संदेश यह है कि प्राइवेट अस्पताल स्वास्थ्य सेवा के नाम पर सरकार से तमाम तरह की रियायतें जरूर हासिल करते हैं, लेकिन वे अपने मुनाफे का कोई हिस्सा समाज हित में साझा नहीं करना चाहते।
राजस्थान सरकार का स्वास्थ्य अधिकार का विधेयक सही दिशा में पहल है। इसमें कुछ पहलू ऐसे हो सकते हैं, जिनके आधार पर कहा जाए कि इतनी बड़ी पहल करने के पहले राज्य सरकार ने पूरी तैयारी नहीं की। मसलन, यह कि (जैसाकि आलोचक कह रहे हैं) इसमें किस मरीज को ‘आपातकालीन’ स्थिति में माना जाएगा, इसे परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन ऐसी कमियों को दूर करने की गुंजाइश हमेशा ही रहती है। इसलिए ऐसी बातें पूरी पहल के विरोध का आधार नहीं हो सकतीं। फिर भी अगर राज्य के डॉक्टरों का एक हिस्सा विरोध पर उतरा है, तो साफ उसका कारण स्वार्थों का टकराव है। संदेश यह है कि प्राइवेट अस्पताल स्वास्थ्य सेवा के नाम पर सरकार से तमाम तरह की रियायतें जरूर हासिल करते हैं, लेकिन वे अपने मुनाफे का कोई हिस्सा समाज हित में साझा नहीं करना चाहते।
बहरहाल, इस सिलसिले इस पहलू की चर्चा भी अवश्य होनी चाहिए कि सरकारें पिछले साढ़े तीन दशक से जिस रास्ते पर चली हैं, अचानक अगर वे उसकी उलटी दिशा में जाने की शुरुआत करेंगी, तो उन्हें उन निहित स्वार्थों का विरोध झेलना होगा, जिन्हें मजबूती देने में खुद उनकी नीतियों का योगदान रहा है। भारत की संवैधानिक व्यवस्था के तहत निहित स्वार्थों पर झटके से नियंत्रण संभव नहीं है। ऐसे में स्वास्थ्य का अधिकार सुनिश्चित करने का व्यावहारिक रास्ता यही बचता है कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में प्राथमिक से उच्च स्तर तक चिकित्सा का ढांचा खड़ा करे। इसकी शुरुआत सरकारी क्षेत्र में मेडिकल कॉलेजों का जाल बिछाने और उनमें उम्दा किस्म की पढ़ाई की व्यवस्था करने से करनी होगी। इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवा के नाम पर निजी क्षेत्र को दी जाने वाली तमाम रियायतों पर तुरंत रोक लगाई जाए। प्राइवेट अस्पतालों के साथ मुनाफे के सिद्धांत पर चलने वाले किसी भी अन्य उद्योग की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। उससे प्राप्त होने वाले राजस्व का इस्तेमाल सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत बनाने में किया जा सकता है। वरना, अचानक कोई एक बड़ी पहल कर देने पर उससे प्रभावित होने वाले मजबूत निहित स्वार्थों का विरोध पर उतरेंगे ही, जिनसे निपटने का कोई प्रभावी तरीका फिलहाल मौजूद नहीं है।