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हिंदी प्रदेशों में विपक्ष हारेगा!

इस गपशप को मई 24 तक सेव रखें। तब हिसाब लगा सकेंगे कि कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस और विपक्ष ने अपने हाथों अपने पांवों पर कब-कब कुल्हाड़ी मारी। पहली बात, कर्नाटक ने कांग्रेस और पूरे विपक्ष का दिमाग फिरा दिया है। बुजुर्ग शरद पवार भी बता रहे हैं कि हालात देख लोगों का बदलाव का मूड समझ आ रहा है। उधर राहुल गांधी ने कहा कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस 150 सीटें जीतेगी। सबसे बड़ी बात जो विपक्ष की एकता कोशिशों में मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, अखिलेश यादव हालातों के इलहाम में भाव खाते हुए हैं। एक और गंभीर बात कि पूरे विपक्ष ने कर्नाटक में भाजपा की हार के उलटे अर्थ निकाले हैं। अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह-कमलनाथ-भूपेश बघेल सबका फोकस जनता को रेवड़ियां देने, वादे करने पर बना है। रेवड़ियों से कांग्रेस आगे हिमाचल, राजस्थान, कर्नाटक मॉडल पर विधानसभा-लोकसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाते हुए है। ऐसे ही अरविंद केजरीवाल भी रेवड़ियों की मार्केटिंग से नरेंद्र मोदी को पछाड़ने की गलतफहमी में हैं। जात और रेवड़ी के एक भ्रमजाल में विपक्ष फंसते हुए है। तभी दिसंबर के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी ऐसा धोबी पाट मारेंगे कि विपक्ष लोकसभा चुनाव लड़ने लायक नहीं रहेगा। सेमीफाइनल में ही कांग्रेस उत्तर भारत में आउट हो चुकी होगी।  हिंदीभाषी उत्तर भारत की 227 लोकसभा सीटों में कांग्रेस तीन-चार सीटें नहीं जीत पाएगी तो पूरा विपक्ष इनमें बीस-पच्चीस सीटे जीत जाए तब भी बड़ी बात!

तभी इस गपशप की कटिंग काट कर रखें। शरद पवार, राहुल गांधी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल व अखिलेश यादव हालातों के इलहाम में सपने बना रहे हैं जबकि रियलिटी यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह उत्तर भारत के मतदाताओं की मानसिकता अनुसार चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा आदि की हाल में जो घंटों बैठक हुई है उसमें मेरी जानकारी और मेरा मानना है कि ये रत्ती भर विपक्ष की जात तथा रेवड़ी राजनीति की चिंता करते हुए नहीं हैं। भाजपा का सितंबर से दिसंबर के बीच पूरा फोकस इस नैरेटिव का होगा कि मोदीजी विश्व नेता हैं। हिंदू धर्म रक्षक हैं और दिसंबर के आखिर में हिंदीभाषी लोग जब वोट डालें तो अयोध्या में प्रभु राम के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए वोट डालें!

सितंबर में जी-20 की शिखर बैठक हो रही है। विश्व नेता दिल्ली आ रहे हैं। अक्टूबर में दशहरा-दीपवाली के साथ रामजी और अयोध्या का जगमग होना शुरू होगा। दिसंबर में संभव है पूर्वांचल-बिहार के लोगों के मुख्य शक्तिपीठ विंध्याचल मंदिर के नवनिर्माण-कॉरिडोर का नरेंद्र मोदी उद्घाटन करें। लोगों को अयोध्या-विंध्याचल की ओर ले जाने, घर-घर मैसेज बनवाने का, काशी-विंध्याचल-अयोध्या की यात्रा का महाअभियान चलाया जाए। मतलब नीतीश कुमार-तेजस्वी-अखिलेश जातिवादी राजनीति करते हुए वही यूपी-बिहार में मई तक घर-घर चलो अयोध्या का नारा गूंजता हुआ।

मैं कई बार लिख चुका हूं कि नरेंद्र मोदी कैलेंडर बना कर राजनीति करते हैं। सो, सितंबर 2023 से मई 2024 तक का उनका कैलेंडर वापिस सत्ता पाने के लिए आर-पार की लड़ाई की तैयारियों का है। बहुत संभव है 2019 की तरह पाकिस्तान-चीन की सीमा पर फिर वह कुछ हो, जिससे उत्तर भारत के हिंदू वोट सब भूल कर दिन-रात इस राग में खो जाएं कि नरेंद्र मोदी की जगह है कौन? यदि वे फिर नहीं जीते तब देश बचेगा ही नहीं।

