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सत्यपाल मलिक तब पूरा सच क्यों नहीं बोले?

फरवरी 2019 में सत्यपाल मलिक ने नरेंद्र मोदी और अजित डोवाल की ही तरह राष्ट्रधर्म नहीं निभाया। कम-अधिक का अनुपात भले हो लेकिन तीनों भारतीय जवानों की बेमौत, मौत के लिए जिम्मेवार थे। सत्यपाल मलिक पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के तब सर्वेसर्वा थे। कहने को ठीक बात है कि सत्यपाल मलिक के अधीन सीआरपीएफ नही थी। नाजुक सीमांत प्रदेश कश्मीर में सीआरपीएफ, खुफिया रिपोर्टिंग, सैनिक-अर्धसैनिक बलों की आवाजाही का दायित्व दिल्ली में गृह मंत्रालय (राजनाथ सिंह) और सुरक्षा सलाहकार (अजित डोवाल) का था। ऐसे में भला राज्यपाल का क्या मतलब? उस नाते सत्यपाल मलिक का यह कहना गलत नहीं है कि सीआरपीएफ ने यदि उनसे (सत्यपाल मलिक) जवानों की आवाजाही के लिए विमान व्यवस्था के लिए कहा होता तो वे तुरंत व्यवस्था कराते क्योंकि सिर्फ पांच विमानों की जरूरत थी। बावजूद इसके सत्य यह भी है कि राष्ट्रपति शासन के वक्त में सत्यपाल मलिक को प्रतिदिन सुबह या शाम खुफिया एजेंसियों से बाकायदा ब्रीफिंग रही होगी। मीडिया में घटना से पहले और बाद में छपा है कि आंतकवादी हमले की खुफिया आशंका थी।

तो क्या उन्हें खुफिया ब्रीफिंग में जवानों के काफिले के मूवमेंट, चौकसी बंदोबस्तों की जानकारी नहीं दी गई? उनके संज्ञान में कुछ भी नहीं था? भला ऐसा होना कैसे संभव? फिर यदि ऐसा था तो राज्यपाल बने होने का क्या अर्थ? सत्यपाल मलिक जब बाकी कामों में फाइलें देखते, फैसले लेते हुए थे तो पुलिस-अर्धसिनक बलों की आवाजाही आदि मामलों की सुरक्षा बैठकें-ब्रीफिंग लेते हुए भी थे। या यह मानें कि जब आतंकी हमला हो गया तब उन्हें ज्ञात हुआ कि जवानों का इतना बड़ा लावारिस सा काफिला बिना कड़ी सुरक्षा घेरेबंदी के सड़क रास्ते श्रीनगर आ रहा था, जिसे आंतकियों ने मजे से बारूद भरी कार के धमाके में उड़ा दिया!

ध्यान रहे पुलवामा आंतकी हमले के बाद सत्यपाल मलिक ने कहा था- वजह लापरवाही, इंटेलीजेंस असफलता (huge intelligence failure) हद दर्जे की चूक (carelessness) थी। इतनी कि हाईवे पर भी चेकिंग नहीं की गई। ‘वहां कोई था बारूद से भरी कार लिए हुए और हमें भनक भी नहीं’! यह मलिक ने तब कहा था। अब उन्होंने बताया है कि इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की तो उन्होंने उन्हें चुप रहने के लिए कहा। और वे चुप हो गए।

क्या उनका चुप हो जाना ठीक था? वे क्यों मौन रहे? जब उन्हें भान था कि लापरवाही, इंटेलीजेंस असफलता, हद दर्जे की चूक के लिए केंद्र की मोदी सरकार, दिल्ली में अजित डोवाल- नरेंद्र मोदी की कमान जवाबदेह है और दोनों ने उन्हें चुप होने के लिए कहा है तो इसका अर्थ क्या है? कल्पना करें यदि उन्होंने तब जो देखा, जाना, समझा उसे घटना के तुरंत बाद की प्रतिक्रिया की निरंतरता में बाद में मीडिया को सचाई बताई होती तो तब क्या वह होता जो जनता के मूर्ख बनने से लोकसभा चुनाव में हुआ है? आज वे कह रहे हैं कि उन्हें परवाह नहीं है अपनी जान की। तो ऐसी निडरता भला राज्यपाल की कुर्सी पर बैठे हुए क्यों नहीं थी?

