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नौ वर्षो की बरबादियां!

रणनीति

तय कर सकना मुश्किल है। इसलिए भी क्योंकि मैं नोटबंदी के बाद से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी रीति-नीति का आलोचक हूं। मोदी राज ने मुझे हिंदू बुनावट की ऐसी गुत्थियों में उलझाया है कि जहां असलियत दिखलाने के लिए नरेंद्र मोदी का धन्यवाद है वही यह निष्कर्ष भी है कि यह क्या इतिहास बनवा रहे है मोदी अपना! देश-समाज-नस्ल कीकितनी तरह की बरबादियों के बीज जिंदा कर डाले है या नए बना डाले है।  आगे कोई भी पार्टी, किसी भी नेता की सरकार बने होना अब वही है जो हम हिंदुओं का इतिहास रहा है। चिंगारियां लिए हुआ ऐसा कलही और भयाकुल देश बनता हुआ है जिसके चारों कोनों (बंगाल, पंजाब, कश्मीर घाटी और केरल) में जब भी आग भड़की तो उसे देश में फैलने से कोई फायर ब्रिग्रेड रोक नहीं पाएगी। संक्षेप में गौर करें बरबादियों के पुराने और नए बीजों के बीजारोपण पर-

  • हिंदू राजनीति बदनाम– नंबर एक बरबादी। तिलक, सावरकर, मालवीय से कांग्रेस के वैष्णव हिंदूजनों की आंकाक्षाओं सहित संघ-भाजपा के तमाम विचारों कीहिंदू राजनीति का आईडिया एक वक्त बंद मुठ्ठी लाख का था। एक वैचारिक विकल्प। तभी वैश्विक व स्थानीय परिस्थितियों से बने समय से नरेंद्र मोदी का जब अवसर बना, वे प्रधानमंत्री हुएतोदुनिया भर में मोदी और हिंदू राजनीति को लेकर कौतुक था। उम्मीद थी। अच्छे दिन आने थे। लेकिन अब क्या स्थिति?नरेंद्र मोदी की वैयक्तिक सत्ता नेवैश्विक मीडिया और विदेशियों में पूरी हिंदू राजनीति और हिंदुओं की राजनैतिक समझ का परस्पेशन हिंदूफोबिया में कनवर्ट कर डाला है। याद करें 2014 से पहले क्या संघ-भाजपा या हिंदू जमात ने हिंदूफोबिया शब्द का इस्तेमाल किया? अब यदि करते हुए है तो यह क्या हिंदू राजनीति की बदनामी का प्रमाण नहीं?मेरा तर्क है कि कितना त्रासद है जो विचारमना सावरकर भी मोदी राज में बदनाम हुए पड़े है!
  • गृह कलह-विदेश में हिंदूफोबिया तो घर में गृहयुद्ध, जातिय जंग, सियासी टकराव, तेरी-मेरी के बने अखाड़े! हिंदू बनाम मुस्लिम याकि ‘हम’ बनाम ‘वे’ के इतिहासजन्य बीजों को नौ वर्षों में खाद-पानीहवा सब मिला है। इतने बडे पैमाने का ऐसा काम भारत के किसी दुश्मन के लिए भी संभव नहीं था। चारो तरफ बांटो-लड़ाओं और राज करों की राजनीति है। सोचे, मणिपुर में अचानक कैसे आग लगी?नैरेटिव या या तो देशभक्त बनाम देशद्रोही का या अपना बनाम दुश्मन। बीच का कोई स्पेस ही नहीं। एक तरफ मोदी की भक्ति के 38-40 प्रतिशत हिंदू भक्त तो दूसरी तरफ वे पाकिस्तानी, वे मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, दलित, आदिवासी और अलग-अलग वैचारिक-राजनैतिक धाराओं के तमाम गद्दार हिंदूओं मेंमन ही मनइतनीगांठsबनती हुई है, दोनों तरफ ऐसी ठनती हुई है कि भविष्य केडायरेक्ट एक्शन की कल्पना ही दहला देने वाली।
  • झूठमेव जयते– हिसाब लगाए भारत में पिछले नौ वर्षों में कितना झूठ बोला गया?पर क्या अनुमान भी लगाया जा सकता है। देश की आबोहवा, भारत की ऑक्सीजन अब झूठ है।झूठ से इतिहास है, वर्तमान है तो भविष्य व उसके सपने है। झूठ पर तालियां बजती है। झूठ से विश्वगुरूता है। एक वक्त था जब सनातनी हिंदू घर में बच्चों को संस्कार दिया जाता था कि सच बोलना है। सादा जीवन जीना है। झूठ नहीं बोलना, आंडबर नहीं करना। लेकिन इन नौ वर्षों में घर-घर, हर बच्चे-बुढे के आगे तमाम तरीकों से झूठ परोसा गया है। आंडबरों-दिखावे का जादू बनाया जा रहा है। मनुष्य जीवन की मानविकी के बेसिक नैतिक मूल्यों, संवेदनशीलता में मानवाधिकारों और सत्य-पारदर्शिता तथा सौहार्द, ईमानदारी का कोई मोल नहीं बचा है।