कह सकते हैं कि कर्नाटक में जब बजरंग बली का जादू नहीं चला तो हिंदी भाषी प्रदेशों में भी जनता तंग आ गई है! मगर इस तरह सोचना मतदाताओं की मनोदशा और हिंदीभाषी प्रदेशों की तासीर व जमीनी गणित से जुदा बात है। पहली बात कर्नाटक में भी भाजपा का अपना वोट नहीं डिगा है। 36 प्रतिशत वोट मिले ही हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की आंधी इसलिए आई क्योंकि दलित-मुस्लिम-ईसाई तथा कांग्रेस के अपने कोर वोट के अलावा वह मध्यवर्ग जुड़ा जो चार साल से भाजपा सरकार, उसके मंत्रियों, विधायकों के भ्रष्टाचार के हल्ले से खुन्नस में आ गया था। लोगों की बेहाली, महंगाई, बेरोजगारी आदि की तमाम तकलीफें बोम्मई सरकार के 40 प्रतिशत की बदनामी से जुड़ कर पकती गईं। ऊपर से नरेंद्र मोदी और अडानी ग्रुप, गुजराती अमूल के शोर ने लोगों का मूड बनाया। सो, भ्रष्टाचार के खिलाफ फ्लोटिंग वोट, घर बैठने वाले मतदताओं ने मतदान केंद्र जा कर वोट डाला।

मेरा मानना था, है और लगातार लिखता रहा हूं कि भारत में सत्ता परिवर्तन का प्रमुखतम निर्णायक कारण भ्रष्टाचार की दुखती नस है। कर्नाटक चुनाव से पहले अडानी ग्रुप, क्रोनी पूंजीवाद के साथ मोदी के जुड़ाव पर राहुल गांधी के फोकस से जहां उनकी मर्द, लड़ाकू और मेहनती नेता की इमेज बनी वही कांग्रेस की हवा। कर्नाटक में मैसेज बना कि मोदी की सरकार तो दो-तीन खरबपतियों के लिए है। हां, यही है जीत का, कांग्रेस, विपक्ष की उम्मीद का असली सूत्र! लेकिन कर्नाटक के बाद राहुल, कांग्रेस और विपक्ष इस बात को भूल बैठा है। इसलिए आश्चर्य नहीं जो अडानी ग्रुप यह कैंपेन चलाते हुए है कि हम तो असंभव को संभव कर दिखाते हैं। एक हिसाब से वही नारा जो मोदी खुद अपने लिए चलवाते हैं कि मोदी है तो मुमकिन है!

भ्रष्टाचार के आम परसेप्शन ने कर्नाटक में भाजपा को हराया। कर्नाटक में लोकल भ्रष्टाचार और केंद्र में मोदी-अडानी भ्रष्टाचार के हल्ले से एक और एक ग्यारह हुआ। तभी बजरंग बली की दुहाई के बाद भी भाजपा नहीं जीती।

मगर कैसा आश्चर्य जो नतीजों के बाद पूरा विपक्ष मोटा-मोटी इस खामोख्याली में (इसे प्रायोजित चुनावी विश्लेषण में जात, रेवड़ी व शिवकुमार के करिश्मे जैसी चर्चाओं से पकाया गया) है कि जात, तंगी, बदहाली से अपने आप माहौल व हवा बदलते हुए है। जरूरत इतनी भर है कि कांग्रेस और विपक्ष खूब वादे करें, लोगों का दिल-दिमाग नकद पैसा दे कर या उन्हें तमाम फायदे करा कर जीता जा सकता है! हैरानी की बात है जो कांग्रेस व विपक्ष के पुराने अनुभवी नेता भी यह नहीं समझे हुए कि 2014 में भ्रष्टाचार पहला मुद्दा था और उस पर मोदी के हिंदू-गुजरात मॉडल की सवारी थी। यही बात वीपी सिंह के समय हुई थी। भ्रष्टाचार के हल्ले पर उनकी ईमानदार की सवारी थी। यही फिनोमिना अरविंद केजरीवाल के अचानक नेता बनने की है। झाड़ू भ्रष्टाचार की सफाई का सिंबल था। पर केजरीवाल भी अब रेवड़ी मॉडल से फूले हुए हैं। तभी देखिएगा मई 2014 में रेविड़यों का मॉडल उनके उम्मीदवारों की दिल्ली में जमानत जब्त करवाता हुआ होगा।

विषयांतर हो रहा है और गपशप फैलती हुई है। मोटी बात विपक्ष कर्नाटक नतीजों के बाद पटरी से उतर गया है। नरेंद्र मोदी की परेशानी व बदनामी वाली चुनौती खत्म हो गई है। मतलब लोग भूलते हुए हैं कि मोदी सरकार अमीरों की सरकार है। न वे भ्रष्ट हैं और न अडानी। पहलवान आंदोलन, बेरोजगारी, मंहगाई से लोगों का दिमाग नहीं बदलता है। इस बात को भी नोट रखें कि नरेंद्र मोदी लगातार 100 करोड़ लोगों को लगभग फ्री अनाज या नकद मदद खाते में डलवा रहे हैं। हालात यह है कि गरीब भी फ्री का राशन ले कर 25-40 रुपए प्रति किलो की रेट पर बाजार में बेच कर कमाई करते हुए है। आम वोटों के लिए रेवड़ी योजनाएं छोटी-सामान्य बात है। इससे लोगों में वोट डालने का जोश नहीं बनता है। वैसा तो कतई नहीं जैसा कर्नाटक में कांग्रेस के लिए बना था।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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