सत्यपाल मलिक तब दूध का दूध, पानी का पानी कर सकते थे। मैंने इसी कॉलम में 18 फरवरी 2019 को ‘लापरवाही या जान बूझकर पुलवामा?’ के शीर्षक में लिखा था– इसका अर्थ है कि यदि चाहते, चुस्त रहते तो आंतकी पहले पकड़े जा सकते थे। इसका यह भी अर्थ है कि सीमा पार से बोरे भर आरडीएक्स लाना, उसमें आईईडी लगाने वाले विशेषज्ञ आतंकी की आवाजाही के तथ्य लापरवाही या जान बूझकर अनदेखी की बदौलत हैं।…यहीं दिमाग भन्ना देने वाली बात है कि पांच, दस, बीस किलो नहीं, बल्कि हर रपट बता रही है कि पुलवामा के विस्फोट में एक क्विंटल से ज्यादा आरडीएक्स का इस्तेमाल हुआ! अलग-अलग रिपोर्टों में किसी जांच सूत्र से सौ तो किसी में डेढ़ सौ से दो सौ किलो आरडीएक्स के इस्तेमाल की बात है। सोचें, सौ किलो याकि एक क्विंटल आरडीएक्स गेंहू के बड़े बोरे से तो लाया नहीं जाएगा। नियंत्रण रेखा पार से छोटे-छोटे पांच-छह बोरों में अलग-अलग वक्त आरडीएक्स भर कर लाया गया होगा। …‘द प्रिंट’ की रिपोर्ट के अनुसार उसने तीन जनवरी को खबर दी थी कि एक आईईडी (improvised explosive devices विस्फोट करने की बटन प्रकिया) एक्सपर्ट और अफगान वार का अनुभवी नौ दिसंबर को भारत में घुसा और वह पुलवामा में कहीं छिपा हुआ है। वह दो अन्य आतंकियों के साथ कश्मीर में घुसा। उस वक्त इंटेलीजेंस इनपुट में उसे अब्दुल रशीद गाजी बताया गया मगर सोर्स अनुसार उसे स्थानीय तौर पर कामरान के नाम से जाना जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार जम्मू कश्मीर पुलिस ने पिछले सप्ताह अन्य एजेंसियों के साथ एक प्राइवेट ट्विटर अकाउंट शेयर किया था। उसमें सुरक्षा बलों पर फिदायीन याकि आत्मघाती हमले की धमकी थी, बतौर मिसाल सोमालिया में सैनिकों के काफिले पर लड़ाकुओं के हमले के वीडिया के साथ’।

‘तभी लाख टके का सवाल है कि राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जब लापरवाही और इंटेलीजेंस फेल बताया तो उस पर विश्वास करते हुए क्या यह माना जाए कि तब कहीं जान बूझकर तो हमले को रोकने में लापरवाही नहीं थी?….सवाल गंभीर है लेकिन है। कहीं न कहीं, कोई न कोई तो जवाबदेह, जिम्मेदार दोषी है ही, जिसकी लापरवाही, अनदेखी में भारत की जमीन में, पुलवामा में, सुरक्षित काफिले के बीच भारत के जवान शहीद हुए’।

इसके बाद मैंने 20 फरवरी को ‘सब पता फिर भी पुलवामा में अंजाम!’, 21 फरवरी 2019 को ‘इधर पुलवामा उधर हर-हर मोदी!’, 21 फरवरी को ‘आईएसआई तो चाहेगी मोदी जीतें’ और फिर ‘चार सौ मुंडी लाओ चार सौ सीटें पाओ!’ या “अंधा विपक्ष, पानीपत में कटेंगी मुंडियां!’ के शीर्षक में पुलवामा कांड से लोकसभा चुनाव में मोदी की छप्पर फाड़ जीत की संभावना का विस्तार से जितना विश्लेषण किया था उसकी कोर पहेली में यह भी लिखा था कि, मैं ‘लापरवाही या जान बूझकर पुलवामा’ में जो लिख रहा हूं वह आज इस खबर से और पुष्ट हुआ है कि मास्टरमाइंड, आईईडी के अफगान विशेषज्ञ कामरान को सुरक्षा बलों ने मार डाला। मेरा सवाल है जब उसके आने की पहले खबर थी तो जैसे अब खुफियाई पकड़, घेरेबंदी में चार दिन में मारने का ऑपरेशन कर लिया गया तो क्या वैसा पुलवामा के हमले से पहले नहीं हो सकता था? तब क्यों लापरवाही हुई? कौन है लापरवाही का जिम्मेवार? क्यों नहीं उसे पकड़ कर सूली पर लटकाया गया या देश को बताया गया?’

आगे लिखा था– संदेह नहीं कि पूरे मामले में ईमानदारी सिर्फ जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने दिखलाई है, जिन्होंने घटना के तुरंत बाद लापरवाही, इंटेलीजेंस असफलता, भारी चूक की बात कह कर हकीकत बतलाई। क्या तब उन्माद के बजाय पूरे देश में यह सवाल होना था कि, किसकी लापरवाही के चलते यह हुआ वह है कौन? पहले देश के भीतर के भेदिए, निकम्मे लोगों को पकड़ो! उन शहीद परिवारों से माफी मांगो, जिनके अपने सरकार की, सुरक्षा-खुफिया तंत्र की लापरवाही के चलते जवान मारे गए हैं। लेकिन हल्ला क्या हुआ? नैरेटिव क्या बना? कांग्रेसी गद्दार, राहुल गांधी आतंकी के साथ खड़े हुए और हिंदू बनाम मुसलमान की आबोहवा में नरेंद्र मोदी के ललाट पर शहीदों के खून के तिलक के साथ आह्वान कि लड़ो पाकिस्तान से, 400 मुंडिया लाओ और 400 सीटें पाओ!

कितना शर्मनाक है 21वीं सदी के कथित आधुनिक पृथ्वीराज और उसके चाणक्य का सभ्यताओं के संघर्ष में हिंदुओं को भरमाने वाली यह भोंड़ी सिंहासन बत्तीसी व तीसरे पानीपत को जीतने की रणनीति!

बहरहाल, मूल बात पर लौटें कि सत्यपाल मलिक की पहले बयान के बाद बोलती क्यों बंद हुई? क्यों नहीं उन्होंने वह तब नहीं कहा जो अब कहा है?

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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