राहुल गांधी का भाषण पहले केंब्रिज विश्वविद्यालय में हुआ, फिर ब्रिटिश संसद में हुआ और फिर लंदन के चेथम हाउस में हुआ। इन तीनों संस्थाओं में मैं पिछले 50-55 साल से जाता रहा हूं। मुझे आश्चर्य हुआ कि हमारे नेताओं में एक नेता इतना योग्य निकला कि इन विश्व-प्रसिद्ध संस्थाओं में भाषण देने के लिए उसे बुलाया गया। मेरा सीना गर्व से फूल गया। लेकिन सच यह है कि इन संस्थाओं के सभा-भवनों को कोई भी किराए पर बुक कर सकता है। राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं और सांसद हैं, इस नाते सरकार की आलोचना करने का उन्हें पूरा अधिकार है लेकिन यह काम बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए। ऐसी अतिवादी बातें नहीं कही जानी चाहिए जिनसे देश की छवि बिगड़ती हो, हालांकि भाजपा के प्रवक्ता जरूरत से ज्यादा परेशान मालूम पड़ते हैं।
उन्हें क्या यह पता नहीं है कि विदेशी लोग राहुल की बातों को उतना महत्व भी नहीं देते, जितना हमारी जनता के कुछ लोग दे देते हैं। राहुल की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है। यदि भाजपा पर मोदी के शिकंजे की तरफ वे इशारा कर रहे हैं तो वह तो ठीक है लेकिन क्या नेहरु, इंदिरा और सोनिया-काल में ऐसा ही नहीं था। और अब तो कांग्रेस बिल्कुल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है। देश की सभी पार्टियां अब कांग्रेस के ही ढर्रे पर चल पड़ी हैं। इसके बावजूद देश में लोकतंत्र जिंदा है, इस सत्य का सबूत यह तथ्य है कि हर पांच-दस साल में इधर हमारी सरकारें उलटती-पलटती रही हैं। यदि भारत में तानाशाही होती तो राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी और छोटे-मोटे नेताओं के कई अनर्गल बयानों को क्या हमारे अखबार और टीवी चैनल प्रसारित कर सकते थे? लोकतंत्र की हत्या तो इंदिराजी के आपात्काल में ही हुई थी। क्या वैसी हालत आज भारत में है? राहुल को अमेरिका और यूरोप के देशों से यह कहना कि वे भारत के लोकतंत्र को बचाएं, अपनी हैसियत को हास्यास्पद बनाना है।
पता नहीं, हर भाषण के पहले राहुल को कौन अपरिपक्व सलाहकार गुमराह कर देता है? कांग्रेस खत्म हो रही है, कुछ भाजपाइयों का यह कहना अनुचित है। कांग्रेस का मजबूत होना भारत के लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है लेकिन राहुल का यह कहना कि संघ सांप्रदायिक और तानाशाही संगठन है, यह भी गलत है। संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इधर मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों और मौलानाओं को मुख्यधारा में लाने का जैसा प्रयत्न किया है, किसी पार्टी के नेता ने भी नहीं किया है। यह ठीक है कि संघ में आंतरिक चुनाव नहीं होते लेकिन राहुल बताए कि किस पार्टी-संगठन में आंतरिक चुनाव होते हैं? जिन संगठनों को आम चुनाव नहीं लड़ने हैं, उनके अंदर चुनाव अनिवार्य क्यों हों? क्या संघ कोई राजनीतिक पार्टी है? राहुल ने कहा कि संसद में उन्हें बोलने की अनुमति नहीं मिलती। कुछ हद तक यह ठीक है लेकिन आपके बोलने में कुछ दम तो होना चाहिए। विपक्ष को जितनी अनुमति मिलती है, क्या वह उसका सदुपयोग कर पाता है? मुझे याद है कि 1965-66 में डाॅ. राममनोहर लोहिया को संसद में 5 मिनिट का भी मौका मिलता था, तो भी उसी में इंदिरा सरकार को वे थर्रा देते थे। इस मौके पर मुझे अल्लामा इकबाल का एक शेर याद आ रहा है-
‘‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले।
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।।’’