राजनीतिक दायरे में अगर सबसे तीखी जुबान बोलने वाली शक्ति की पहचान की जाए, तो उसमें आज की सत्ताधारी पार्टी और उसके पुराने एवं वर्तमान नेताओं के नाम संभवतः सबसे ऊपर की श्रेणी में आएंगे।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि मामले में सजा सुनाने और उसके बाद उनकी संसद सदस्यता खारिज करने की पूरी प्रक्रिया पर अगर गंभीरता से सोचा जाए, यह कहने का पूरा आधार नजर आता है कि ये पूरा प्रकरण कानून नहीं, बल्कि राजनीतिक है। मुमकिन है कि लंबी अवधि में राहुल गांधी कानूनी प्रक्रिया से भी इसमें कुछ राहत हासिल कर लें। लेकिन यह उन्हें और उनके सलाहकारों के सामने भी अवश्य ही स्पष्ट होगा कि इस चुनौती का मुकाबला राजनीतिक मोर्चे पर ही किया जा सकता है। गौरतलब यह है कि राहुल गांधी को लोकसभा से निकालने की एक अन्य प्रक्रिया सत्ताधारी पार्टी ने शुरू कर रखी थी। अडानी प्रकरण पर सदन में उन्होंने जो भाषण दिया, उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विशेषाधिकार हनन बताने वाला एक प्रस्ताव अभी स्पीकर के विचाराधीन था। इस बीच 2019 के मामले में अचानक न्यायिक प्रक्रिया असामान्य रूप से तेज की गई और उससे उन्हें संसद से निकालने का रास्ता निकल आया। संभवतः सत्ता पक्ष को यह रास्ता कम जोखिम भरा मालूम पड़ा होगा।
इसलिए कि अगर विशेषाधिकार हनन मामले में उन्हें सदन से निकाला जाता, तो उसे संसदीय बहुमत के अत्याचार के रूप में पेश करना अधिक आसान होता। जबकि फिलहाल, इसे न्यायिक प्रक्रिया का परिणाम बताया जा रहा है। लेकिन सच की एक आदत यह होती है कि वह छिपता नहीं है। इसीलिए सत्ता पक्ष से जुड़ा कोई व्यक्ति भी इस बात के मुतमईन नहीं होगा कि राहुल गांधी को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष प्रक्रिया के जरिए सदन निकाला दिया गया है। अगर न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल ना भी उठाए जाएं, तब भी यह प्रश्न तो कायम है कि राजनीतिक विमर्श और आपराधिक न्याय प्रक्रिया के दायरे में ले जाने की रणनीति आखिर किसने अपनाई है? राजनीतिक दायरे में अगर सबसे तीखी जुबान बोलने वाली शक्ति की पहचान की जाए, तो उसमें आज की सत्ताधारी पार्टी और उसके पुराने एवं वर्तमान नेताओं के नाम संभवतः सबसे ऊपर की श्रेणी में आएंगे। इस रूप में तो उनकी सियासत हमेशा खतरे में रहेगी! या सत्ताधारी नेता यह भी मानने लगे हैं अब यह सत्ता स्थायी रूप से उनकी हो गई है?