कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा समाप्त हो गई। कन्याकुमारी से कश्मीर तक 135 दिन में साढ़े तीन हजार किलोमीटर से ज्यादा पैदल चलने के बाद राहुल गांधी ने यात्रा को विराम देते हुए कहा कि यह समापन नहीं है, बल्कि शुरुआत है। कई मायने में यह बात बहुत अहम है। व्यक्तिगत तौर पर देखें तो राहुल गांधी को अभी लंबी दूरी तय करनी है, जिसका प्रस्थान बिंदु यह यात्रा बनेगी। इस लिहाज से भी इसे एक शुरुआत कह सकते हैं। अगर कांग्रेस और देश की राजनीति के नजरिए से देखें तब भी यह एक लंबी यात्रा की शुरुआत है। एक मायने में यह भी कह सकते हैं कि देश की राजनीति का इतिहास अपने को दोहरा रहा है। लंबे समय तक देश की राजनीति पर कांग्रेस के एकछत्र राज के बाद अस्सी के दशक में भाजपा एक अलग विशिष्ठ पार्टी के रूप में उभरी थी और उसकी एक लंबी यात्रा शुरू हुई थी, जो लगातार दो चुनावों में पूर्ण बहुमत हासिल करके मौजूदा मुकाम तक पहुंची है। अब वैकल्पिक राजनीतिक दृष्टि देने की बात करके राहुल गांधी भाजपा की राजनीति को चुनौती दे रहे हैं। वे कितने और कब तक सफल होंगे इस पर अभी विचार करना जल्दबाजी है लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा एक सकारात्मक राजनीतिक अभियान के तौर पर लंबे समय तक याद रखी जाएगी। इस यात्रा की सकारात्मकता को ऐसे भी समझा जा सकता है कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारियों ने भी इसकी सराहना की। भाजपा ने कुछ बातों पर जरूर सवाल उठाए लेकिन यात्रा के विचार का विरोध उसने भी नहीं किया।
भारत में लंबे समय से इस तरह का कोई राजनीतिक अभियान नहीं चला था। राष्ट्रीय स्तर पर आखिरी बार चंद्रशेखर ने भारत की यात्रा की थी। लेकिन उस यात्रा का दायरा इतना विशाल नहीं था और उसकी तीव्रता भी उतनी नहीं थी, जितनी भारत जोड़ो यात्रा की थी। लालकृष्ण आडवाणी ने भी कई रथयात्राएं कीं लेकिन उन्हें भारत यात्रा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि उनका भौगोलिक दायरा भी छोटा था और उद्देश्य भी सीमित था। सो, कह सकते हैं कि आधुनिक राजनीति में यह एक अनोखी चीज थी। किसी ने सोचा नहीं था कि आधुनिक समय का कोई नेता पैदल देश नापने निकलेगा। वह नेता राहुल गांधी होंगे यह तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इसलिए यह सुखद आश्चर्य है कि राहुल गांधी जैसे अपेक्षाकृत युवा नेता ने देश को जानने, समझने के लिए पूरे देश की पैदल यात्रा की। इसकी सार्थकता इसमें भी है कि इस दौरान कोई नकारात्मक एजेंडा नहीं प्रचारित हुआ। जहां से भी यात्रा गुजरी वहां शांति भंग नहीं हुई, बल्कि मोहब्बत का पैगाम दिया गया। यह मोहब्बत का पैगाम कांग्रेस के लिए चुनावी लाभ में कितना तब्दील होगा यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन यह अपने आप में बड़ी बात है कि राजनीतिक लाभ हानि की चिंता किए बगैर राहुल ने नफरत के मुकाबले मोहब्बत की बात की।
इस यात्रा की सार्थकता का एक पहलू यह है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत को मजबूती देने वाले सबसे महत्वपूर्ण मूल्यों में से एक धर्मनिरपेक्षता की पुनर्स्थापना हुई। पिछले कुछ समय की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता को गाली बना दिया गया था। भारत में धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब देश विरोधी होना माना जाने लगा था। धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों को मुस्लिमपरस्त और टुकड़े टुकड़े गैंग का सदस्य साबित किया जाने लगा था। ऐसे समय में राहुल गांधी ने जोखिम लिया और इस मूल्य को स्थापित करने का काम किया। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि इस यात्रा ने धर्मनिरपेक्षता के बारे में पिछले कुछ बरसों में गढ़ी गई धारणा को पूरी तरह से बदल दिया है और अब लोग उसे एक नैतिक व संवैधानिक मूल्य के तौर पर फिर पहले की तरह स्वीकार कर लेंगे। लेकिन यह जरूर है कि उस बेहतरीन मानवीय मूल्य को लेकर जो नकारात्मक धारणा बनी थी उसे तोड़ने का काम राहुल गांधी की इस यात्रा ने किया है।
