खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथी उपदेशक अमृतपाल ने सरेंडर कर दिया और उसको गिरफ्तार करके असम के डिब्रूगढ़ ले जाया गया, जहां उसके दूसरे साथियों को रखा गया है। लेकिन एक कल्ट के तौर पर अमृतपाल का उभरना, पुलिस के भारी-भरकम बंदोबस्त के बीच उसका फरार होना और फिर अपनी मर्जी से उसका गिरफ्तार होना, ये सब सरकारी विफलता का नमूना है। यह पंजाब और केंद्र सरकार, पंजाब की पुलिस और राज्य व केंद्र की खुफिया एजेंसियों की विफलता का जीता जागता सबूत है। ध्यान रहे फरवरी महीने में अमृतसर के अजनाला थाने पर हजारों की भीड़ के साथ हमला करने और अपने साथी लवप्रीत सिंह तूफान को छुड़ाने की घटना से पहले अमृतपाल की चर्चा कम ही होती थी। लेकिन अजनाला की घटना के बाद अचानक उसकी चर्चा तेज हुई और यह सवाल उठा कि वह कैसे पंजाब पहुंचा और किसकी मदद से वह दीप सिद्धू के बनाय संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ का प्रमुख बन गया। इस सवाल का जवाब अभी तक नही मिला है और इसका जवाब मिलेगा तभी कई रहस्यों पर से पर्दा हटेगा।
पुलिस का दावा है कि उसने मोगा के रोडे गांव को घेर कर अमृतपाल को गिरफ्तार किया। सवाल है क्या गिरफ्तारी वैसे होती है, जैसे अमृतपाल की हुई है? राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत आरोपी किसी व्यक्ति को क्या सरेंडर करने के लिए अपनी पसंद की जगह चुनने की इजाजत हो सकती है? अपनी पसंद के कपड़े पहनने और अपनी पसंद से प्रवचन करने की इजाजत हो सकती है? अमृतपाल ने वह सब किया, जो उसने चाहा। याद करें फरारी के समय के उसके वीडियो को। उस समय मीडिया में क्या खबर आई थी? सूत्रों के हवाले से बताया गया था कि उसने सरेंडर करने की शर्त रखी है, जिसमें एक शर्त यह थी कि उसके पकड़े जाने को गिरफ्तारी नहीं सरेंडर कहा जाए। पुलिस भले उसके पकड़े जाने को गिरफ्तारी बता रही है लेकिन जिस तरह से उसको हिरासत में लिया गया है, उससे आम लोगों में यह मैसेज बना है कि उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया है।
अगर इसके पीछे कोई राजनीति या बड़ा खेल नहीं है तो अंदाजा लगाएं कि यह पुलिस और राज्य व केंद्र दोनों की खुफिया एजेंसियों की कितनी बड़ी विफलता है! वह 18 मार्च को पुलिस की नाक के नीचे से फरार हुआ था। पांच जिलों की पुलिस की घेराबंदी से निकल कर वह फरार हो गया और उसके 36 दिन बाद तक पुलिस उसको तलाश नहीं कर पाई। यहां वहां से उसके सीसीटीवी फुटेज, उसके नए रूप-रंग आदि की फोटो मीडिया में वायरल होते रहे। सर्वशक्तिशाली विश्वगुरू भारत की किसी खुफिया एजेंसी को जानकारी नहीं मिली कि वह कहां है और कौन उसकी मदद करके बचा रहा है!
जब पुलिस और खुफिया एजेंसियां पूरी तरह से विफल रहीं और यह विफलता प्रमाणित हो गई तब उसने खुद आगे आकर सरेंडर किया। पुलिस और खुफिया एजेंसियों को उनकी हैसियत दिखाने के बाद उसने अपनी पसंद की जगह पर समर्पण किया। वह खालिस्तान आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा रहे जरनैल सिंह भिंडरावाले के पैतृक गांव रोडे गांव पहुंचे और गुरुद्वारे में प्रवचन करते हुए सरेंडर किया। उसके समर्थकों ने पुलिस को जानकारी दी और तब ही पुलिस उसके पास पहुंच सकी। इस बात की पुष्टि खुद मुख्यमंत्री भगवंत मान की इस बात से हुई है कि अमृतपाल की गिरफ्तारी से पहले वे पूरी रात सो नहीं सके। सोचें, सबको पता है कि अमृतपाल ने रोडे गांव को अपना कर्मक्षेत्र बना रखा है फिर भी वह कब व कैसे वहां पहुंचा इसकी जानकारी पुलिस को नहीं मिली। अगर मिली होती तो उसे गांव में पहुंचने से पहले पकड़ लिया जाता। तभी यह संदेह होता है कि उसकी गिरफ्तारी के पीछे कोई दूसरी कहानी भी है।
एक साजिश थ्योरी यह रही है कि पुलिस ने उसे 18 मार्च को ही गिरफ्तार कर लिया था और राज्य में हालात न बिगड़ें इसलिए छिपा कर रखा और मामला शांत होने के बाद सरेंडर दिखा कर आधिकारिक रूप से हिरासत में लिया। अगर ऐसा है तो यह रणनीति की और बड़ी विफलता है क्योंकि इस क्रम में पुलिस और सरकार ने उसको नायक बना दिया है। बहरहाल, अब यह हकीकत है कि वह कट्टरपंथी खालिस्तान समर्थकों के लिए भिंडरावाले का पर्याय बना है, उसका प्रतीक बना है। उसने यह मैसेज बनवाया है कि पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी। उसने अपनी मर्जी से, अपनी शर्तों पर और अपनी पसंद की जगह पर सरेंडर किया। सोचें, किस समझदार आदमी ने भिंडरावाले के गांव रोडे गांव में सरेंडर करने की उसकी शर्त स्वीकार की? क्या यह बड़े प्रतीकात्मक महत्व का घटनाक्रम नहीं है? सरेंडर के समय वह प्रवचन कर रहा था। उसने चोला और परना पहना हुआ था, जिसका अपना एक प्रतीकात्मक महत्व होता है। क्या पुलिस के अधिकारियों को पता नहीं है कि भावनात्मक और राजनीतिक मामलों में सरेंडर या गिरफ्तारी की तस्वीर बड़ा मैसेज बनवाती है? फिर कैसे अमृतपाल को अपनी पसंद के तरीके से सरेंडर करने की छूट दी गई?
