हालात ऐसे बन गए हैं कि कोई निर्णय गुण-दोष के आधार पर भी लिया गया हो, तब भी उस पर सवाल उठ खड़े होते हैँ। जबकि लोकतंत्र का टिकना न्याय में भरोसे के आम सिद्धांत पर आधारित है। यह भरोसा कमजोर पड़ता दिख रहा है।
संभव है कि शिवसेना के नेता संजय राउत ने अपनी पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न छीने जाने के असंतोष में यह गंभीर आरोप लगाया हो कि नाम और चुनाव निशान को 2000 करोड़ रुपये में खरीदा गया है। यह कथित लेन-देन किसके बीच हुई, यह राउत ने नहीं बताया। उन्होंने इस पर कयास या अटकल लगाने का मैदान खुला छोड़ दिया। यह भी संभव है कि पार्टी से इस कथित अन्याय से उपजी मायूसी में उद्धव ठाकरे ने यह कहा हो कि देश में लोकतंत्र का खात्मा हो चुका है और प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे खुलेआम तानाशाही कायम होने के एलान कर दें। लेकिन अगर ये दोनों बातें कही गईं, लोगों ने उस पर ध्यान दिया और यह इल्जाम अखबारों की प्रमुख सुर्खियों में शामिल हुए, तो जाहिर है, यह देश में गहराते संदेह के माहौल का संकेत है। चिंताजनक यह है कि संदेह के इस घेरे में संवैधानिक संस्थाएं हैं। संदेश यह है कि भारतीय राजनीति के विपक्षी हिस्से में इन संस्थाओं की निष्पक्षता को लेकर भरोसा लगातार चूक रहा है। हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि अगर कोई निर्णय गुण-दोष के आधार पर भी लिया गया हो, तब भी उस पर सवाल उठ खड़े होते हैँ। जबकि लोकतंत्र का टिकना न्याय में सबके भरोसे के आम सिद्धांत पर आधारित है।
इस सिद्धांत का यह अनिवार्य पक्ष है कि न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। शिव सेना का प्रकरण इस बात की सिर्फ ताजा मिसाल है कि विपक्षी खेमे में संवैधानिक संस्थाओं से न्याय और निष्पक्षता की उम्मीद कमजोर पड़ रही है। कहा जा सकता है कि यह स्थिति बनने के पीछे कुछ ठोस कारण रहे हैँ। स्वस्थ सूरत यह होती कि सरकार और सत्ता पक्ष इन कारणों को दूर करने का भरोसा जगाते। लेकिन वर्तमान सत्ताधारी नेता किसी प्रकार के समानता पर आधारित संवाद में यकीन नहीं करते। इसके विपरीत वे हर प्रकार के विपक्ष को अनुचित और अवैध बताने की मुहिम जुटे रहते हैँ। इससे अविश्वास गहराया है। उसकी का इजहार शिवसेना नेताओं की प्रतिक्रिया में हुआ है। ऐसी लगातार उठती प्रतिक्रियाएं लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत हैँ।