  • बुद्धी-ज्ञान-विज्ञान आउट, गौबर इन– यह शायद मेरा पूर्वाग्रह है।मुझे टीवी चैनल, मीडिया देखते-पढते, बहस-भाषण सुनते हुए जुगुप्सा होती है। हिंदुओं के वोट लेने के लिए रामजी, शिवजी, बजरंग बली का उपयोगधृणित व मूर्खतापूर्ण समझ आता हैं। कोविड महामारी के वक्त ताली-थाली बजाने, दिया जलाने या शरीर पर गौबर लैप जैसी बातों को अंधयुग का पर्याय मानता हूं। नरेंद्र मोदी काहार्वड की जगह हार्ड वर्क का अंहम हास्यास्पद लगता हैं। अपना मानना है कि प्रधानमंत्री ने नौ वर्षों मेंभारत की शासन व्यवस्था से बुद्धी-तर्क-सत्य-ज्ञान को जैसे अलविदा किया है और उसकी जगह इलहाम व अपनी सर्वतज्ञता में नोटबंदी आदि की जिस रीति-नीति से देश आगे बढाया है वह अंधेरी गुफा है। अपनी जगह बात सही है कि लुटियन दिल्ली के आभिजात्य वर्ग का हिंदू विकल्प-बौद्धिक थिंक टैंक पहले तैयार नहीं था तो नरेंद्र मोदी की मजबूरी थी जो वे मंत्रियों-अफसरों को अंगूठा छाप बना अपने इलहाम में उनसे काम लेते। इसलिए नौ वर्षों में जो हुआ है वह कुल मिलाकर हिंदू राजनीति केदेशज-भदेस स्वभाव से है।गौबर बुद्धी से है!
  • केंद्रीकरण-नौ वर्षों में सत्ता का वह केंद्रीकरण हुआ जो मुगल-अंग्रेज के वक्त भी नहीं था। मेरा मानना है हिंदुओं के हजार साल के गुलामी काल में मुगलों और अंग्रेजों के वक्त भी राजे-रजवाड़ों व पंचायत-खाप व्यवस्थाओं की वजह से लोग अपना जीवन विकेद्रीत व्यवस्था तथा स्वायत्तता-स्वतंत्रता से जीते हुए थे। लेकिन 1947 में नेहरू द्वारा कारिंदों-सरकारी अफसरों के स्टील फ्रेंम में लोगों को बांधने का वह सिलसिला शुरू हुआ जो मोदी राज के पिछले नौ वर्षों में पिंजरे का रूप पा गया है। 140 लोगों का पूरा जीवन अब पीएम, सीएम और डीएम के तीन चेहरों, तीन स्तरों में जकड़ा है।
  • क्रोनी पूंजीवाद-भ्रष्टाचार –इस बरबादी पर ज्यादा दिमाग खंपाने की जरूरत नहीं है। नौ वर्ष में भारत की आम उद्यमशीलता, लघु-मझौली-बडी उद्यमशीलता ने सिसकते हुए दम तोडा है व कारोबारी -अमीर विदेश गए है। व्यापारियों का धंधा लुटा है और बढ़ा कौन है? एक अकेला गौतम अडानी! उनके साथ के चंद कुछ और गुजराती खरबपति! क्रोनी पूंजीपतियों और उनके भ्रष्टाचार का हिंदू जगतसेठ इतिहास यों पहले भी रहा है लेकिन वैश्विक बुलंदी का रिकार्ड तो पिछले नौ वर्षों में ही बना। दुनिया के फटाफट बनते नंबर एक गौतम अडानी के नाम से.. और फिर दुनिया में किस इमेज के साथ उनका टॉप से धड़ाधड लुढकना भी…
  • विस्फोटक असमानता– यह भी भारत का पुराना सत्य और मोदी राज में इसके नए-नए कीर्तिमान। ऑक्सफोम की रिपोर्ट प्रमाण है। सवाल अब गरीब और अमीर का नहीं रहा बल्कि फ्री के पांच किलों गेंहू-चावल और बांग्लादेश से भी कम प्रति व्यक्ति आय वाले 140 करोड लोगों बनाम 140 खरबपतियों के बीच की असामनता का है। लेकिनऐसी आत्मघाती विषमता के सत्य की अनुभूति क्या नौ वर्ष के जश्न के वक्त किसी को है?
  • आर्थिकी जर्जर– इसके कितने आयाम बतलाएं जाए? क्या नौ वर्षों में भारत की आर्थिकी चीन पर भयावह तौर पर निर्भर नहीं हुई? क्या स्वेदशी, मैक इन इंडियामें लुटिया डुबी हुई नहीं है! क्या महाबली विदेशी कंपनियों ने दुकानदारी से ले कर कॉफी पिलाने, खाना खिलाने के काम धंधे में वर्चस्व नहीं बना लिया है? बेराजगारी, रोजगार अवसर, उत्पादकता सबमें भारत की वह युवा शक्ति क्या फडफडाती हुई नहीं है जिनके आगे सरकार भी अल्पकालिक अग्निवीर और चंद-चंद हजार नौकरियों के नियुक्ति पत्र बांटने का दिखावा बनाने को मजबूर है।

सजृनात्मकता-साक्षरता विलुप्त- हां, भारत में क्रिएटिवीटी, सृजनात्मकता के हर पहलू में अब सूखा है। न रंगमंच आबाद और  न शास्त्रीय गायन-वादन, कला, चित्रकार, साहित्य- संगीत में कभी कोई धूम।  और तो औरबालीवुड का अर्थ भी अबपठान बनाम द केरला स्टोरी। दक्षिण भारतीय फिल्मों के बूते उत्तर भारत के हिंदीभाषी दर्शक बाहुबली होते हुए।  साक्षरता के नाम पर या तो डिग्रीधारी वे नौजवान जो सोशल मीडिया से टाइमपास करते हुए या भक्त हरकारे…

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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