अमृतपाल सहित दूसरे खालिस्तान समर्थकों को गिरफ्तार करके डिब्रूगढ़ ले जाने से भी सरकार क्या मैसेज बनवा रही है? कहा जा रहा है कि उसके और उसके समर्थकों के ऊपर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी रासुका लगा है इसलिए डिब्रूगढ़ ले जाया गया है। यह कैसा तर्क है? क्या जितने लोगों पर रासुका लगता है उन सबको राज्य से बाहर ले जाया जाता है? कई राज्यों में अनगिनत लोगों के ऊपर रासुका लगा है लेकिन किसी को राज्य से बाहर नहीं ले जाया गया है। रासुका और यूएपीए के आरोपियों की सुनवाई राज्यों में ही होती है। अमृतपाल के मामले में गिरफ्तार कट्टरपंथियों को राज्य के बहुत दूर ले जाने से यह मैसेज बन रहा है कि सरकार पंजाब के आम लोगों पर भरोसा नहीं करती है। उनको लग रहा है कि अगर अमृतपाल और उसके समर्थकों को पंजाब में रखा गया तो कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। अजनाला जैसी घटना भी हो सकती है, जिसे खुद अमृतपाल ने अंजाम दिया था।
सोचें, अगर सचमुच ऐसी स्थिति है तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के यह कहने का क्या मतलब रह जाता है कि पंजाब में खालिस्तान की कोई लहर नहीं है! उन्होंने अमृतपाल की गिरफ्तारी से एक दिन पहले बेंगलुरू के एक कार्यक्रम में ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन पर कार्रवाई के लिए पंजाब सरकार की तारीफ की थी और कहा था कि पंजाब में खालिस्तान की लहर नहीं है। जब खालिस्तान की लहर नहीं है तो खालिस्तान समर्थकों को डिब्रूगढ़ ले जाने का क्या मतलब है? फिर सामान्य अपराधियों की तरह उनके खिलाफ पंजाब में ही सुनवाई क्यों नहीं हो रही है? उन्हें पंजाब से निकाल कर दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश नहीं ले जाया गया सीधे असम ले जाया गया। यह अपने आप इस बात का सबूत है कि सरकार को राज्य के हालात के बारे में भरोसा नहीं है। इससे आम सिख के मन में भी यह धारणा बनेगी कि सरकार उसके ऊपर अविश्वास करती है।
ध्यान रहे पिछले दिनों स्वर्ण मंदिर परिसर में एक युवती के प्रवेश का विरोध हुआ, जिसका वीडिया सामने आया था। युवती ने अपने चेहरे पर तिरंगा बना रखा था। हालांकि उस तिरंगे के बीच में चक्र नहीं था फिर भी भारत के राष्ट्रीय झंडे के तीनों रंग उसमें थे और एक सेवादार उस युवती को रोकते हुए कह रहा था कि यह पंजाब है, भारत नहीं। बाद में इस पर सफाई भी आई लेकिन यह हकीकत है कि आम लोगों के मन में नहीं भी हो तो कुछ खास समूहों में ऐसी धारणा बन रही है। हालांकि इस घटना के कुछ दिन बाद ही इसका कंट्रास्ट भी देखने को मिला, जब जम्मू कश्मीर में शहीद हुए सेना के पांच जवानों में से चार के ताबूत एक साथ पंजाब के अलग अलग गांवों में पहुंचे। एक हफ्ते के अंतराल पर घटित ये दोनों घटनाएं यह बताती हैं कि पंजाब को कितनी सावधानी और संवेदनशीलता के साथ हैंडल करने की जरूरत है। अगर किसी ने भी देश के दूसरे राज्यों में होने वाली ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति को पंजाब में दोहराने का दुस्साहस किया तो उसका अंत नतीजा बहुत भयावह हो सकता है।