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यह एक नई मुश्किल

अब खुद वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता जा रहा है। तमाम नई तकनीकें भी इस नई चुनौती से पार पाने में में नाकाम हो रही हैं।

इनसान ने अपने अनुभव और बार-बार के परीक्षणों से एक महत्त्वपूर्ण ज्ञान हासिल किया, उनमें एक मौसम का अनुमान लगाना शामिल है। यह ज्ञान कभी दोषमुक्त नहीं रहा। अक्सर अनुमान गलत या उलटे पड़ते रहे। इसके बावजूद गुजरते समय के साथ इनसान का यह कौशल बेहतर हो रहा था। लेकिन अब खुद वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता जा रहा है। तमाम नई तकनीकें भी इस नई चुनौती से पार पाने में में नाकाम हो रही हैं। हैदराबाद के बाहरी इलाके में एक प्रयोगशाला में वैज्ञानिक इन दिनों बारिश की बूंदों का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन एक मशीन से किया जा रहा है, जो बादल जैसी स्थिति पैदा करती है। इसका इस्तेमाल कर वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण कैसे मानसून की बारिश को बदल रहे हैं। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी आईआईटी के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग में शोधकर्ताओं के मुताबिक उनका अध्ययन भारत की स्थितियों पर केंद्रित है। यह तो युगों से कही और सुनी जाने वाली बात है कि मानसून भारत की जीवनरेखा है।

भारत में खेतों, तालाबों और कुओं को जिंदा रखने के लिए जो पानी चाहिए, उसका 70 फीसदी हिस्सा मानसून से आता है। 140 करोड़ की आबादी वाले इस देश में मौसमी बरसात के आधार पर ही खेती से लेकर शादी तक की तारीखें तय करने की परंपरा रही है। जलवायु को बदलने वाली ग्रीनहाउस गैसें अब मानसून के चक्र को बदल रही हैं। इससे बारिश का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में कई तरह के चरम मौसम का कारण बन रहा है। गीले इलाके और ज्यादा बारिश के कारण डूबने लग रहे हैं, तो सूखे इलाके और ज्यादा पानी की कमी से परेशान हैं। हाल के वर्षों में भारत का मानसून छोटा मगर तीव्र होता गया है। साल 2000 के बाद से छह बड़े सूखे की स्थिति आ चुकी है, लेकिन पूर्वानुमान लगाने वाले उनके बारे में जानकारी नहीं दे सके। यह समस्या गहराती जाएगी। इसका बुरा असर भारत की अर्थव्यवस्था और करोड़ों लोगों की आजीविका पर पड़ेगा।

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By NI Editorial

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