट देगी और जिन लोगों को विद्रोह के बाद गलत ढंग से चलता कर दिया गया था, उन्हें वापस लाएगी। उसने यह भी कहा है कि निर्माण के ठेके देने में भ्रष्टाचार से सख्ती से निपटा जायेगा और महंगाई पर नियंत्रण लगाया जायेगा। मूलतः, तुर्की के लोगों को उम्मीद है कि अर्दोआन के काल में जो कुछ गलत हुआ है, वह सब ठीक हो जायेगा।
अर्दोआन के बिना तुर्की का एक नया रूप सामने आएगा। देश बदलेगा और दुनिया में उसकी इज्ज़त बढ़ेगी। परिवर्तन के लक्षण दिखलाई पड़ रहे हैं परन्तु यह उतना आसान नहीं होगा जितना लगता है। यह कहना गलत होगा कि किलिकडारोग्लू की जीत पक्की है। किलिकडारोग्लू सहित कई लोगों को लगता है कि अर्दोआन चुनावों में गड़बड़ियां करवा सकते हैं। देश भी बुरी तरह ध्रुवीकृत है और अर्दोआन को अति-दक्षिणपंथियों का समर्थन हासिल है। तुर्की परिवर्तन के मुहाने पर तो है पर परिवर्तन होगा या नहीं, यह अभी कहना मुश्किल है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)