इस यात्रा की सार्थकता इसमें भी है कि पिछले कुछ समय से भाषा और भूगोल के नाम पर देश के अंदर विभाजन की जो भावना बढ़ रही थी उसे इस यात्रा ने कुछ न कुछ जरूर कम किया है। राहुल और यात्रा के योजनकारों ने चाहे जिस वजह से किया हो लेकिन यात्रा की रूपरेखा इस तरह से बनाई गई थी उसका ज्यादा हिस्सा दक्षिण भारत के राज्यों में गुजरा। राहुल ने तमिलनाडु में कन्याकुमारी से यात्रा की शुरुआत की और केरल से होते हुए वे कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना गए, जहां से उनकी यात्रा महाराष्ट्र पहुंची और आधी से ज्यादा दूरी तय करने के बाद यात्रा हिंदी पट्टी में आई। भाषा और अलग अलग संस्कृतियों में साझा बनाते हुए यात्रा आगे बढ़ी। इस दौरान राहुल हर भाषा और हर प्रांत के लोगों से सहज भाव से मिले और अगर किसी के मन में अलगाव की कोई भावना पैदा हुई तो उसे दूर करने का प्रयास किया। इसका चाहे जितना भी असर हुआ हो लेकिन यह बहुत बड़ी बात है।
सुरक्षा की तमाम चिंताओं के बावजूद पंजाब से गुजरते हुए यात्रा के कश्मीर पहुंचने का भी एक बड़ा प्रतीकात्मक महत्व है। बहुत समय नहीं बीता, जब देश के किसान केंद्र सरकार के बनाए तीन कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे और उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान में उनको खालिस्तानी करार दिया जा रहा था। चूंकि आंदोलन का केंद्र पंजाब और हरियाणा दो राज्य थे इसलिए आंदोलनकारियों की एक खास तरह से प्रोफाइलिंग करके उनको देश विरोधी ठहराया गया था। उससे जो घाव बने थे उन पर मल्हम लगाने का काम इस यात्रा ने किया है। इसी तरह जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद बहुत कुछ बदल गया है। राज्य का बंटवारा हो गया है। लेह, लद्दाख और कारगिल को अलग केंद्र शासित राज्य बना दिया गया है। जम्मू कश्मीर में भी नवंबर 2018 में विधानसभा भंग हो गई और अभी तक चार साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी चुनाव नहीं हुए हैं। ऐसे समय में देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता का वहां पहुंचना और वहां के लोगों के साथ एकजुटता दिखाना एक सकारात्मक असर पैदा करने वाली चीज है। तमिलनाडु से लेकर केरल और महाराष्ट्र से लेकर बिहार, झारखंड और बंगाल तक के नेताओं का कश्मीर में पहुंचना कश्मीर के लोगों को भरोसा दिलाने वाला है।
इस लंबी यात्रा में राहुल गांधी द्वारा उठाए गए मुद्दों के लिहाज से भी देखें तो इसे एक सार्थक और सकारात्मक यात्रा मान सकते हैं। राहुल ने देश में बढ़ती आर्थिक असमानता का मुद्दा उठाया, बढ़ती बेरोजगारी और गरीबी का मुद्दा उठाया, महंगाई के मसले पर बात की, समाज को बांटने और नफरत फैलाने वाली बातों के विरोध में बहुत पावरफुल तरीके से अपना पक्ष रखा और सबसे ऊपर अपनी और कांग्रेस की वैचारिक स्थिति स्पष्ट की। धर्म और नफरत की राजनीति के बरक्स धर्मनिरपेक्षता और मोहब्बत की राजनीति को स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने बार बार कहा कि उन्होंने देश के सामने वैकल्पिक दृष्टि प्रस्तुत की है। हालांकि वह वैकल्पिक दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है लेकिन फिर भी उनके प्रयास पर संदेह नहीं किया जा सकता है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में वैकल्पिक दृष्टि को लेकर ज्यादा स्पष्टता दिखे।