इस निर्णय से विपक्षी समूहों को यह सबक लेना चाहिए कि हर चीज को न्यायपालिका के दायरे में ले जाना सही रणनीति नहीं है। अगर ऐसा कभी रहा भी हो, तो आज के संदर्भ में इसका उलटा परिणाम ही होता है।
नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने वही निर्णय दिया, जिसकी अपेक्षा थी। इस निर्णय से विपक्षी समूहों को यह सबक लेना चाहिए कि हर चीज को न्यायपालिका के दायरे में ले जाना सही रणनीति नहीं है। अगर ऐसा कभी रहा भी हो, तो आज के संदर्भ में इसका उलटा परिणाम ही होता है। जिस समय न्यायपालिका को रोज उसका दायरा बताने का अभियान चल रहा हो, सुप्रीम या किसी अन्य कोर्ट से कोई लैंडमार्क जजमेंट की अपेक्षा निराधार है। वैसे भी न्यायपालिका के पास विचारणीय मुद्दा सिर्फ यह था कि क्या वो फैसला कानून की कसौटी पर खरा उतरता है। पांच में चार जजों ने माना कि वो निर्णय कानून के अनुरूप था। जिस एक जज ने कहा कि वह फैसला लेते वक्त कानून की उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया, उन्होंने भी यह राय जताई कि इस कदम के पीछे नीयत अच्छी थी। इस तरह सत्ता पक्ष को एक ऐसा नैतिक तर्क मिल गया, जिससे वह नोटबंदी पर सवाल उठाने वाली आवाजों की वैधता को संदिग्ध बनाने का प्रयास करेगा।
दरअसल, नोटबंदी का निर्णय किस मकसद और किस नीयत से लिया गया, इसे जांचने-परखने का कोई साक्ष्य मौजूद होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में इस फैसले को परखने का पैमाना सिर्फ यह रह जाता हैं कि उसके घोषित मकसद किस हद तक हासिल हुए और उसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या परिणाम हुए। इन दो बिंदुओं पर नोटबंदी की विफलता और उसके विनाशकारी प्रभाव इतने जग-जाहिर हैं कि उस पर सत्ता पक्ष अक्सर चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझता है। इस तरह अब तक की बहस में वह बचाव की मुद्रा में था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसले ने उसे हमलावर होने का मौका दिया है। इसीलिए राजनीतिक दायरे की लड़ाई को न्यायिक दायरे में लड़ने के औचित्य पर अब विचार किए जाने की जरूरत है। यह गौर करने की बात है कि नोटबंदी को पलटना अब संभव नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट से इस बारे में किसी राहत की उम्मीद नहीं थी। याचिकाओं के पीछे मकसद सिर्फ सरकार कानूनी तर्क से घेरने का था। लेकिन यह दांव उलटा पड़ा है।